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शनिवार, 16 अप्रैल 2022

स्व की गुफा में भटकते लोग

आत्मा की नजरों में घोषित 


वर्तमान समय में लोग इतनी तीव्र गति से अपना रूप बदलते है कि केंचुल छोड़ता अहि भी शर्म से पानी-पानी हो जाय । लोगों के रंग-ढंग में बनावटीपन और स्तरविहीन व्यक्तित्व के बोझ तले दबकर उसके चतुर्दिक निर्मित संसार एक तरफ से गिरता चला जाता है और उसे एहसास भी नहीं होता । 

फोटो-साभार गूगल

दरअसल ऐसे लोगों के लिए  लोकप्रचलित शब्द प्रसिद्ध है । वह है-गिरगिट । वह गिरगिट की तरह रंग बदलता है । परन्तु गिरगिट की केवल गर्दन रंगीन होती है । उस व्यक्ति का सम्पूर्ण शरीर बदरंग हो जाता है । इस चितकबरी काया को लेकर वह बहुत गर्व करता है । 

आश्चर्य तो तब अधिक होता कि धीरे-धीरे उसे अपना "असली चेहरा याद नहीं /(जहीर कुरैशी) आता । और जहीर कुरैशी के शब्दों में वह स्थितप्रज्ञ को स्वीकार करते हुए कहता है-

भीतर से तो हम श्मशान हैं
बाहर मेले हैं ।

कपड़े पहने हुए
स्वयं को नंगे लगते हैं
दान दे रहे हैं
फिर भी भिखमंगे लगते हैं

ककड़ी के धोखे में
बिकते हुए करेले हैं ।

इतने चेहरे बदले
असली चेहरा याद नहीं
जहाँ न हो अभिनय हो
ऐसा कोई संवाद नहीं

हम द्वन्द्वों के रंगमंच के
पात्र अकेले हैं ।
 
दलदल से बाहर आने की
कोई राह नहीं
इतने पाप हुए
अब पापों की परवाह नहीं

हम आत्मा की नज़रों में
मिट्टी के ढेले हैं ।

साभार-कविता कोश

फोटो-गूगल से साभार

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

दलित साहित्य का सौंदर्य एवं अम्बेडकर

दलित साहित्य का सौंदर्य एवं अम्बेडकर


भारतीय संविधान के मर्मज्ञ एवं दलित विमर्श के मसीहा अम्बेडकर की 131वीं जयंती के अवसर पर एक बात जेहन में आ रही है कि-दलित-अदलित-पीड़ित जनसमूह से निर्मित भारत का आधुनिक ढाँचा बहुत कुछ उनके विचारों पर खरा उतरकर निर्मित हुआ है, जिसे उन्होंने 1936 में "अपने प्रसिद्ध लेख एनीहिलेशन आफ कास्टीज्म' की पृष्ठभूमि के रूप में घोषित किया था |


दरअसल बाबा साहब भीमराव आंबेडकर दलित साहित्य के सूर्य थे | उनकी प्रखर प्रतिभा का आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दलित साहित्य में आत्मसम्मान और आत्म गौरव का भाव जगाया | हरिनारायण ठाकुर ने 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' ( पृष्ठ १७५ ) में  "दलित आंदोलन पर विस्तृत काम करने वाले इ. जिलियट के लेख 'गौरव का लोकगीत : समकालीन दलित विश्वास के तीन घटक' का उल्लेख करते हैं, जिसकी शुरूआत अंबेडकर की मराठी कविता से हुआ है | इसके साथ ही वे उसका हिन्दी अनुवाद भी किये है-यथा-


हिन्दुओ को चाहिए थे वेद,

इसलिए उन्होंने व्यास को बुलाया, जो सवर्ण नहीं थे |

हिन्दुओ को चाहिए थे महाकाव्य , 

इसलिए उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया, जो खुद अछूत थे |

हिन्दुओं को चाहिए था एक संविधान ,

इसलिए उन्होंने मुझ (अम्बेडकर) को बुलाया |

इस प्रकार अम्बेडकर ने महसूस किया उस पीड़ा को जो दाग दिया सच (रमणिका गुप्ता) में महावीर और मालती ने झेला था, जीवन साथी (प्रेम कपाडिया) बनकर रेखा ने झेले, चंदर ने अपनी अस्मिता को लहूलुहान (बुद्धशरण हंस) करके वैश्यालय में माँ का दर्शन किया था और उस वैश्य में ही दुर्गा एवं सहक्ति का सानिध्य पाया | इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश वाल्मीकि का तो यहाँ तक कहना है कि, " डा. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना | उनके अनुसार-हिंदुओं की ब्राम्हणवादी और पूंजीवादी व्यस्था का जन्म भारतीय गाँव में होता है |(दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र-ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ-३१)  कुल मिलाकर अदम गोंडवी ने जिस ताप को निम्न गजल में महसूस किया, कमोबेश अम्बेडकर ने भी महसूस किया-


आइए, महसूस करिये जिंदगी के ताप को |

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको |


जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर |

मर गयी फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर |


है सधी सिर पर बिनौले-कंडियों की टोकरी |

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी |


चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा |

मैं इसे कहता हूँ सरयू पार के मोनालिसा |


कैसी ये भयभीत है हिरनी -सी घबराई हुई |

लग रही जैसे कली बेला के कुम्हलाई हुई |


कल को ये वाचाल थी पर आज कैसी मौन है |

जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है |


थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को |

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को |


डूबते सूरज की किरने खेल रही थी रेट से |

घास का गठ्ठर लिए ये आ रही थी खेत से |


आ रही थी वो चली खोयी हुई जज्बात में |

क्या पता उसको कोई भेदिया है घात में |


होनी से अनभिज्ञ कृष्ना बेखबर राहों में थी |

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी |


चीख निकली भी तो होठों में ही घुटकर रह गयी |

छटपटायी पहले, फिर ढीली पडी, फिर ढह गयी |

*****************************

*************************और अंत में कहते हैं-

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आयें मेरे गाँव में |

तट पे नदियों के घनी अमराईयों की छाँव में |


गाँव जिसमें आज पांचाली उघारी जा रही |

या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही |


हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए |

बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए |


अदम साहब ने जिन-जिन पात्रों को अपने गाँव में चमारों की गली (पृष्ठ-८४) तक ले जाने की बात करते हुए हरखू, मंगल, फुलिया,कृष्ना जैसे को व्यक्त किया हैं ठीक वैसे ही पात्र अम्बेडकर को महाराष्ट्र में मिले, कर्णाटक सहित दक्षिण में मिले और उन्होंने ऐसे पात्रों को बहुजन हिताय के दृष्टिकोण से सामाजिक स्वतंत्रता का ऐसा स्वाद चखाया, जिसके बल पर आज उनका साहित्य समकालीन साहित्य में मील के पत्थर की तरह स्थापित होकर विकास के पथ पर अग्रसर कराने को तत्पर है | 

इस सन्दर्भ में मैं अपने गाँव के तथाकथित हरिजन कहे जाने वाले कुनबे की ओर अपनी विहंगम दृष्टि डालता हूँ तो ऐसा दृश्य उपस्थित होता है , जिन्हें दलित कहने में मुझे शर्म महसूस होता है | (क्योंकि हरि नारायण ठाकुर जी ने भी कुछ इस तरह से माना है कि-समाज का वह प्रत्येक व्यक्ति दलित है, वह चाहे किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय का हो, भूख की पीड़ा से त्रस्त हो ) अतः हमारा गाँव इस मायने में बहुत आगे है | गाँव की शुरूआत ही इनकी बस्ती से होती थी | लेकिन एक अनजान व्यक्ति आज जब गाँव में प्रवेश करता है तो वह भ्रम में पड़ जाता है कि ये महल किन रईसों के हैं | उनके घरों में शायद ही कोई घर होगा जहाँ कोई सरकारी सेवा में न हो | दो-चार घर अभी भी तंग हैं जैसे-अमरीका, पतरू, भरत आदि लेकिन इनकी भी स्थिति इतनी पतली नहीं कि वे दो जून का के भोजन को मोहताज हों | कहने का अर्थ है कि-अब स्थिति परिवर्तित हो चुकी है |


प्रसंगतः दलित विमर्श का पुनर्मूल्यांकन समय और समाज की जरूरी माँग हो सकती है क्योंकि आज जब हम हासिये के यथार्थ की बात करते हैं तो सहज ही नारी-दलित-आदिवासी विमर्श की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाता है ।


14/04/21



एक शाम : अपनों के नाम


बाबा अम्बेडकर : मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन विषय पर अपने विचारों को साझा करने का अवसर मिला । प्रसंगतः बहुत ही सार्थक पहल के लिए Amit Maurya जी को खूब बधाई । उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे छात्र-छात्रा..अध्यापक/अध्यापिकाओं के जीवन को वर्तमान परिवेश के अनुरूप शिक्षित करने हेतु बहुत सधी शुरूआत की । बाबा अम्बेडकर की शिक्षा की वास्तविक प्रासंगिकता उनके विचारों को आत्मसात करने से ही सिद्ध हो सकती है । इसके प्रति हमें ईमानदार होना जरूरी है । 


जब समाज का कोई कथित बुद्धिजीवी उन्हें समाज के सीमित मानकों पर उन्हें बाँधने का प्रयास करता है तो हमें पुनर्विचार करके मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है । आज हम समाज में अन्न से लेकर सुख के बीच पनपी तमाम अन्तर्व्यथाओं को नीलकण्ड की तरह पीने को अभिशप्त हैं । जबकि पीड़ा भी कहीं-कहीं खूब विलाप करती हैं तो ग्लानिग्रस्त मानव की मानवीयता के आगोश में अपना रूप बदलकर परिवर्तन की आशा करती है ।


