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रविवार, 8 मई 2022

महतारी दिवस

महतारी दिवस

साभार


मातृ दिवस पर बेहतरीन तीन कविताएँ । जंसिता, अदनान एवं ऋतुराज की ये तीनों कविताएँ न केवल हमें सोचने को मजबूर करती हैं अपितु यथार्थ को नये रूप में अभिव्यक्त भी करती हैं…यथा…साभार प्रस्तुत.....

माँ ने मुझे क्यों कभी नहीं टोका?


मुझे दादाजी ने टोका, पिताजी ने टोका

सिर्फ़ माँ ने ही

कभी किसी बात के लिए नहीं रोका

एक वही मेरे साथ है

मैं लम्बे समय तक यही समझता रहा


सालों बाद एक शाम मुझे शक हुआ

कोई साथ है फिर क्यों चुप है?

मैंने उससे पहली बार पूछा

माँ तुमने मुझे क्यों कभी नहीं टोका?

क्या सहमत होने का अर्थ चुप रहना होता है?


उसने पहली बार कुछ बोला

तुम्हारे दादा बहुत सख़्त थे

उसके सामने मैंने कभी मुँह नहीं खोला

तुम्हारे पिता भी बहुत सख़्त थे

उसके सामने मैंने कभी मुँह नहीं खोला मैं

ने जीवन-भर तुम्हें भी कुछ नहीं कहा

क्योंकि मैंने कभी भी

सवाल करना ही नहीं सीखा।


(ईश्वर और बाजार-जंसिता केरकेट्टा)


आँख…..


मेरी बूढ़ी माँ को

मोतियाबिन्द की शिकायत है

लेकिन उसकी आँखें

अँधेरे में भी देख लेती हैं


जब मैं लेटता हूँ उसकी बग़ल में

तो वो मुझे टटोलती है

जैसे ढूँढ़ रही हो अपनी कोई खोई हुई चीज़

और बिना कहे जान लेती है

कि मेरे पेट में दर्द है या सिर में थोड़ा बुख़ार

मुझे पहचानने के लिए

वो कोई चश्मा भी नहीं लगाती

बस टो कर ही समझ लेती है

कि मैं हूँ


सब कहते हैं

कि मेरी माँ अंधी है

लेकिन मैं कहता हूँ

कि हम सब अंधे हैं

केवल माँ को छोड़कर


माँ ने तो अपने हाथों में आँखें उगा ली हैं

और हम सब अपनी आँख

कहीं रखकर भूल गए हैं…


(अदनान कफील 'दरवेश'..ठिठुरते लैम्प पोस्ट)


 

माँ का दुःख……


कितना प्रामाणिक था उसका दुख

लड़की को कहते वक़्त जिसे मानो

उसने अपनी अंतिम पूंजी भी दे दी


लड़की अभी सयानी थी

इतनी भोली सरल कि उसे सुख का

आभास तो होता था

पर नहीं जानती थी दुख बाँचना

पाठिका थी वह धुंधले प्रकाश में

कुछ तुकों और लयबद्ध पंक्तियों की


माँ ने कहा पानी में झाँककर

अपने चेहरे पर मत रीझना

आग रोटियाँ सेंकने के लिए होती है

जलने के लिए नहीं

वस्त्राभूषण शाब्दिक भ्रमों की तरह

बंधन हैं जीवन के


माँ ने कहा लड़की होना

पर लड़की जैसा दिखाई मत देना ।


*****ऋतुराज




शनिवार, 16 अप्रैल 2022

स्व की गुफा में भटकते लोग

आत्मा की नजरों में घोषित 


वर्तमान समय में लोग इतनी तीव्र गति से अपना रूप बदलते है कि केंचुल छोड़ता अहि भी शर्म से पानी-पानी हो जाय । लोगों के रंग-ढंग में बनावटीपन और स्तरविहीन व्यक्तित्व के बोझ तले दबकर उसके चतुर्दिक निर्मित संसार एक तरफ से गिरता चला जाता है और उसे एहसास भी नहीं होता । 

