रविवार, 9 अगस्त 2015


धार्मिक स्तर पर ’इण्डों-ट्राइबल’ सभ्यता की रूपरेखा:-

(आदिवासी विमर्श : स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश ;पुस्तक में प्रकाशित आलेख का प्रक्षिप्त अंश)

आदिवासी समुदाय को धार्मिक दृष्टि से भारत समेत शेष विश्व में हिन्दू-धर्म से संबंध स्थापित करके विमर्श को नया आयाम दिया जा रहा है। प्रश्न स्वाभाविक है कि-क्या आदिवासी वैदिक युग की उपज हैं? याकि यह वैदिक युग के प्रतिक्रियास्वरूप बौद्ध-दर्शन से अनुप्राणित है। यह प्रश्न जटिल परन्तु विवादग्रस्त है। बी0डी0 सावरकर स्पष्टतः स्वीकार करते हैं कि, ‘‘भारत-भूमि के प्रति अपनत्व भाव रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है। यह पवित्र भूमि है।........इस प्रकार ‘अबारिजीनल’ या पहाड़ों में निवास करने वाले आदिवासी हिन्दू हैं, क्यांेकि भारत में उनके द्वारा ग्रहीत धर्म और पूजा का संधान इसी पैतृक एवं पवित्र भूमि से किया जा सकता है।’’19 इसी प्रकार अब्बास चटर्जी ने अपनी पुस्तक भ्पदकन छंजपवद में उनके धर्म ’सरना’ को हिन्दू धर्म से जोड़ते हुए धार्मिक एकीकरण करने का प्रयास किया है। लेकिन हिन्दू धर्म और आदिवासी धर्म में ‘‘पालिथेइज्म’’ अर्थात् ‘‘बहुदेववाद’’ की प्रवृŸिा समान रूप से कायम है। इसे यूरोप में भी इसके आविष्कारक के रूप में महत्व प्रदान किया गया, परन्तु 19वीं शताब्दी में यूरोपीय विद्वत समूह ने एक नवीन कल्पना ‘यूर्मोनोथिइज्म’ के रूप में की है, जिसमें प्राचीन एकेश्वरवादी (प्राइमवल मोनोथिइज्म) के प्रारंभिक सिद्धांत को ही लगभग सभी आदिवासी धर्मों में स्वीकार किया गया।20 इस धारणा का प्रमुख आधार प्रकृति पूजा में निहित है। यदि प्राचीन ’नाग पूजा’ का स्मरण करें और नागा जनजाति के साथ तादात्म्य स्थापित करें, तब हिन्दू धर्म से इसका अन्तर्संबंध स्वतः स्थापित हो जाता है क्योंकि नागा या सर्प शिव और विष्णु के सबसे शक्तिशाली एवं प्रतीकात्मक घटक हैं।21 अन्य अर्थों में नागा लोग नग्न रहते है, ठीक वैसे ही जैसे कुछेक आदिवासी पेड़ों की छाल पहन कर भी इन्हीं की तरह दिखते है। इस प्रथा को छोटानागपुर और नागालैंड में सहज ही देख सकते हैं। 
इस प्रकार जनजातीय धर्म पर हिन्दू एवं ईसाई धर्म का समान प्रभाव दिखाई देता है। ईसाई विचारक ए0जे0 फिलिप पर विश्वास करें तब उचित ही कहना पड़ेगा कि, ‘‘भाषिक दृष्टि से हिन्दुत्व की अवधारणा की समझ में विश्व स्तर पर आदिवासी शब्द अदृश्य हो गया है। शायद इसी कारण संघ परिवार इन्हें ’वनवासी’ कहकर पुकारते हैं। यह उपमा उनकी सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। इस प्रकार पृथ्वी के आदि पुरूष को इस पर गर्वित न होकर कुंठित होना लाजमी है। इस अर्थ में इतिहास का पुनर्लेखन अत्यावश्यक है। शायद इसी कारण भारतीय संदर्भ में संविधान के सकारात्मक प्रक्रिया की बजाय भाजपा जैसी पार्टियाँॅं भी इन्हंे ’वनवासी’ कहना पसंद करती है।22 ऐतिहासिक और हिन्दुत्व विरोधी ज्ञानेन्द्र पांडेय लिखते है कि, ‘‘मार्च 1982 ई0 में प्रकाशित आर0एस0एस0 के ’पांचजन्य’ का ’वीर वनवासी’ अंक जर्नल भारत के आदिवासियों को समर्पित है। भारत में आदिवासी की बजाय वनवासी का प्रयोग अनेक सामाजिक और राजनैतिक विचारकों ने किया है। इसका अर्थ यह नहीं कि आदिवासी वास्तविक हिन्दुत्व की अवधारणा से ग्रसित शब्द हों।