ऐसी विषम परिस्थितियों में अम्बेडकर के विचारों को अपनाना जरूरी है । आज के इस व्याख्यान में मैंने इन्हीं विचारों को रूप प्रदान करने के लिए उनके जीवन-दर्शन से लेकर राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक विचारों के माध्यम से नये निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास किया । 


इसमें सबसे अधिक बातें दलित विमर्श के संदर्भ में गांधी बनाम अम्बेडकर के विचारों को लेकर की गयी और इस नये धरातल पर विमर्श को गति दी गयी । इसके निमित्त गांधी-अम्बेडकर वाङ्गमय के साथ ही हरि नारायण ठाकुर एवं ओम प्रकाश वाल्मीकि के द्वारा की गयी स्थापनाओं के आधार पर विश्लेषण को धारदार बनाने का प्रयास किया गया । यह व्याख्यान अम्बेडकर के चिंतन में बेरोजगारी के दंश से पीड़ित विशाल जनसमुदाय को भी समाहित करने में सफल रहा क्योंकि अंततः यहाँ भी यह तथ्य उभरकर सामने आया कि-आधुनिक पीढ़ी की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है, जिसके बोझ तले दबकर भावी पीढ़ी नयी इबारत लिखने का प्रयास कर रही है । 


साभार-श्री नीलम देवी महाविद्यालय, बलिया (उत्तर प्रदेश)


#डॉ. मनजीत सिंह

मंगलवार, 11 जनवरी 2022

 मृत संवेदनाएँ एवं मानवतावादी दृष्टिकोण : चिंतन, चुनौतियाँ एवं समाधान


मानवता संवेदनशील प्रवृत्तियों से बलवती होती है । यह संस्कृति का परिष्कार करती है एवं समाज को नयी दिशा भी प्रदान करती है । 


परन्तु वर्तमान समय में मृत कोशिकाओं से निर्मित संवेदनाएँ विपरीत परिस्थितियों को जन्म देती हैं । इसके दो कारण हैं-पहला स्वयं मनुष्य का व्यक्तित्व एवं दूसरा परिवर्तित वातावरण-परिवेश । यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि-मनुष्य स्वार्थ के वश में होकर अपने विकास की धारा मोड़ लेता है, जिसकी नियताप्ति निःसंदेह विनाश के रुप में होती है । इसके लिए कुछेक ज्वलंत उदाहरण मजबूत आधार प्रदान करते हैं । 


हाल ही में एक घटना से रूबरू होने का संयोग बना । इसे आप काल्पनिक भी मान सकते हैं । बलिया जनपद के सुदूर पूरब में एक गाँव हैं । इस गाँव में मुश्किल से पाँच सौ आबादी होगी । यहाँ के युवा "कमाओ-खाओ-लूट-लुटाओ" में विश्वास करते हैं । अचानक एक दिन इनमें से एक परिवार का पढ़ने में रुचि दिखाने लगता है लेकिन यहाँ के परंपरागत योद्धा तमाम ओछी हरकते करके दिग्भ्रमित करने के लिए कुटिल रणनीति तैयार करते हैं । 


परन्तु समय चक्र बहुत तीव्र गति से घूर्णन करता है और बहुत कम समय में वह छात्र अतिरिक्त क्षमताओं का स्वामी होने के कारण उस गाँव में विजेता बन जाता है । स्वयं को ब्रह्मराक्षस का पर्याय मानकर विशेष पद को सुशोभित करने की कल्पना करके यथार्थ की जमीन से दूर हो जाता है । उसका यथार्थ कब स्वार्थ में परिवर्तित हो जाता है, इसका एहसास उसे तनिक भी नहीं होता । इस तरह वह धीरे-धीरे अहं के सम्पूर्ण अवयव का स्वामी बन बैठता है ।


 परिणामस्वरूप उसमें  नैतिक-सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रतिमान धुंधले पड़ जाते हैं । इस प्रकार उसके व्यक्तित्व की कल्पना करते हुए समाज के विकास-पतन को  महसूस कर सकते हैं ।


हमारे पूर्वज न केवल अनुभव के धनी होते थे अपितु उनके पास लोक-समर्थित ज्ञान का अकूत भंडार था । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि यह भण्डार कभी भी खाली नहीं होता था । इसी में से यह तथ्य छनकर आता है कि-मनुष्य वातावरण-परिवेश के अनुरूप अपने व्यवहारों में आवश्यक परिवर्तन करता है । ये बदलाव कभी दिखता है तो कभी अदृश्य ही रहता है । 


अतः इसी प्रभाव के कारण संवेदनशील मनुष्य कभी कठोर दण्ड का भागी बनता है तो कभी सरस माधुर्य का स्वामी । इसमें दो मत नहीं कि कठोरता अक्सर विनाश की सवारी करती है जबकि सरलता वैचारिक रूप में चक्रवर्ती बनाता है ।


©डॉ. मनजीत सिंह 


जारी

रविवार, 29 दिसंबर 2019

परिवार के नये मानदंड

परिवार के नये मानदंड


वर्तमान समय में भारत का सामाजिक ढाँचा न केवल परिवर्तित हुआ है अपितु इनमें विद्रोह के नये स्वर दिन प्रतिदिन पनप रहे हैं । यह भारतीय समाज की सार्वभौमिक समस्या है, जिससे निजात मिलना लगभग मुश्किल है । इसके कारणों की समीक्षा करने से नवीन संस्कार फलित होते प्रतीत होते हैं । ये संस्कार संस्कृति के सोलह संस्कारों से इतर एक अलग एवं अनूठे प्रयोग की माँग करते हैं ।
इस प्रकार इस परिवर्धित संस्कार की रीढ़ में परिवार का आधुनिक ढाँचा ही विद्यमान है । यह ढाँचा कमोबेश "अहं" के साँचे में निर्मित होकर 'स्व' की पुकार से मजबूत होने की माँग करता है । क्योंकि अहं केवल रावण की जागीर नहीं रहा । इसका पूर्णतः भारतीयकरण हो चुका है । इसकी प्रतीति एवं व्याप्ति सर्वत्र है ।
उदाहरणस्वरूप हम किसी भी गाँव के कोने में बैठकर या घर-घर के आँगन से चलचित्र की भाँति फीचर निर्मित कर सकते है । इस संदर्भ में कोई जल्दी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकता कि हमारे घर के आँगन में तुलसी भी हरी भरी रहती है और गुलाब के पौधे भी खिलते रहते है जबकि ये खिलना एक कला है, जिसे कृत्रिम प्रकाश की जरूरत नहीं होती ।
हाल के दिनों में स्थिति अधिक गंभीर हो गयी है । क्योंकि हम विकासशील देश में निवास करते हैं । यहाँ आर्थिक संवृद्धि को बढ़ाने के लिए जूझ रहे हैं । हमारे यहाँ महँगाई-गरीबी-बेरोजगारी ऐसे बढ़ रही है, जैसे द्रोपदी की साड़ी । कहने के लिए सरकार अनेक योजनाएँ चला रही है । लेकिन इसका प्रत्यक्ष लाभ वाजिब हकदार को नहीं मिलता । जो अमीर वह वह अधिक अमीर बनकर सांसद-नेता बनने की कतार में खड़ा हो जाता है और  गरीब त्रस्त नयन से अश्रु जल धारा प्रवाहित करने को विवश होता है ।
अमीरी-गरीबी की इस खाई में गिरकर परिवार नामक आधुनिक यांत्रिक ढाँचा क्षतिग्रस्त होकर विलाप करने लगता है । सास-पतोहू-ननद के त्रिकोण में फँसा सामान्य व्यक्ति भी असामान्य होकर काँके की राह ढूढ़ने को मजबूर होता है अथवा ईहलीला समाप्त करने की ओर विवश होता है ।
पारिवारिक विचलन की भयावहता अमीरी-अमीरी में भी दृष्टव्य है । पति-पत्नी का रोजगार कब एवं किस परिस्थिति में काल से ग्रसित होता है । इसकी कल्पना से ही हृदय में कम्पन होने लगता है । कुछ वर्ष पहले हमारे करीबी के परिवार में घटी घटना उपर्युक्त कथन को सिद्ध करने में सहायक है । हमारा समाज क्रूर है । कुछ परिवार क्रूर है । नरम तो बस हमारा मन है, जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं ।
इस प्रकार निर्मित पारिवारिक मानदण्ड हमें सामाजिक विनाश की एक नयी इबारत लिखने को मजबूर करता है । यही कारण है कि धीरे धीरे लोग एकल से संयुक्त की यात्रा करने की आकांक्षा रखते हैं परन्तु आधुनिकता की चादर ओढ़कर तथा नया मुखौटा पहनकर पुनः स्व की गुफा में चक्कर लगाते रहते हैं । उन्हें भरोसा है कि आज नहीं कल, कल नहीं परसों या भले लग जाय बरसों..शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करने को मिलेगा ही ।
आधुनिक पारिवारिक विचलन धार्मिक रूप में मजबूत कड़ी बनकर उपस्थित होता है । यह परिवार मंदिर-मस्जिद की उन्मुख होते दिखाई देते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यही परिवार का धर्म हो या यही उसका यथार्थ हो अपितु यहाँ स्वार्थ की बदबू आती है । यहाँ दुःख तो सामान्य है ग्लानि-चिंता विशेष पद की अधिकारी बनकर नवनिर्माण करती है ।
बहरहाल अंत में यही कहने का साहस जुटा पाता हूँ कि-परिवार एक संस्था नहीं अपितु विचार है । ये विचार आपसी मेलजोल से बनते है और व्यक्ति को संस्कृत करके हमारी संस्कृति को नयी संजीवनी प्रदान करते हैं । सामाजिक संस्कार पारिवारिक संस्कार का पूरक है । जब परिवार बढ़ता है तो समाज बढ़ता है और दोनों मिलकर भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण बनाते हैं ।