फोटो-साभार गूगल

दरअसल ऐसे लोगों के लिए  लोकप्रचलित शब्द प्रसिद्ध है । वह है-गिरगिट । वह गिरगिट की तरह रंग बदलता है । परन्तु गिरगिट की केवल गर्दन रंगीन होती है । उस व्यक्ति का सम्पूर्ण शरीर बदरंग हो जाता है । इस चितकबरी काया को लेकर वह बहुत गर्व करता है । 

आश्चर्य तो तब अधिक होता कि धीरे-धीरे उसे अपना "असली चेहरा याद नहीं /(जहीर कुरैशी) आता । और जहीर कुरैशी के शब्दों में वह स्थितप्रज्ञ को स्वीकार करते हुए कहता है-

भीतर से तो हम श्मशान हैं
बाहर मेले हैं ।

कपड़े पहने हुए
स्वयं को नंगे लगते हैं
दान दे रहे हैं
फिर भी भिखमंगे लगते हैं

ककड़ी के धोखे में
बिकते हुए करेले हैं ।

इतने चेहरे बदले
असली चेहरा याद नहीं
जहाँ न हो अभिनय हो
ऐसा कोई संवाद नहीं

हम द्वन्द्वों के रंगमंच के
पात्र अकेले हैं ।
 
दलदल से बाहर आने की
कोई राह नहीं
इतने पाप हुए
अब पापों की परवाह नहीं

हम आत्मा की नज़रों में
मिट्टी के ढेले हैं ।

साभार-कविता कोश

फोटो-गूगल से साभार

गुरुवार, 14 अप्रैल 2022

दलित साहित्य का सौंदर्य एवं अम्बेडकर

दलित साहित्य का सौंदर्य एवं अम्बेडकर


भारतीय संविधान के मर्मज्ञ एवं दलित विमर्श के मसीहा अम्बेडकर की 131वीं जयंती के अवसर पर एक बात जेहन में आ रही है कि-दलित-अदलित-पीड़ित जनसमूह से निर्मित भारत का आधुनिक ढाँचा बहुत कुछ उनके विचारों पर खरा उतरकर निर्मित हुआ है, जिसे उन्होंने 1936 में "अपने प्रसिद्ध लेख एनीहिलेशन आफ कास्टीज्म' की पृष्ठभूमि के रूप में घोषित किया था |


दरअसल बाबा साहब भीमराव आंबेडकर दलित साहित्य के सूर्य थे | उनकी प्रखर प्रतिभा का आकलन इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने दलित साहित्य में आत्मसम्मान और आत्म गौरव का भाव जगाया | हरिनारायण ठाकुर ने 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' ( पृष्ठ १७५ ) में  "दलित आंदोलन पर विस्तृत काम करने वाले इ. जिलियट के लेख 'गौरव का लोकगीत : समकालीन दलित विश्वास के तीन घटक' का उल्लेख करते हैं, जिसकी शुरूआत अंबेडकर की मराठी कविता से हुआ है | इसके साथ ही वे उसका हिन्दी अनुवाद भी किये है-यथा-


हिन्दुओ को चाहिए थे वेद,

इसलिए उन्होंने व्यास को बुलाया, जो सवर्ण नहीं थे |

हिन्दुओ को चाहिए थे महाकाव्य , 

इसलिए उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया, जो खुद अछूत थे |

हिन्दुओं को चाहिए था एक संविधान ,

इसलिए उन्होंने मुझ (अम्बेडकर) को बुलाया |

इस प्रकार अम्बेडकर ने महसूस किया उस पीड़ा को जो दाग दिया सच (रमणिका गुप्ता) में महावीर और मालती ने झेला था, जीवन साथी (प्रेम कपाडिया) बनकर रेखा ने झेले, चंदर ने अपनी अस्मिता को लहूलुहान (बुद्धशरण हंस) करके वैश्यालय में माँ का दर्शन किया था और उस वैश्य में ही दुर्गा एवं सहक्ति का सानिध्य पाया | इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश वाल्मीकि का तो यहाँ तक कहना है कि, " डा. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना | उनके अनुसार-हिंदुओं की ब्राम्हणवादी और पूंजीवादी व्यस्था का जन्म भारतीय गाँव में होता है |(दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र-ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ-३१)  कुल मिलाकर अदम गोंडवी ने जिस ताप को निम्न गजल में महसूस किया, कमोबेश अम्बेडकर ने भी महसूस किया-