23 कुल मिलाकार जनजातीय धर्म पर हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई समुदाय का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। यदि इनके धर्म पर दृष्टिपात करें, तब इनके यहाँ एक देवकुल होता है, फिर भी वे गैर जनजातीय पड़ोसियों एवं ब्रिटिश शासकों के विश्वासों से संपृक्त है। नृजातीय वैज्ञानिकों द्वारा हाल में किये गये अध्ययन से पता चलता है कि-खास तौर से -उŸारी पश्चिमी एवं मध्य भारत की जनजातियों के अध्ययन से कोई भी संदेह नहीं रह जाता है कि-कुछ जनजातियों ने हिन्दुत्व ग्रहण किया है, जो विभिन्न स्तरों पर हिन्दुओं की विभिन्न जातियों में मिल गये हैं। प्रमाणस्वरूप ’उरांव’ के हिन्दुत्व ग्रहण का विवरण पर्याप्त है। नृ-वैज्ञानिकों ने पता लगाया कि किस हद तक ’उरांव’ ने हिन्दुओं के धार्मिक विश्वासों को अपनाया है और देशज परंपरा में अपने को उसके अनुकूल बनाया है।24 ऐसा कहा जाता है कि जब ’उरांव’ रोहतास के राजा द्वारा शासित थे, तो वे लोग न तो भूत या जीवात्माओं के बारे में जानते थे और न गाय का मांस या गंदा भोजन करते थे बल्कि उन लोगों की आदतें अच्छी थीं और वे जनेऊ तक पहनते थे। जब ’उरांव’ लेाग मुंडा के संपर्क में आये तो वे धीरे-धीरे उनकी प्रथा में समंजित हो गए एवं जीवात्माओं में विश्वास करने लगे। बाद में जब उरांव हिन्दुओं के संपर्क में आये तो वे लोग महादेव एवं पार्वती या देवी माई या शक्ति के विचार को अपने ईश्वर एवं जीवात्मा की धारणा में समावेशित करते गये, जो आश्चर्य की बात नहीं हो सकती। समय के साथ-साथ संपर्क द्वारा विचार की उन्नति के साथ-साथ कुछ जीवात्माओं का प्रवेश हुआ। इसी प्रकार टाना भगत, नेन्हा भगत, बछीदान भगत, कबीरपंथी भगत आदि का स्मरण करके हिन्दू -धर्म-परिवर्तन और इसके प्रभाव को ग्रहण किया जा सकता है।
आदिवासियों पर हिन्दू-धर्म की अपेक्षा ईसाइयत का प्रभाव अधिक नजर आता है । इसका अहसास ईसाई मिशनरियों द्वारा किये जा रहे धार्मिक परिवर्तन से होता है। इसके लियें इन लोगों ने सामाजिक सेवा, शिक्षा एवं दवा-दारू की सुविधा आदि को साधन बनाया था। इसका प्रथमतः प्रभाव मेघालय के खासियों में (1813 ई0), छोटा नागपुर के उरांव में (1850 ई0), और मध्यप्रदेश के भीलों (1880 ई0) में देखा गया है।25 प्राप्त ऑंकडों के अनुसार-साढ़ें पाँॅंच प्रतिशत भाग में ईसाई धर्म का प्रचार हुआ है। दक्षिण भारत का अकेला केरल ही ऐसा राज्य है, जहाँॅं ईसाई, धर्म कें अनुयायी दस हजार से ज्यादा की संख्या में हैं। ईसाई धर्मावलंबी जनजातियों में सर्वाधिक संख्या उरांव की है। मुण्डाओं, मिजो एवं नागाओं को मिलाकर यह संख्या दो लाख के लगभग है। इसमें मिजो, खासी, तोंगरबुत, नागा एवं खडि़या मुख्य जनजातियॉंँ हैं। राय एवं मजूमदार ने छोटा नागपुर क्षेत्र में धर्म परिवर्तन के कारणों का विश्लेषण किया है। ये जनजातियाँं मुख्यतः राँॅंची में पायी जाती है। मजमूदार कहते कि-हिन्दू जमींदारों एवं आदिवासी रैयतों के संबंध असंतोषजनक है।26 इसका विस्तृत विवरण राय ने मुण्डा संबंधी प्रबंध में दिया है। इस सबंध में मजमूदार ‘‘हो ’’ एवं संथालों के ईसाईकरण में अनवरत वृद्धि की बात स्वीकार करते हैं।