           डॉ. मनजीत सिंह

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

फिर वही पुस्तकें : जो आकर्षित कर सकीं ।

फिर वही पुस्तकें : जो आकर्षित कर सकीं ।

 जूठन-त्रासदचित्रण का स्याह यथार्थ


जब व्यक्ति अध्ययन और चिंतन को एक साथ जोड़ने का प्रयास करता है तो उसके सामने दो ही स्थितियाँ उजागर होती है-यथार्थ और कल्पना । पहली स्थिति उसे सृजनात्मक आधारभूमि प्रदान करती है तो दूसरी के माध्यम से वह उस सृजन का विस्तार करता है ।
इस कसौटी पर जूठन एक ऐसी आत्मकथात्मक कृति है, जिसमें कल्पना की गुंजाईश कम है लेकिन लेखकीय विस्तार में इसका आश्रय लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अवश्य लिया गया है । परन्तु इस बात का आद्यन्त ध्यान देते हैं कि कल्पना कहीं चमत्कार की सीमा न पार कर ले, जहाँ तक पाठक की पहुँच सम्भव न हो ।
बहरहाल इस कृति का पहला भाग तो उसी समय पढ़ा था जब मैं "उचक्का"(लक्ष्मण गायकवाड़-मेरा आलेख-दलित विमर्श के संदर्भ में उचक्का का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन) के माध्यम से दलित विमर्श का गहन पड़ताल करने में कुछेक आलेख भी लिखे थे । परन्तु उस समय तक अर्थात पहले खण्ड में  लेखक ने पाठकों को पहले ही आगाह किया था कि-
"उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा-कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा ।" जबकि दूसरे में "सचमुच "जूठन" लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था । जूठन के एक एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ताजा किया था, जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता रहा था ।"
आशय यह है कि-इस आत्मकथात्मक कृति की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि-इसके लिए न ही लेखक को किसी विज्ञापन एजेंसी का सहारा लेना पड़ा और न ही किसी सोशल मीडिया मंच के दोयम दर्जे के खाते का सहारा लिया गया, जिस हथकंडे के आधार पर आज कमोबेश सभी प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध नया-पुराना लेखक स्थापित परिपाटी को बनाये रखने का प्रयास करता है ।
जूठन के दूसरे भाग की भूमिका में डॉ. विमल थोराट ने बेहद सधे लहजे में सम्पूर्ण कृति की पृष्ठभूमि तैयार की है । इसी के अंत से उधार लेने का साहस जुटाता हूँ तो--जाति के अभिशाप से जर्जर हुई भारतीय सामाजिक संरचना को समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय जैसे मूल्यों में विश्वास के द्वारा नये समतामूलक समाज का उज्ज्वल सपना लेखक वाल्मीकि जी भविष्य के लिए देख रहे थे ।....'जूठन' का दूसरा खण्ड बीमारी के दौरान पूरा करके जानलेवा पीड़ा से गुजरकर उनके उन अनुभवों को हम सभी के लिए एक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किया है ।(भूमिका से) 18 नवम्बर 2012 से  लेकर दिल्ली में अस्पताल की पीड़ा को सहज आत्मसात करते हुए अपनों के बीच स्वयं को पाकर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए लेखक ने इस विधा को एक दर्जा ऊपर उठा दिया है ।
क्रमशः

https://www.facebook.com/drmanjit.singh1

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

समकालीन आलोचना : दशा एवं दिशा

समकालीन आलोचना : दशा एवं दिशा 

समकालीन आलोचना कमोबेश न ही गुण-दोष की परम्परा को पोषित करने में पूर्णतः समर्थ है और न ही कवि-लेखक की अन्तःवृत्तियों को उजागर करके पाठक को स्वस्थ साहित्य की झलक का दिग्दर्शन कराती है अपितु वह स्वार्थवश या मजबूरीवश गुरू-शिष्य के बहाने एक नयी जमात खड़ी करती है | शुक्ल जी ने भी आज से दशकों पहले यह चिंता की थी  और  वह चिंता आज के सन्दर्भ में वाजिब भी है  | बकौल शुक्ल जी-"किसी कवि की आलोचना कोई इसीलिए पढने बैठता है कि उस कवि  के लक्ष्य को, उसके भाव को ठीक-ठीक हृदयंगम करने में सहारा मिले, इसलिए नहीं कि आलोचना की भावभंगी और सजीले पदविन्यास द्वारा अपना मनोरंजन करे |" आज जब हम किसी आलोचनात्मक पुस्तकों को पढ़ते हैं तो सबसे पहले हमारी स्मृतियाँ उन सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों से टकराते हुए साहित्य की नवीन विचारधाराओं को आत्मसात करने के लिए मजबूर करती है लेकिन हम उसे कंठ के नीचे नहीं उतार पाते, हृदय में उतारने की बात तो दूर |
साहित्य सुख-दुःख की नियति का माध्यम है लेकिन वह सुखात्मक या दुखात्मक नजरिया अपनाने के लिए अपनाया जाने वाल हथियार नाकाफी है | कवि-लेखक बनना बाएँ हाथों का खेल है | प्रश्न उठना स्वाभाविक है की-आखिर किसी भी अनजान क्षितिज के सहारे जीवनयापन करने वाले विचारशून्य व्यक्तियों को कवि कौन घोषित करता है ?

बुधवार, 29 जनवरी 2014

सरकारी पत्रिका और समकालीन साहित्य का सच

सरकारी  पत्रिका और समकालीन साहित्य का सच 


आजकल का फरवरी 2014, अंक पढ़ना साहित्य को सरकारी पहनावे में देखने के बराबर है | इसे पढ़ने के बाद यह कहने में तनिक भी हिचक नहीं हो रही है कि-साहित्य का सरकारी संसार भी सामाजिक प्रतिबद्धता को गहराई से पिरोने में कमोबेश सक्षम नहीं | कैलाश दहिया और फरहान परवीन का सम्पादकीय प्रयास तथ्यात्मक ज्यादा है और साहित्यिक कम...बहरहाल आवरण चित्र के लिए मानस रंजन जेना को साधुवाद | यदि इस अंक को साहित्यिक तराजू पर तौलते हैं तो पंकज बिष्ट का " राजेन्द्र जी के बहाने 'आजकल के दिन, विपुल ज्वाला प्रसाद की कहानी "सहारे की छड़ी", ज्ञान प्रकाश विवेक का "गजल में भाषा का प्रश्न", चंद्रशेखर नायर का साक्षात्कार और हिन्दी-मराठी कविता का तुलनात्मक अध्ययन पर केंद्रित "परख" तथा श्रद्धांजलि स्वरूप महासुन्दरी देवी पर लिखे गए संस्मरणों, आलेखों, कविता और कहानी तथा सुधीर निगम के व्यंग्य को आत्मसात करने में गुरेज नहीं |
साहित्यिक  पत्र-पत्रिकाओं में आलेख औपचारिक मानदंडों पर लिखकर नवीनता को समेटने का प्रयास करने लगती है ,तो दुःख होता है क्योंकि आलेख-शोध पत्र साहित्य का प्राण होता है, जिस पर भावी पीढ़ी खोजपरक अनुसंधान को अमली जामा पहनाती है परन्तु अपने पथ से इतर यह ण केवल नौकरी बचाने और अंक बटोरने का माध्यम बन चुका है अपितु यह पत्रिका का आर्थिक स्रोत बन चुका है | आखिर क्या कारण है कि-आधुनिक युग में बड़े लेखक अपना आलेख देने में टालमटोल करते हैं जबकि छोटे और चलताऊ लेखक अपनी व्यक्तिगत पुस्तकालय को भारी बनाकर उच्च शिक्षा को मजबूत करने की हिमायत करते हैं ? इसका सीधा-सरल उत्तर आजकल के अंक में "निर्मल वर्मा की कहानियों में आधुनिकता" विषय पर आशा शर्मा जी का लिखा लेख है | इस लेख की शुरूआत में लेखिका ने आधुनिकता की अवधारणा को निर्मल वर्मा के निर्मल व्यक्तित्व से जोड़कर कहती हैं कि-निर्मल वर्मा उन कहानीकारों में से हैं, जिनके लिए मानव संबंधों का उद्घाटन करना, मानवीय संवेदनशीलता का चित्रण करना एवं आज के युगबोध एवं भाव बोध का अंकन करना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना तथाकथित आधुनिकता के तत्वों की रक्षा करना, अनास्था एवं निष्क्रियता का स्वर उद्घोषित करना, पलायनवाद का प्रचार करना और प्रतिक्रियादी तत्वों का आश्रय देना है | इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने नामवर सिंह का हवाला देकर अपनी स्थापना कर देती हैं | परन्तु ज्यो-ज्यों आलेख गति पकड़ता है..त्यों-त्यों इसकी क्षमता कमजोर होकर हमें यह कहने को मजबूर करने लगती है कि-वस्तुतः आशा शर्मा जी ने निर्मल वर्मा की कहानियों(यथा लवर्स, अमलिया,एक शुरुआत आदि) के मुख्य उद्धरण को छांटकर एक कोलाज की तरह प्रस्तुत करते हुए उन्होंने पुरानी परम्पराओं का ही निर्वाह किया है | 
अतः साहित्य की समकालीन सोच को कुरेदकर पाठकों के समक्ष रखकर नवीनता का आग्रह करने वाली पत्रिकाओं को पढ़ने के बाद दुखमिश्रित खुशी का होना लाजमी है |
क्रमशः

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

गाँधी, बा, बेन और वो

गाँधी, बा, बेन और वो

(मीरा और महात्मा के परिप्रेक्ष्य में )