आइए, महसूस करिये जिंदगी के ताप को |

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको |


जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊबकर |

मर गयी फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर |


है सधी सिर पर बिनौले-कंडियों की टोकरी |

आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी |


चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा |

मैं इसे कहता हूँ सरयू पार के मोनालिसा |


कैसी ये भयभीत है हिरनी -सी घबराई हुई |

लग रही जैसे कली बेला के कुम्हलाई हुई |


कल को ये वाचाल थी पर आज कैसी मौन है |

जानते हो इसकी खामोशी का कारण कौन है |


थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को |

सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को |


डूबते सूरज की किरने खेल रही थी रेट से |

घास का गठ्ठर लिए ये आ रही थी खेत से |


आ रही थी वो चली खोयी हुई जज्बात में |

क्या पता उसको कोई भेदिया है घात में |


होनी से अनभिज्ञ कृष्ना बेखबर राहों में थी |

मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाँहों में थी |


चीख निकली भी तो होठों में ही घुटकर रह गयी |

छटपटायी पहले, फिर ढीली पडी, फिर ढह गयी |

*****************************

*************************और अंत में कहते हैं-

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ आयें मेरे गाँव में |

तट पे नदियों के घनी अमराईयों की छाँव में |


गाँव जिसमें आज पांचाली उघारी जा रही |

या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही |


हैं तरसते कितने ही मंगल लँगोटी के लिए |

बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए |


अदम साहब ने जिन-जिन पात्रों को अपने गाँव में चमारों की गली (पृष्ठ-८४) तक ले जाने की बात करते हुए हरखू, मंगल, फुलिया,कृष्ना जैसे को व्यक्त किया हैं ठीक वैसे ही पात्र अम्बेडकर को महाराष्ट्र में मिले, कर्णाटक सहित दक्षिण में मिले और उन्होंने ऐसे पात्रों को बहुजन हिताय के दृष्टिकोण से सामाजिक स्वतंत्रता का ऐसा स्वाद चखाया, जिसके बल पर आज उनका साहित्य समकालीन साहित्य में मील के पत्थर की तरह स्थापित होकर विकास के पथ पर अग्रसर कराने को तत्पर है | 

इस सन्दर्भ में मैं अपने गाँव के तथाकथित हरिजन कहे जाने वाले कुनबे की ओर अपनी विहंगम दृष्टि डालता हूँ तो ऐसा दृश्य उपस्थित होता है , जिन्हें दलित कहने में मुझे शर्म महसूस होता है | (क्योंकि हरि नारायण ठाकुर जी ने भी कुछ इस तरह से माना है कि-समाज का वह प्रत्येक व्यक्ति दलित है, वह चाहे किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय का हो, भूख की पीड़ा से त्रस्त हो ) अतः हमारा गाँव इस मायने में बहुत आगे है | गाँव की शुरूआत ही इनकी बस्ती से होती थी | लेकिन एक अनजान व्यक्ति आज जब गाँव में प्रवेश करता है तो वह भ्रम में पड़ जाता है कि ये महल किन रईसों के हैं | उनके घरों में शायद ही कोई घर होगा जहाँ कोई सरकारी सेवा में न हो | दो-चार घर अभी भी तंग हैं जैसे-अमरीका, पतरू, भरत आदि लेकिन इनकी भी स्थिति इतनी पतली नहीं कि वे दो जून का के भोजन को मोहताज हों | कहने का अर्थ है कि-अब स्थिति परिवर्तित हो चुकी है |


प्रसंगतः दलित विमर्श का पुनर्मूल्यांकन समय और समाज की जरूरी माँग हो सकती है क्योंकि आज जब हम हासिये के यथार्थ की बात करते हैं तो सहज ही नारी-दलित-आदिवासी विमर्श की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाता है ।