’भारत की जनजातीय संस्कृति’ पुस्तक में जनजातीय त्यौहारों एंव विश्वासों की पुनः सांस्कृतिक व्याख्या करते हुए, आदिवासियों के ‘‘सरहूल’’ त्यौहार की उत्पत्ति सिकंदर और पोरस के बीच ई0पू0 चैाथी शताब्दी में हुई लड़ाई से माना जाता है। कहानी में, राजा पोरस मुण्डा के राजा थे। वह समय चैत्र के महीने का था एवं साल के फूल खिल रहे थे। साल इतने प्रचुर मात्रा में थे कि हाथी साल के जंगल में घूम रहे थे। परन्तु जब शत्रु ने हाथी के सूंडों को काटना शुरू किया तो हाथी पीछे की ओर लौटने लगे, जिसकें परिणामस्वरूप मुण्डा लोग अपने ही हाथियांे द्वारा कुचले गये। मुण्डा लोग पराजित हुए और पोरस को बंदी बनाया गया। अब ये लोग अपने पूर्वजों की यादगार में उस दिन शोक एवं दुःख के प्रतीक के रूप मंें उपवास करते हैं। दूसरा दिन हर्ष का होता है, क्यांेकि सभी पूर्वज स्वर्ग चले जाते है।27 कुछ गांँवों में ईसाई धर्म के अनुयायी मुण्डा, इस्टर के अवसर पर कर्ब्रांे पर स्मरण पत्थर रखते है।
लेकिन आदिवासी सभ्यता की परख रखने वाली रमणिका गुप्ता ने अपनी पुस्तक ’आदिवासी: विकास से विस्थापन’ में ’विकास यात्रा औार परिवर्तन की दिशा’ शीर्षक लेख को शामिल करके ईसाईयत एवं ईसाईकरण की उपर्युक्त मान्यताओं को निराधार सिद्ध करने का प्रयास किया है। भले ही ईसाई हमारे देश में दो-तीन करोड़ हांे, लेकिन यह बताना कठिन है कि इसमें आदिवासी कितने है। अतः ईसाई धर्म का प्रभाव नगण्य है। कुछ राज्यों जैसे असम, नागालैण्ड, मिजोरम, अरूणाचल, बिहार तथा मध्यप्रदेश में यह संख्या ज्यादा होगी, पर अन्य स्थानों पर यह संख्या कम दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में अनेक आदिवासी ईसाई बने, पर ऐसा नहीं लगता कि अधिकांश आदिवासियों के जीवन पर ईसाई धर्म का प्रभाव पड़ा है। वह इस प्रमाण को पुष्ट करने के लिए तर्क देती हैं कि-अकाल, बाढ़ तथा अन्य आर्थिक समस्याओं से पीडि़त तथा सवर्ण हिन्दुओं के अत्याचारों से सताए हुए आदिवासी, ईसाई बने। अन्य आदिवासी जनता मिशनरियों के प्रलोभन का शिकार बनी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मिशनरियों पर काफी बंधन आ गए। असम, नागालैंड, मिजोरम आदि भागों में- ब्रिटिश शासन काल में-ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार बड़े पैमाने पर हुआ। हिन्दू धर्म सुधारकों के पहले ही ईसाई मिशनरी आदिवासियों तक पहुॅंँचे थे। धर्मांतरण के साथ ही उन्हांेने आदिवासियों की शिक्षा तथा स्वास्थ्य की ओर ध्यान दिया। ये धर्मांतरित आदिवासी चाहे खुद दूसरों की अपेक्षा अपने को श्रेष्ठ मानते हों, तो भी अन्य आदिवासी उन्हंे तुच्छ समझते हैं।28 साथ ही यह स्वीकार करती हैं कि-सरकार की आधुनिक योजनाओं से आदिवासी समुदाय में शिक्षा का स्तर बढ़ने पर पलायन का रूकना निर्विदाद है। ईसाई मिशनरी और संघ परिवार के ’वनवासी कल्याण आश्रम’ वालों में समानता बताते हुए इन आश्रम वाले तथाकथित हिन्दू सुधारक (मनुवादी तथा परम्परावादी विचारों वाले) अपने विचारों को लादकर उन्हंे सच्चें अर्थांे में धर्मांतरित करते हैं।  
अतः ईसाई धर्मांतरण का यह तर्क इतिहास के पुरोधाआंे को चिंतित मुद्रा में खड़ा होने पर विवश करता है। वस्तुतः हम कह सकते है कि-जनजातीय जीवन में प्रचलित धार्मिक संस्कार समकालीन प्रभावों को ग्रहण करता हुआ वर्तमान में प्राप्त है, जिस पर कभी हिन्दू, कभी मुस्लिम तो कभी बौद्ध या ईसाई धर्म के संस्कारों के बीजों को प्रभावस्वरूप देखा जा सकता है। जहॉंँ तक बौद्ध धर्म के प्रभाव की बात है, तब इसमें कुछेक इतिहासकार यह मानते हैं कि-महात्माबुद्ध अपने मानवतावादी विचारों के मूल स्रोतों को प्राचीन आदिवासी समाज में प्राप्त करते हैं, जो संदेहास्पद है। फिर भी वह जानते थे कि आदिवासी गणतंत्र, जो कि (जाति आदि) समाज की मुख्यधारा से नहीं जुड़े थे। कुछ लोग तो प्रारंभिक बौद्ध संघों का मॉडल भी आदिवासी पद्धति पर निर्मित हुआ मानते हैं, जिसमें सामाजिक संबद्धता, लिंग समानता और आपस में भाईचारे की भावना मुख्य है।