सुधीर कक्कड़ की पुस्तक "मीरा और महात्मा" में गाँधी को मेडलिन स्लेड(मीरा) के बहाने नए तरीके से जानने, समझने और अवसर प्राप्त होता है लेकिन कुछ सवाल हमारे दिमाग में गाँधी की नवीन व्याख्या करने में सहायक बनने के लिए आये हैं, जिसे आधार बनाकर हमें समीक्षा लिखने का प्रयास किया-
1. यह पुस्तक चतुष्कोणीय प्रेम के निमित्त मीरा के चरित्र को उजागर करती है..जिसमें रोमा-रोला(आध्यात्मिक), गाँधी, हिन्दी शिक्षक(स्वयं लेखक) और पृथ्वी सिंह को लेखक ने सहायक के रूप में वर्णित किया है |
2. 1925 se 1939 और १९३९ से  1942 की सच्ची कहानी मानते हुए लेखक ने शामिल किया है |
३. मीरा के पत्र, गाँधी के पत्र और पृथ्वी सिंह के पत्रों को नेहरू संग्रहालय में तथा इसे वास्विक घटनाओं पर आधारित माना है जबकि रोमा-रोला को लिखे मीरा के पत्र तथा मीरा की डायरियों को काल्पनिक माना है |
4. यदि लेखक की बातों पर विश्वास करें तो मीरा-गाँधी के संबंधों को एक नया रूप देने में कोई हिचक नहीं क्योंकि जब कभी गाँधी जी मीरा को पत्र लिखते हैं तो प्राम्भ में प्रिय और अंत में प्यार दर्शाते हैं जबकि अन्य पत्र में बापू के आशीर्वाद ही दिखायी देता है |
5. उपन्यास का धान पक्ष मीरा की समर्पण भावना ही कही जा सकती है साथ ही पृथ्वी सिंह के त्याग को भी नाकारा नहीं जा सकता |
६. जब तक मीरा सीगांवसेवाग्राम) नहीं गयी होती तब तक बा(कस्तूरबा गाँधी) का मीरा के प्रति व्यवहार पति, पत्नी और वो की परिभाषा की सार्थकता ही सिद्ध करता है | लेखक ने बा की पीड़ा को भी व्यक्त किया है-बा ने महसूस किया कि जब भी वे मीरा के साथ होते थे उनमें एक स्फूर्ति भर जाती, जो बा को उनकी उपस्थिति से बहिष्कृत कर देती, बा के लिए उनके दिमाग को बंद कर देती, भले ही उनका हाथ उनके सिर पर घी मॉल रहा हो | और जब वह बीमार थी तो न्यूनतम सहानुभूति नवीन से इस रूप में प्रकट करती है-उसे बापू के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है | उनकी अच्छी देखभाल हो रही है |(page106)
7. उपन्यास में आये कुछेक अश्लील प्रसंग मीरा की भक्ति के शारीरिक पक्ष का पोषण करते हैं जबकि मानसिक पक्ष बिएना के बेडन में जंगल में स्थित कुटिया में नवीन से मिलने के बाद कहती है कि-नवीन, मैं कितनी भाग्यशाली हूँ कि ईश्वर की पुकार साफ-साफ सुन पायी | एक बार नहीं, दो बार ! वोदीवें के संगीत और बापू के व्यक्तित्व में | अधिकतर लोग उस आवाज को नहीं सुन पाते |.....ईश्वर से साक्षात् साक्षात्कार तो मीरा को एक दर्जा ऊंचा स्थान प्रदान करता है लेकिन इस समर्पण में वासनात्मक मोह वस्तुतः गाँधी की नयी व्याख्या करने को मजबूर करता है |
डॉ. मनजीत सिंह
१८/१०/१३

रविवार, 25 अगस्त 2013

लेखनी की बानगी : कल, आज और कल

लेखनी की बानगी : कल, आज और कल


लेखनी की बानगी : कल, आज और कल


समय परिवर्तनशील होता है कहने की अपेक्षा बीतता है कहना काव्यात्मक लिहाज है  लेकिन इस परिवर्तन की ओर तिरछी नजर डालने पर जो चित्र उभरकर सामने आता है वह भयावह भी होता है तथा परंपरा के साथ आँख-मिचौली भी क्गेलता है | इस सन्दर्भ में बचपन के बियाये पलों का स्मरण लाजमी है | कैसा था वह बचपन ! कैसी थी वह बानगी !...ऐसे अनेक प्रश्नों से जुड़ते ही लेखनी और अक्षर ब्रह्म के अंतर्संबंधों में आये उतार चढाव की ओर अनायास ध्यान खींचा चला जाता है | जब लकड़ी की पटरी से बने घाट पर (जिसे बैटरी की कालिख या हरे पत्ते लगाकर सीसी से गेल्ह कर चमकाकर सूता  मारकर हाशिया बनाते हुए सीधी लकीर खींचते थे तो एक ही साथ लेखनी और गणित की जमीन तैयार होती थी) चाक (भाठ), दवात और कंडे (किरिच) की त्रिवेणी में संगम पर स्नान कराते थे तो अमरत्व से परिपूर्ण अक्षर दूर से ही ब्रह्म के अस्तित्व और स्वरूप को स्पष्ट करता हुआ पूर्णता को प्राप्त होता था | अक्षर-ब्रह्म के इस चरित्र से पड़ोसी ध्वनियाँ भी विचलित हुए बिना नहीं राह सकती थीं |

समय बीतता गया, समाज बदलता गया....कहीं क्रान्ति तो कहीं शान्ति....ऐसे संक्रमणकालीन युग में लेखनी कैसे बच पाती क्यों अब पटरी ने स्लेट को और चाक ने पेन्सिल को जन्म दिया | जन्म से ही इनका प्रभाव भी दिखने लगा | बेचारे अक्षर, जो लगभग अमरत्व को प्राप्त हो चुके थे अपने होने या न होने के बीच में पहचान बनाने के निमित्त संघर्ष करता हुआ प्रतीत होने लगा | इसी कारण उसने परिवर्तन को झुककर प्रणाम करने में ही अपनी सुरक्षात्मक आधार माना | फलतः शब्दों की हिम्मत भी पश्त होने लगी .....लेखनी की इस दुर्गति को देखकर पुरस्कर्त्ताओं ने इस प्रभाव को कम करने के ली कुछ नया ईजाद करने की कोशिश भी की परन्तु इस खोज के अस्तित्व में आने के बाद (तथाकथित राम चेतना ) लगभग तीन दशक बीत गए और चौथे दशक ने दस्तक भी डे दी | विद्वानों ने चतुर्दिक विचारों की बौछार भी किया और कहा-कि 21वीं सदी है...वैश्विक सदी है......भई! बचकर नए में नए की टकराहट से उत्पन्न ऊर्जा  से पूर्वर्ती धारा, मध्यवर्ती धारा और अधुनातन धारा में वियोग की स्थिति बनना अवश्यंभावी हो गया | इस वियोग में अक्षर श्रृंगार की महिमा में क्रांतिकारी परिअर्त्न होने लगा क्योंकि  अब जन्म लेते ही शिशु-बालक के हाथ में पटरी-स्लेट की जगह रंगीन चित्रित कापी, चाक-पेन्सिल की जगह डाट पेन और फाउंटेनपेन  थामकर नीति-निर्धारकों ने लेखनी की ममता से परिपूर्ण वात्सल्य रस को सोखने को मजबूर किया | बिना माँ के यह लेखनी असहाय होकर लावारिस की तरह सम्पूर्ण ब्राह्मांड में विचरण करने लगी | जिस प्रकार एक माँ गर्भ में नन्हें शिशु के पूर्व रूप का पोषण करती हैं और जन्म देकर आजीवन पोषण करती है परन्तु शिशु से बिछड़ते ही जल से निकली मछली की भाँती वह तडपने लगती है ठीक उसी प्रकार की स्थिति लेखनी और अक्षर की हो गयी | यहाँ तदपन दोनों ओर होता रहा लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था न ही कोई परशुराम ही राम धनुष की टंकार सुन सके और न ही राम ही अवतारी बनकर अपने आदर्श को बचा पाए | अक्षर के साथ ही जन्मदात्री ध्वनी, वर्ण भी लहराते रहे और शुद्ध-अशुद्ध के बीच त्रिशंकु की तरह बीच में अटककर विलाप करते रहे...अब तो संचार क्रान्ति ने डिजिटल लेखनी को जन्म देकर परंपरागत लेखनी को पूरी तरह से विलुप्त करने का बीड़ा भी उठा लियें हैं..देखें कब तक ये अपना अस्तित्व बरकरार रखती हैं |

अंततः यह कहने में मुझे तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है कि-मनुष्य भले ही अपने आपको वैज्ञानिक लहजे में ढाल लें, आधुनिक चोला पहन कर उत्तर आधुनिक नगरी में घूमे-फिरे, वैश्विक भोजन खाकर संतुलित बनने का ख़्वाब पाले परन्तु ये कपोलकल्पित कल्पना की तरह आँख खुलते ही समाप्त हो जाएँगे और हम उसी लेखनी के सहारे पुनः अपनी पहचान बनाने में सक्षम होंगे |
डॉ. मनजीत सिंह
२५/०८/13

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

आपसी सौहार्द : समाज की जरूरत

आपसी सौहार्द : समाज की जरूरत

(सद्भावना दिवस-२० अगस्त )


आह ! प्रेम की नगरी में, फूट गयी सारी गगरी
लाल रंग के चादर में, लिपटी दुनिया सगरी |

काश प्रेम की नगरी भारत की गगरी कभी नहीं फूटती और उस गगरी में कोई गूलर का फूल रख देता ताकि प्रेम राज कभी खत्म नहीं होता , क्योंकि जब सुन्दर भारत का सपना इतना सुन्दर है, तो यथार्थ की कल्पना भर से जी भर आता है | ऐसी ही कल्पना के निमित्त सद्भावना दिवस पर राजीव गाँधी को नमन | मैं तो यही मानता हूँ कि-धरती पर जन्म लेने वाला कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं होता क्योंकि यदि वह पूर्ण होगा तो ब्रम्ह होगा, जिसकी व्याप्ति अवतार में नहीं हो सकती | इस सन्दर्भ में राजीव गाँधी द्वारा प्रदत्त संचार क्रान्ति और ग्रामीण सुधार का स्मरण लाजमी है | नई शिक्षा नीति 1986 भी एक क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है | उन्ही के शब्दों में कहें तो अंग्रेजी में कहना मजबूरी होगा-India is an old country, but a young nation and like the young everywhere, We are impatient, I am young and I to have dream. I dream of an India, strong, Independent self relliant and in the fore front of the fronts rank of the nation of the world in the service of mankind." कहने का तात्पर्य यही था कि भारत नौजवानों राष्ट्र है..जिसका सपना भी उन्होंने ही दिखाया था |

डॉ. मनजीत सिंह
20/08/2013

सोमवार, 13 मई 2013

मलाला की डायरी

 

मलाला की डायरी

कल मलाला की डायरी(मलाला युसुफजई) का कुछ अंश को पढकर मन में तमाम सवाल उमड़ने लगे | सबसे पहला सवाल तो यही है कि-एन फ्रैंक और मलाला बनाम आलो आंधारि की तुलना किस स्तर तक किया जा सकता है ? नसरूद्दीन ने मलाला के छद्म नाम 'गुल मकई' के माध्यम से ( सनीचर, 3 जनवरी 2009 : मैं डर गई और रफ्तार बढ़ा दी से जुमेरात, 12 मार्च 2009 : जन्नत में हूरें अनीस का इंतजार कर रही हैं तक हिन्दी समय पर) स्वात घाटी में स्त्री पीड़ा को बड़े ही सहज भाव से अनुवाद का सुधरा रूप प्रस्तुत करते हैं |
यह डायरी एन फ्रैंक की डायरी से इस बात में विशेष है कि-यहाँ स्त्री विमर्श में प्रेम का कोई ज्यादा योगदान नहीं अपितु मलाला ने उस घाटी और तालीबानी हकीकत को दुनिया के सामने रखा है | जबकि आलों आंधारि में कश्मीर से कोलकाता गयी लड़की की कहानी है | दूसरे शब्दों में पश्चिमी-एशिया-भारत का एक ऐसा त्रिकोण निर्मित होता है, जिसका अंतिम उद्देश्य एक ही है-स्त्री मुक्ति | कहने का तात्पर्य यही है कि-मलाला स्वयं कहती है-मैं आज उठते ही बहुत ज्यादा खुश थी कि आज स्कूल जाऊँगी। स्कूल गई तो देखा कुछ लड़कियाँ यूनिफार्म और बाज घर के कपड़ों में आई हुई थीं। असेंबली में ज्यादातर लड़कियाँ एक-दूसरे से गले मिल रही थीं और बहुत ज्यादा खुश दिखाई दे रही थीं।(पीर, 30 फरवरी 2009 : स्कूल खुल गए) क्या इस कथन से हम मान लें कि-स्वात घाटी में अमन चैन आ रहा है याकि इस कथन भी तालिबानीकरण की बू आती है | जो भी हो यह डायरी एक ऐसा दस्तावेज है, जो एन फ्रेंक की डायरी से कई मायनों में भारी है |

साहित्य की गिरती साख

 साहित्य की गिरती साख

'पाखी' के मार्च अंक में प्रकाशित कमलेश जैन का लेख 'अपराध और यौन कुंठाओं का 'सारा आकाश' से राजेन्द्र यादव की मनोवृत्तियां उजागर होती हैं | बलौल जैन जी के कथन को अक्षरशः उद्घृत करने का साहस जुटाता हूँ तो एक अजीब सी सिहरन पैदा होती है | इसका कारण यही है कि-हिन्दी साहित्य में अपनी तथाकथित अमिट छाप छोड़ने वाले साहित्यकार का उद्देश्य क्या है ? वह कहती हैं कि-बचपन में संस्कृत की किताब में एक कहानी पढ़ी थी। शीर्षक याद नहीं लेकिन सारांश अब तक स्मृति में ताजा है। शिकार करने में अक्षम एक बूढ़ा बाघ शिकार को दबोचने के लिए एक नायाब नुस्खा अपनाता है। हाथों में सोने का कंगन लेकर और गड्ढा खोदकर उसे पत्तों से ढंक देता है। और वहीं बैठकर आने-जाने वाले लोगों को सोने के कंगन का लालच दिखा उन्हें अपने जाल में फंसाकर उनका शिकार करता है। 84 साल के वयोवृद्ध कथाकार-साहित्यकार राजेन्द्र यादव के लिए हिन्दी मासिक पत्रिका हंस वह सोने का कंगन है, जिसमें छपने का लालच दिखा वे नए लड़के-लड़कियों को अपने जाल में फंसाते हैं और फिर उनका शोषण करते हैं। इतना ही नहीं उनके व्यक्तित्व का पोस्टमार्टम करती हुई स्वस्थ व्यक्ति के विमार विचार को ‘बीमार व्यक्ति के बीमार विचार’ शीर्षक के एवज में लिखती हैं-मैंने पूरी किताब पढ़ी। बहुत कुछ छिपाने और झूठ लिखने के बावजूद जो कुछ कुंठा से भरे घड़े से छलक गया है, उसके मुताबिक राजेन्द्र यादव एक आपराधिक पृष्ठभूमि के यौन मनोरोगी हैं, जिनके जीवन की धुरी सिर्फ सेक्स और उससे जनित अपराध है। वे अपने घर में हुई हत्या, आत्महत्या में बराबर के भागीदार रहे हैं। आपराधिक न्याय का एक मशहूर सिद्धांत है- ‘दोज आर ओल्सो रेस्पॉन्सिबल हू वेट एंड वॉच’। यानी, अपराध होने में सहयोग करने वाले और अपराध के दौरान मौन सहयोग और स्वीकृति देने वाले लोग भी अपराध में बराबर के जिम्मेदार माने जाते हैं। इस तरह अपनी बहनों की हत्या और आत्महत्या में राजेन्द्र यादव भी बराबर के अपराधी हैं और उसी सजा के भागीदार हैं जो एक हत्यारे या आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले शख्स को मिलती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने में उनकी यह पुस्तक ही मददगार साबित होती है। राजेन्द्र यादव के मुताबिक उनकी चचेरी बहन रेवा अपने ही चचेरे भाई से गर्भवती हो गई थी और इसी वजह से उसे जहर दे दिया गया था। उसे राजेन्द्र यादव से शिकायत रही कि उन्होंने उसे नहीं बचाया। रूमानी अंदाज में अब वे खुद को उस हत्या का अपराधी मानते हैं। अपराधी तो उनका परिवार और वे हैं ही। वे गुनाह होने देने और गुनाह छिपाने के अपराधी हैं। आखिर क्या हुआ कि मामला पुलिस तक नहीं पहुंचा और सभी साफ-साफ बच गए। सभी जहर देकर हत्या करने और लाश को ठिकाने लगाने के अपराधी हैं। उनकी किताब ये भी बताती है कि उनकी बहन कुसुम ने भी जहर खाकर आत्महत्या कर ली थी। डॉक्टर पिता और पढ़े-लिखे सक्षम भाइयों के रहते विवाह न होने की वजह से उसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। राजेन्द्र यादव की ही स्वीकारोक्ति है, “चूंकि घर में ऐसा कोई नहीं था, जो बहनों की शादियों के लिए भागदौड़ करता, लड़के देखता या संबंध बनाने के लिए दुनिया भर की खाक छानता।” ये लोग खुद अपने अनगिनत संबंधों की तलाश में रेड लाइट इलाके से लेकर रानीखेत, अस्पताल और दुनिया-जहान का सफर करते हैं, पर बहनों और बेटियों के विवाह के लिए समय नहीं निकाल पाते। (पाखी ब्लॉग से आभार)
कमलेश जैन जी ने जिस मजबूती के साथ राजेंद्र यादव पर प्रहार किया है, यदि इसमें सच्चाई का अंश है तो साहित्य सहचर के लिए चिंताजनक है |

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साहित्य में आलोचना को टीका-टिप्पणी के माध्यम से उजागर करना श्रेयष्कर नहीं | वह चाहेँ वाजपेयी बनाम प्रेमचंद हों या विजय बहादुर सिंह बनाम भारत भारद्वाज की टिप्पणी हों | प्रेमचंद की बातें वाजपेयी जी पर भारी पड़ती थी, इसमें संदेह नहीं | लेकिन आधुनिक समय में गुरू-शिष्य परम्परा में गुरू को उच्च से उच्चतम स्थान पर काबिज कराने के हथकंडों को आलोचना की अगली कड़ी के रूप में आत्मसात नहीं किया जा सकता |
ग़ालिब छुटी शराब को पढ़ने के बाद एक बात तो धडल्ले से कही जा सकती है कि-रवीन्द्र कालिया ने अपनी यात्रा(पंजाब, दिल्ली, मुम्बई और इलाहबाद ) में आने वाले हर पड़ावों की गहनता से पड़ताल करते हैं | साथ ही ऐसा कम ही देख्नने को मिलता है कि कोई भी साहित्यकार अपने यथार्थपरक जीवन के अनछुए पहलुओं को उजागर करता है लेकिन कालिया जी ने इसमें शाराब को माध्यम बनाकर संस्मरण को जीवंत बना दिया है | बीच-बीच में आत्मकथा की सुगंध भी आती है | दूसरी बात ममता अग्रवाल(कालिया) को भी एक स्थल पर पाँच सितारा होटल में मधु जीवन के अहसास को हमारे समक्ष रखते हैं | परन्तु ममता जी की वजाय अपनी माँ को ज्यादा तरजीह देते हैं | इससे एक तरफ माँ के प्रति उनका प्रेम भाषित होता है तो दूसरी तरफ पत्नी प्रेम का भी भरपूर प्रमाण मिलता है
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शनिवार, 27 अप्रैल 2013

मध्यवर्गीय परिवार और हाईप्रोफाइल सभ्यता का यथार्थ चित्रण

मध्यवर्गीय परिवार और हाईप्रोफाइल सभ्यता का यथार्थ चित्रण

(विवश चेहरा के सन्दर्भ में )