29 अतः बौद्ध-धर्म के प्रभाव को हम अनुभूत कर सकते हैं। उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर जनजातियों में प्रचलित विश्वासों की प्रकृति के दर्शन होते हैं, जो अपने आप में ’जीववाद’ से लेकर ’बहुदेववाद’ तक की विचारधारा को सम्मिलित करती है। मिथक एवं गाथाएँ उनकों बल प्रदान करते है। इस तरह वे लोग सभी प्रकार की जीवात्माओं की चाहे वे हितकारी हों या अहितकारी पूजा करते हैं।
अतः आदिवासियों में प्रचलित धर्म की व्याख्या करने के लिए टायलर के वर्गीकरण पर आश्रित होना आवश्यक है, जिसने धर्म को ’पारलौकिक प्राणियों पर विश्वास’ के रूप में ग्रहण करते हुए, ’जड़ात्मवाद’ (।दपउपेउ) शब्द का प्रयोग किया है। इसे वह दो भागों ( आत्मा का सिद्धांत और प्रेतांे का सिद्धांत) में विभक्त करते हैं।30 यदि आर0आर0मैरेट पर विश्वास करें तब उनकी मान्यताएॅँ भावनात्मक आधार लिए हुए प्रतीत होती है। इर प्रकार धर्मोत्पत्ति से संबंधित मान्यताओं के आधार पर इसे सात भागों में वर्गीकृत किया है। अतः यह वर्गीकरण (यथा प्रकृतिवाद, सर्व-बेबीलोनवाद, मनावाद, जीववाद, देवक पूजावाद, गणचिह्नवाद और जादूवाद) आदिवासी समुदायों में किसी न किसी रूप में धर्म की उत्पŸिा और प्रचलन के रूप में सार्थक प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त शमनवाद, मिथिक (पुराकथाएँॅं), सिरोच्छेदन अभिचार (डायन कर्म) इत्यादि संस्कार भी धार्मिक व्याख्या करने में सहायक है। यहाँॅं तक कि उनके गाँंॅव, मैदान एवं जंगल सभी धार्मिक केन्द्रांे से भरे हैं। परिवार के प्रमुख का यह उŸारदायित्व रहता है कि वह परिवार के स्तर पर देवी-देवताओं की पूजा करे। गाँॅंव का पुजारी इसका उŸारदायित्व सामुदायिक स्तर पर लेता है। जनजातियों में प्रचलित अंधविश्वास भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं। जैसे -भूत-प्रेतों से रक्षा हेतु शमन या जादू, धार्मिक-कृत्यों हेतु बलि, पैतृक जीवात्माओं का पूजन, पूर्वजों को गृह का देव मानना इत्यादि धार्मिक अंधविश्वास प्रचलित है, जो हिन्दू घरों में भी सहज ही देखे जा सकते हैं। महाश्वेता देवी ने कहा है कि, ’’शिव और काली आदिवासी उत्पŸिा में सहायक हैं।’’ 8वीं शताब्दी में आदिवासी जंगली देवता या अन्न देवी को शिव की पत्नी के रूप में माना गया है। जैसा कि गणेश की उत्पŸिा एक शिक्षित हाथी से भी बताया जाता है, जो हिन्दू समाज से संबंधित है, और उस हाथी को ‘टोटेम’ से अन्तर्संबंधित किया गया। इस अध्ययन में महाराष्ट्र के ब्राह्मण वंश परंपरा में ब्राह्मणों के कई गोत्रों (कश्यप) की उत्पŸिा इसी ’टोटेम’ से हुई है-जैसे कि कच्छप (ज्वतजवपेम)। राजस्थान के राजपूत युग में आदिवासी भील संगठनो की चर्चा का आना और भीलों का राजपूत राज्याभिषेक समारोहों में केन्द्रीय भूमिका की बात इतिहास से परे नहीं है।

आदिवासी समुदाय की पृष्ठभूमि और परिवर्तन के विविध सरोकार.आदिवासी विमर्श : स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश ;पुस्तक,ISBN 978.93.81630.03.7ए ;अध्याय.1ण् पृष्ठ.1 से 65 तकद्धए वर्ष.2012ए सम्पादक.डाण्वीरेन्द्र सिंह यादवए डाण् रावेन्द्र कुमार साहूए प्रकाशक. पैसिफिक पब्लिकेशन्स सादतपुर एक्सटेंसनए दिल्ली

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