साहित्य अमृत के अप्रैल २०१३ अंक में अमिता दुबे की कहानी "विवश चेहरा" मध्यवर्ग और हाई प्रोफाइल सभ्यता को फेंटकर लिखी ऐसी कहानी है, जिसे पढकर अनायास जैनेन्द्र जी के सुनीता उपन्यास वाली बात याद आती है-मनुष्य की सारी समस्याएं शादी के बाद प्रारम्भ होती है | कहानी छोटी है लेकिन यह 'गागर में सागर' की भांति कहानी विधा को एक ऐसा धरातल दिलाती है, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं | कहानी की मुख्य पात्र अनुराधा ,जो मध्य्वार्गीय परिवार की लड़की रहती है| इनकी शादी उच्च वर्गीय असित जी से जुगाड़ तंत्र से ही होती है लेकिन उसे कहाँ पता कि-उसके सास-ससुर की स्थिति दयनीय है इसी कारण वह कहती है-उसे तत्क्षण अपने घरवालो पर क्रोध आया | केवल लड़का देखा, पैसा-रूपया देखा और शादी कर ली ' सास-सहर की हालत नहीं देखी|' लेकिन अब क्या हो सकता था ? उसने मौन का कवच ओढ़ लिया था | यही मौन आज के मध्यवर्गीय परिवार की लड़कियों को शोषण हेतु आमंत्रित भी करता है |
अमिता जी ने इस कहानी में तीन पीढ़ियों के अंतर्विरोध को सहजता से समाहित किया है -सास-ससुर, अनुराधा-असित और देवांश-माडर्न लड़की अदिति | अनुराधा अपने जीवन में हमेशा समझौता ही करती है | शादी के बाद परिवार से, देवर और अभेद्य दीवार पार करने में पीछे हटना और बूढ़ी होती भावनाओं के साथ बहू की समीप लाने की कोशिश | हार जगह इसे ही समझौता करना पड़ा | इस कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब देवांश विदेश की पढाई पूरी करके घर आता है और माँ के पैरों को छूने के बाद दुबले पतली, किन्तु माडर्न लड़की को भी लगभग घसीट ही लिया पैर छूने को | स्थिति तब गंभीर होती है जब देवांश की बहू नौकरानी से कहती हैं-राधा, तुम फूलदान उधर रखो | ओफ्फो! क्या कमरा बना रखा है..........यह सारा फर्नीचर कहीं कबाड में डाल दो | बेचारी माँ को कहाँ पता था कि जो लड़का बचपन में उसका लाडला था वह आज इस दुबली-पतली लड़की की गुलामी करेगा | कहाँ पुत्र स्नेह को पाने की लालसा उछल-उछल कर साँसे भर रही थी | इसी कारण उसने अपनी हैसियत के अनुरूप कमरे की सजावट भी की थी | कहानी का अंत अनुराधा के माध्यम से उन तमाम महिलाओं के अंतस से निर्मित होता जान पड़ता है, जिसमे केवल और केवल परम्पराएँ ही शेष बचती है | क्योंकि 'अचानक....अनु को अपने चेहरे के जगह अपनी सास का जर्जर होता विवश चेहरा दिखाई दिया |'
कहानी की पढते समय कभी-कभी भ्रम होने लगता है कि-यह पटकथा तो नहीं | लेकिन संवाद की अड़चन जरूर वहाँ तक नहीं पहुचने देती | बहरहाल सिनेमाई प्रभाव इस कहानी की कमी कही जा सकती है | दूसरी बात भाषा-शैली के स्तर पर भी इसमें कुछेक कमियां देखी जा सकती है | सत्य प्रकाश मिश्र सर कहा करते थे कि-कहानी की सार्थकता भाषा शैली और संवाद्कौशल से भी निर्धारित की जाती है | इसमें अनुराधा पढ़ी-लिखी लड़की है लेकिन मध्यवर्गीय परिवार का प्रतिनिधित्व कर रही है अतः उसकी प्रारम्भिक भाषा और अंत की भाषा में एकरसता है, इस अर्थ में कहानी हल्की महसूस होती है | इसी प्रकार माडर्न अदिति की शैली को थोडा और तराशकर प्रस्तुत करने से कहानी २१वी, सदी के चित्र को समग्रतः प्रस्तुत किया जा सकता था |लेकिन मनोरंजन की दृष्टि से यह कहानी सटीक है | साथ ही स्थायी प्रभाव भी छोड़ने में सफल कहानी कही जा सकती है |

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

कोई मजबूर न होता

कोई मजबूर न होता


काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
क्षुधा को शांत करने से दूर न होता |
परिंदों के पर को लग जाती ऐसी पंख
यमराज भी स्वर्ग में मिलते भरे अंक |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
निराले सपने देखने से वह दूर न होता
धरती की चादर पड़ती न कभी छोटी
मजमून होकर होती नहीं खोटी |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
खेत में किसान बीज से दूर न होता
उसकी फसल काटकर दूजा न जाता
आराम से सोता न कभी पछताता |

काश ऐसा होता कोई मजबूर न होता
शहर भी उस गोंव से कभी दूर न होता
बिल्डरों के नखरे उसे रुलाते न कभी
हर घर से खुशियाँ जाती न कभी |

२५/०४/१३

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

अदम गोंडवीका प्रहार

अदम  गोंडवीका प्रहार


अदम गोंडवी की चन्द पंक्तियाँ कितनी सटीक है, जिसके एक-एक शब्द उस व्यस्था पर हथौड़े से प्रहार करती हैं, जहाँ सुख-चैन एक विशेष वर्ग तक सीमित है | कहने को उदारीकरण १९९१ से आया लेकिन यह मूल से अलग ही राग अलापता रहा-

ताला लगा के आप हमारी जबान को |
कैदी न रख सकेंगे जेहन की उड़ान को

बंगले बनेंगे पालतू कुत्ते के वास्ते,
हम आप तरसते ही रहेंगे मकान को |

जब तक रहेंगे सेठों के चेले जमात में,
तब तक खुशी नसीब न होगी किसान को |

घर में गिनेंगे आप तो पंजे से कम नहीं,
दफ्तर में टांगते हैं 'तिकिने निशान को |(धरती की सतह पर)

एक जिंदगी काफी नहीं

एक जिंदगी काफी नहीं

 
कुलदीप नैयर जी ने Beyond the lines : an autobiography (एक जिंदगी काफी नहीं-आजादी से आज तक के भारत की अन्दरूनी कहानी ) में भारतीय लोकतंत्र का कच्चे चिठ्ठे को उजागर किया है | इसके साथ ही उन्होंने अपने जीवन के अनछुए पहलुओं को भी सार्वजनिक किया है | एक स्थल पर (अध्याय ४, गिविंद बल्लभ पन्त : चुनौतियों का दौर , पृष्ठ-१०५ ) उन्होंने अमरीकियों की खुले दिन से प्रशंशा की है-उनका कहना हैं कि-"अमरीकी बड़े खुले दिल के लोग भी हैं | नार्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी में दस महीनों के अपने प्रवास के दौरान मुझे काफी अनुभव हुआ | एक अमरीकी दंपत्ति ने मेरी जिम्मेदारी लगभग अपने ऊपर ले ली थी | हर शनिवार को पति या पत्नी अपनी कार में मुझे कैम्पस से लेने आ जाते, मुझे खाना खिलाते और फिर वापस छोड़ जाते | रात के शानदार भोजन के बारे में सोचकर मैं कई बार दिन में खाना ही नहीं खाता | इससे मेरे पैसे बच जाते | मैं बड़ी मुश्किल से अपनी पढाई का खर्च उठा पा रहा था | मैं कई तरह के पार्ट टाईम काम कर रहा था -जैसे कि घरों के बगीचों की घास काटना, होटलों में वेत्गिरी करना, सर्दियों में शिकागों की ऊंची बिल्डिंगों की खिड़कियों के शीशे साफ़ करना वगैरह | मैं घर से पैसे नहीं मंगवा सकता था, क्योंकि मेरे और मेरी पत्नी के खाते में सिर्फ १२०० रूपये जमा ठे और मेरे बूढ़े माता-पिता बड़ी मुश्किल से गुजारा कर रहे थे | यह कहना बिलकुल सही होगा कि यूनिवर्सिटी की पढाई जारी रखने के लिए मुझे बहुत से पापड़ बेलने पड़ते थे | कभी-कभी मुझे एक पाँव और पानी पर गुजारा करना पड़ता था | फिर भी इसमें एक अलग तरह का मजा था | पूरे कैम्पस में कोई भी मुझसे टेक बर्तन नहीं धो सकता था |" नैयर जी के जीवन में आये उतार-चढ़ाव से मुझे अपने जीवन की भी याद आती है | एक अंतर है-हम लोगों के लिए इलाहाबाद सी अमरीका सरीखे था | उस समय की एक-एक बाते एक फीम की तरह सवतः चलने लगती है |
दूसरी तरफ नैयर जी ने अमरीकी नीतियों और उनके मनसूबे को नार्मन कजिन्स के माध्यम से हमारे सामने रखा | पहली बात तो यही है कि-अमरीका ने भारत के बटवारे में ब्रिटेन की मदद की थी | दूसरी महत्वपूर्ण बात यही है कि-नैयर जी ने जब शिकागों में हुई एक प्रेस कांफ्रेस में एक उद्योगपति से पूछते है कि-अगर हथियारों की मांग खत्म हो गयी तो अमरीकी अर्थव्यस्था का क्या होगा | इस उनका जवाब था, " हम अपनी इंडस्ट्री को जिन्दा रखने के लिए लड़ाईयों तलाशते रहेंगे |" उनकी यह बात सही साबित हुई | अमरीका आज भी अपनी इंडस्ट्री को जीवित रखने का भरसक प्रयास करता जा रहा है | वह चाहेँ ईराक हो या अफगानीस्तान या कोई और | कुल मिलाकर यह पुस्तक वास्तव में नैयर की साहित्यिक-ऐतिहासिक खोज में मील पत्थर है |

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

हर्ष और उल्लास का त्यौहार सरहुल

हर्ष और उल्लास का त्यौहार सरहुल 

                  भारत के  आदिवासी जनसमुदाय में मनाया जाने वाला यह त्योहार कई मायनों में विशेष है | सबसे बड़ी बात तो यही है कि-आज जिस समस्या से विश्व जूझ रहा है (ग्लोबल वार्मिंग ), उससे मुक्ति इस त्योहार के माध्यम से  मिल सकती है |  आज से ही विशेषतः झारखंड के छोटा नाग्पुए में निवास करने वाली जनजातियों में हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाएगा | इसके साथ ही छतीसगढ़ के सरगुजा सहित अनेक अंचलों में एक विशेष नृत्य के रूप में मनाया जाता है | ग्लोबल गाँव के देवता में रणेन्द्र जी ने प्रारंभ में ही एक असुर मन्त्र के माध्यम से इसी ओर संकेत करते प्रतीत होते हैं-

 मैं  हवा  बाँधता हूँ, पानी बाँधता हूँ,
धरती बाँधता हूँ
आकाश बाँधता हूँ
नौ जंगल
 दस दिशा बाँधता हूँ,
लाख पशु-परेवा,
सवा जड़ी बूटी  बांधता हूँ |
हवा-पानी कई साथ आकाश बाँधने की बात आते ही आदिवासियों की जड़, जंगल और जमीन की समस्या मुख्य बन जाती है | इस सन्दर्भ में सरहुल विशेष महत्त्व रखता है | यह आदिवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार है, और बसंत ऋतू में सखुआ फूल के फूलने के साथ ही आरम्भ हो जाता है। इस समय पेंड़-पौधों पर नई पत्तियाँ आ जाती हैं; और उनकी डाँलियाँ लाल, पीले, हरे और सफेद फूलों से सुसज्जित हो जाते हैं। सरहुल का त्यौहार प्रारम्भ हो चुका है, और विभिन्न जगहों में अलग-अलग तिथियों में गृष्मकाल तक मनाये जाने की परम्परा है, जब तक की सखुवे फूल का खिलना समाप्त नहीं हो जाता। सरहुल त्यौहार को "ख़ेंख़ेल बेंजा" भी कहा जाता है। इस अवसर पर पृथ्वी को कन्या और सूर्य को दुल्हे के रूप में देखा जाता है; और उनकी शादी पारम्पारिक तरीकों से की जाती है। यह त्यौहार नये जीवन को प्रदर्शित करता है। सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पड़ती है, जिसके प्रभाव से जमीन पर पड़ी बीजों में स्फूर्ति आ जाती है और अँकुरण होता है; पेड़-पौधों में नई पत्तियाँ व रंग-बिरंगे फूल नजर आने लगते हैं। पृथ्वी को एक युवा-कन्या के रूप में देखा जाता है, अतः उसके विवाह के पूर्व उसके फलों अथवा अनाजों को खाना अशुभ माना जाता है। इस अवसर पर गाँव के सरना(सखुआ वृक्ष-समूह) में निवास करने वाली बूढ़ी देवी अर्थात "चाला पच्चो" जिसे गाँव का रक्षक माना जाता है; की पूजा सखुए के फूल से की जाती है। नैगस या पाहन के द्वारा पूजा के माध्यम से गाँव की रक्षा और समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है। उसके पश्चात पाहन को सूर्य और पाहन की पत्नी को प़ृथ्वी मानकर उनकी शादी की जाती है।
                             इस त्यौहार को मनाने के पारंपरिक तरीके भी कम आकर्षक नहीं है | इस समय लाल पाड़ साड़ी, गालों पर रंग-बिरंगे अबीर गुलाल, बालों में सरई फूल सजाकर महिलाएं पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ खूब नृत्य भी करती हैं ।(उराव जनजाति ) क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान सभी सरहुल के आनंद में सराबोर हो जाते हैं बच्चे एवं नवयुवक भी सफेद गंजी, धोती माथे पर हरे, पीले और गुलाबी रंगों के फीते बांधे जमकर नृत्य करते हैं । इस समय का नजारा ऐसा होता है  मानों लोक संस्कृति स्वर्ग लोक में परियों की भांति भगवन इंद्र के दरबार में देशज रंग में रंगकर नृत्य कर रहीं हों  और स्वर्ग से पृथ्वी तक बनी स्वर्ण सड़कों पर स्वागत में खड़े आदिवासी जन समुदाय में सरहुल की खुशियां बांट रही हो। साथ इस अवसर पर  अधिकतर सरना समिति लोग  सरहुल गीतों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों तथा वेशभूषा के साथ नृत्यकरते हैं सबसे बड़ी बात तो यही है कि-एक तरफ हम देखते हैं कि लोक नृत्य को वालिवुडिया जामा पहनाकर लोग आनंद लेते हैं लेकिन सरहुल में खुद गाये-बजाये जाने से इसका महत्त्व और बढ़ जाता है | कभी-कभी वहीं कुछेक  समूह आधुनिक नागपुरी गीतों एवं बैण्ड बाजे की धुन पर नृत्य किया करते हैं ।  साथ ही इस समय निकाली जाने वाली शोभायात्रा में आकर्षक झांकियां मन मोह लेती हैं | प्रसंसगतः कथाक्रम(अक्टूबर-दिसंबर २०११, पृष्ठ-१८८) में प्रकाशित अलोका की कविता "सरहुल" का स्मरण प्रासंगिक है | यथा-

मांदर की थाप
हडिया 
झूमर और सरई फूल 
आया प्रकृति परब सरहुल 
सरई का सुगंध
जंगल-जंगल
बोने-बोने
और  खेत खलिहान 
सब मस्ती में मग्न 
उल्लास
भक्ति
और प्रेम 
आस्था के कई रंग 
प्रकृति के संग
शुद्ध हवा के झोखे 
रंग-बिरंगे फूल
आया प्रकृति परब सरहुल ||
इस प्रकार सरहुल का त्यौहार आदिवासियों में मनाया जाता है, जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि-इसे सम्पूर्ण विश्व में मनाया जाना चाहिए | संभवतः इसके माध्यम से वैश्विक शान्ति के साथ ही पर्यावरणीय शान्ति की आयाम स्वतः विकसित होकर अनेक समस्याओं से मानव सभ्यता को सुरक्षित रख सके | अंततः दुष्यंत कुमार का यह गजल महत्वपूर्ण बन जाता है-

एक कबूतर, चिठ्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा,
मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा |

बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे कांटे, तेज हवा,
हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंजर देख लिया |

चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गयी पांवों की,
सोचो कितना बोझ उठाकर मैं इन राहों से गुजरा  |
बहुत  संभव है जिस प्रकार कबूतर पहली-पहली बार चिठ्ठी लेकर उड़ता है और मौसम की मार से तुरंत गिर जाता है | इस मंजर को वह घर बैठे-बैठे ही देख भी लेते हैं | ठीक उसी प्रकार ग्लोबल वार्मिंग से आप्लावित मौसम से त्रस्त वैश्विक जनसमुदाय प्रथमतः गिर भी सकती है, लेकिन अंततः सफलता ही मिलेगी, जिसका श्रेय उन्हीं आदिवासियों को दिया जा सकता है, जो अपनी पहचान की अमित छाप अभी-भी सभ्यता पर छोडकर दिन-प्रतिदिन प्रकृति को बचाने में कोई कसार नहीं छोड़ते हैं |
डा.मनजीत सिंह 




१३ अप्रैल २०१३





 

 


शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

सृजन सामर्थ्य और भावी पीढ़ी : समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

सृजन सामर्थ्य और भावी पीढ़ी : समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ


 जब मैं उपन्यास या कहानी  को पढ़ता हूँ, तो तो मुझे तीन तरह से आनंद मिलते है | क्षणिक आनंद, चर्तुर्दिक आनंद एवं गौण आनंद | पहले में कहानी कला के सभी तत्व विद्यमान होते हैं, जिसे पढ़ते समय आत्मानुभूति होती है क्योंकि इसे पूरा पढ़ना एक आकर्षक होता है | ऐसी रचनाएँ बहुत कम देखने-पढ़ने को मिलती है, आज के दौर में तो इसका अकाल है | जब कभे ऐसी रचनाएँ हाथ लग जाती है तो चिंतनशील प्रवृत्तियाँ पुनः नयी ऊर्जा के साथ सक्रिय होकर नए विचारों को जन्म देने पर विवश होती है |
           चतुर्दिक आनंद की प्राप्ति कभी कभार उपन्यासों में मिल जाता है क्योंकि इसे पढते समय हम अपने चारों ओर अपना अस्तित्व खोजते हैं | परन्तु सबसे हैरानी वाली बात यह है कि-वालीवुड फिल्मों की भांति हमारे साहित्य में भी कमोबेश रोज ही उपन्यास निकलते हैं लेकिन चर्चा बहुत कम की होती है | इसका कारण तो शहर-गाँव के साहित्यकारों में बनी विभाजक रेखा पर खड़ा होकर ही खोजा जा सकता है | कुछेक अपवादों को केन्द्र में रखें तो परिधि पर युद्ध और शान्ति के नए हथियार इन्हीं के बीच से निर्मित होता है | आखिर क्या कारण है कि-आज दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगर हिन्दी साहित्य के केन्द्र में हैं जबकि छोटे-छोटे गाँव हासिये पर नजर आ रहे हैं | जुगाड़ बनाम प्रकाशन का शिकार भी ऐसे ही साहित्यकार हो रहे हैं | कहीं हमने पढ़ा थ कि-आधुनिक साहित्यकारों की फ़ौज का कप्तान राजधानी में रहता है और तथाकथित लिखे जाने और छपे जाने वाले साहित्य की स्याही का पेटेंट भी उन्हीं के नाम है | अतः यह जाहिर सी बात है कि जहाँ स्याही होगी वही मुद्रित माध्यम होगा एवं जहाँ मुद्रित माध्यम होगा वहीं आधुनिकता अहं का गुलाम बनकर शोषण के नए तरीके ईजाद करेगी |
          गौण आनंद की अनुभूति तब होती है जब कहानी या उपन्यास का पहला परिच्छेद ही बोझिल लगने लगे और दूसरे, तीसरे, चौथे तक आते-आते मानसिक नेटवर्क वायरस से ग्रसित होकर अवसादग्रस्त हो जाय | ऐसी परिस्थितियों में यदि पुस्तक का आर्थिक भार स्वयं उठाया गया हो तो ग्लानि भी होती है | सबसे बड़ी बात यही है कि-अक्सर किसी पुस्तक का बाजार भी अर्थशास्त्रीय मांग-पूर्ति के नियमों पर ही निर्मित होता है | अंतर इतना ही है कि-वहाँ के उत्पादों को विज्ञापनों के माध्यम सी ही उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जाता है जबकि यहाँ बौद्धिक विज्ञापन द्वारा अनुप्राणित आलोचना को मानदंड के रूप में अपनाया जाता है क्योंकि यहाँ विज्ञापन का आर्थिक तरीका कारगर नहीं होता | इस तरह नामी-गिरामी लेखकों के नाम को ही आधार बनाकर समीक्षा गढ़कर सामान्य पाठक को आकर्षित करने का प्रयास किया जाता है | बेचारा यह सामान्य पाठक आगे नाथ न पीछे पगहा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए इस मकडजाल में फंसकर जन, मन तथा धन को गवांकर अपना सा मुहँ लेकर रह जाता है | इस प्रकार साहित्य में कहानी या उपन्यास(नया) का चुनाव करना एक चुनौती से कम नहीं |
             अक्सर यह देखने में आता है कि-(पुराने को छोड़कर) किसी कहानी संग्रह में १५ या बीस कहानियाँ संकलित रहती हैं लेकिन ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि उसमें सभी स्तरीय या ज्ञानवर्द्धक हो अपितु संपादक मिर्च मशाला के तौर पर अश्लीलत्व दोष से नहीं बच पाता | ऐसे में पाठक को बौद्धिक टानिक की बजाय वासनात्मक अस्त्र की प्राप्ति ही होती है , जिसका दुष्परिणाम भावी पीढ़ी को ही भुगतना पड़ता है | आये दिन देश में लूट, हत्याएँ, बलात्कार और आत्महत्याएँ होती रहती हैं, जिसका वास्तविक आंकड़ा डरावना लगता है | इसके मूल में सर्वाधिक लोग केवल सामाजिकता के नए ढाँचे को दोष देकर पल्ला झाड देते हैं | कुछ सिनेमा को तो कुछ नशाखोरी को दोष देकर शांत हो जाते हैं | परन्तु मैं तो जोर देकर कहने का साहस करता हूँ तो हमें साहित्य का गिरता स्तर भी कम जिम्मेदार नहीं ठहरता है | अतः हमारी सबसे पहली और अंतिम प्राथमिकता यही होनी चाहिए-कि आधुकिनता-उत्तरआधुनिकता और भूमंडलीकरण से आप्लावित  विश्वग्राम को लोकग्राम की नजर से देखकर ही साहित्य की रचना किया जाय, वह उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो या नाटक| तभी साहित्य का सहचर सम्बन्ध निर्धारित होगा एवं अध्येताओं को इसका लाभ मिल पायेगा |
(यह मेरे स्वयं के विचार हैं, यदि इससे किसी को ठेस पहुँचती हो तो क्षमा सहित-डा.मंजीत सिंह) 

सोमवार, 7 जनवरी 2013

अत्याधुनिक विज्ञान पर हावी प्रकृति



अत्याधुनिक विज्ञान पर हावी प्रकृति

(आदिवासियों में प्रचलित प्राकृतिक चिकित्सा के संदर्भ में)

आधुनिक युग में लोग एक तरफ विज्ञान के आविष्कारों के भरोसे न केवल अपनी परंपराओं  को भूल रहें है अपितु प्रकृति आधारित रहस्यों से मुक्त होकर स्वतन्त्र होने की बात करते हैं |  शायद यही कारण हैं कि भारत सहित सम्पूर्ण विश्व में एक नयी बहस शुरू हो चुकी है, जिसे लोग वैश्विक या ग्लोबल का नारा दे रहें हैं| आज विश्व स्वास्थ्य संगठन सरीखे संस्था भी लोगों को चिकित्सा की नवीन पद्धतियों से रूबरू करने में कोई कसर नहीं छोड़ती| लेकिन विश्व में ऐसे कई स्थान हैं जहाँ न ही नवीनता का प्रचार हो पाता  है और न ही इससे वे प्रभावित ही होते हैं विशेषतः आदिवासी बाहुल्य इलाकों में | इसका सबसे बड़ा कारण तो यही है कि यही ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ आधुनिकता हावी नहीं हो पायी है क्योंकि यहाँ के लोगों में प्रकृति प्रेम और इसे ईश्वर मानने वाली अवधारणा अभी भी कायम है, जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग अंधविश्वास कहकर पल्ला झाड़ लेता है | कभी इसी के आधार पर उन्हें अन्त्यज, गिरिजन, अनार्य इत्यादि कहकर ताने मारे जाते हैं | इस सन्दर्भ में हमें यह तो जरूर याद रखना चाहिए कि-अरस्तू ने प्रकृति के माध्यम से पाश्चात्य दर्शन में ईश्वर के साथ अंतर्संबंधों की जो व्याख्या प्रस्तुत की है, उसका सबंध वस्तुतः उपर्युक्त कथन से करने पर हासिये के लोगों को मुख्या धारा में लाने में सहूलियत मिल सकती है |
२१वीं सदी को विज्ञान का युग माना जाता है, हम सोते-जागते, सोचते-विचारते, आते-जाते, खाते-पीते, घूमते-फिरते, विज्ञान का ही बखान करते हैं | कभी हम कहते हैं कि-अमुक रोग की दवा को डब्ल्यू. टी. ओ. में अमेरिका ने अपनी तानाशाही  दर्ज करते हुए पेटेंट करा लिया है, दूसरी ओर प्राकृतिक औषधियों को कोई तरजीह नहीं देते क्योंकि यह सस्ती लोकप्रियता से ओत-प्रोत है | जब एक आम आदमी इस सोच द्वारा शासित हो रहा है तो आदिवासियों की बाट ही अलग है | परन्तु छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के कोंडागांव में प्रचलित पत्थर गरम करके किये जाने वाले स्टीम बाथ की पद्धति विज्ञान पर भारी पड़ा रही है | एक प्रादेशिक  समाचार चैनल बंशल द्वारा किये गये प्रसारण के आधार पर हम कह सकते है कि यह पद्धति वास्तव में कारगर साबित हो रही है | यह एक मनगढ़ंत कहानी नहीं अपितु एक वास्तविक घटना है | कोंडागाँव की आदिवासियों में प्रचलित इस “स्टीम बाथ” से निमोनिया, टायफाइड और मलेरिया जैसे रोगों का इलाज किया जाता है | इसका उदाहरण मोती लाल कोठी(वहाँ के नागरिक) के माध्यम से भी लिया जाता है | यह बेचारे विगत दो सप्ताह से ज्वर से पीड़ित थे | महंगी अंग्रेजी दवा के सेवन का सामर्थ्य न होने के कारण एक दिन वहाँ गये और उसी पद्धति पर इलाज कराये और तुरंत असर दिखाई देने लगा | इस इलाज में सबसे पहले पत्थर के दो-तीन टुकड़े को इकठ्ठा करके चारों तरफ से आग में गरम किया जाता है| इसके बाद उस पत्थर को बीक में रखकर उसी के पास रोगी को बैठाया जाता है साथ ही उसे ठंडा पानी दिया जाता है | रोगी सहित पत्थर के चारो ओर सबसे पहले चटाई से ढाका जाता है उसके ऊपर चादर रखा जाता है ताकि बाहर और अंदर के तापमान मिश्रित न हो सके | इसके उपरान्त रोगी उस पत्थर पर ठंडा पानी अपनी आवश्वकतानुसार डालते जाता है, जिससे भाप निकलकर उसके शरीर को तरबतर कर देती है | यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक वह पसीने से पूरी तरह भीग न जाय |
यह भले ही एक अजीबोगरीब प्रक्रिया हो लेकिन कोंडागाँव के वर्तमान से.एम्.ओ. डा. आर. एन. सिंह के अनुसार-यह भाप पद्धति वास्तव में कारगर है क्योंकि भाप एंटीबायोटिक के रूप में रोगी के शरीर में कार्य करता है, जिसका वैज्ञानिक कारण भी है | इस प्रकार विज्ञान की दुहाई दें या प्रकृति की या वहाँ के आदिवासियों की, जो इसके माध्यम से अपने स्वस्थ जीवन व्यतीत कर रहें हैं | हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस वेदों को आधार बनाकर अपनी संस्कृति को बचाने की बात की जाती है, उसमें भी प्रकृति को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है | वहाँ भी देवताओं का विभाजन इसी प्रकृति के आधार पर किया जाता है | इस सन्दर्भ में आदिवासियों में प्रचलित प्रकृति पूजा अंधविश्वास के समकक्ष नहीं टिकता अपितु अंततः उनके माध्यम से जननी जनम भूमिश्च की रक्षा होती है | इस कारण भारत के प्रत्येक नागरिकों का यह कर्तव्य है कि-उनके विकास के लिए अपना योगदान दें, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लगभग आधे से ज्यादा प्रदेशों में जम्मू कश्मीर सरीखे संविधान के माध्यम से इस लोकतान्त्रिक देश का गुजारा हो |

                                डा. मनजीत सिंह
                                 बिलासपुर  

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