14/04/21



एक शाम : अपनों के नाम


बाबा अम्बेडकर : मूल्यांकन-पुनर्मूल्यांकन विषय पर अपने विचारों को साझा करने का अवसर मिला । प्रसंगतः बहुत ही सार्थक पहल के लिए Amit Maurya जी को खूब बधाई । उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे छात्र-छात्रा..अध्यापक/अध्यापिकाओं के जीवन को वर्तमान परिवेश के अनुरूप शिक्षित करने हेतु बहुत सधी शुरूआत की । बाबा अम्बेडकर की शिक्षा की वास्तविक प्रासंगिकता उनके विचारों को आत्मसात करने से ही सिद्ध हो सकती है । इसके प्रति हमें ईमानदार होना जरूरी है । 


जब समाज का कोई कथित बुद्धिजीवी उन्हें समाज के सीमित मानकों पर उन्हें बाँधने का प्रयास करता है तो हमें पुनर्विचार करके मूल्यांकन करना आवश्यक हो जाता है । आज हम समाज में अन्न से लेकर सुख के बीच पनपी तमाम अन्तर्व्यथाओं को नीलकण्ड की तरह पीने को अभिशप्त हैं । जबकि पीड़ा भी कहीं-कहीं खूब विलाप करती हैं तो ग्लानिग्रस्त मानव की मानवीयता के आगोश में अपना रूप बदलकर परिवर्तन की आशा करती है ।


ऐसी विषम परिस्थितियों में अम्बेडकर के विचारों को अपनाना जरूरी है । आज के इस व्याख्यान में मैंने इन्हीं विचारों को रूप प्रदान करने के लिए उनके जीवन-दर्शन से लेकर राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक विचारों के माध्यम से नये निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास किया । 


इसमें सबसे अधिक बातें दलित विमर्श के संदर्भ में गांधी बनाम अम्बेडकर के विचारों को लेकर की गयी और इस नये धरातल पर विमर्श को गति दी गयी । इसके निमित्त गांधी-अम्बेडकर वाङ्गमय के साथ ही हरि नारायण ठाकुर एवं ओम प्रकाश वाल्मीकि के द्वारा की गयी स्थापनाओं के आधार पर विश्लेषण को धारदार बनाने का प्रयास किया गया । यह व्याख्यान अम्बेडकर के चिंतन में बेरोजगारी के दंश से पीड़ित विशाल जनसमुदाय को भी समाहित करने में सफल रहा क्योंकि अंततः यहाँ भी यह तथ्य उभरकर सामने आया कि-आधुनिक पीढ़ी की सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी है, जिसके बोझ तले दबकर भावी पीढ़ी नयी इबारत लिखने का प्रयास कर रही है । 


साभार-श्री नीलम देवी महाविद्यालय, बलिया (उत्तर प्रदेश)


#डॉ. मनजीत सिंह

मंगलवार, 11 जनवरी 2022

 मृत संवेदनाएँ एवं मानवतावादी दृष्टिकोण : चिंतन, चुनौतियाँ एवं समाधान


मानवता संवेदनशील प्रवृत्तियों से बलवती होती है । यह संस्कृति का परिष्कार करती है एवं समाज को नयी दिशा भी प्रदान करती है । 


परन्तु वर्तमान समय में मृत कोशिकाओं से निर्मित संवेदनाएँ विपरीत परिस्थितियों को जन्म देती हैं । इसके दो कारण हैं-पहला स्वयं मनुष्य का व्यक्तित्व एवं दूसरा परिवर्तित वातावरण-परिवेश । यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि-मनुष्य स्वार्थ के वश में होकर अपने विकास की धारा मोड़ लेता है, जिसकी नियताप्ति निःसंदेह विनाश के रुप में होती है । इसके लिए कुछेक ज्वलंत उदाहरण मजबूत आधार प्रदान करते हैं । 


हाल ही में एक घटना से रूबरू होने का संयोग बना । इसे आप काल्पनिक भी मान सकते हैं । बलिया जनपद के सुदूर पूरब में एक गाँव हैं । इस गाँव में मुश्किल से पाँच सौ आबादी होगी । यहाँ के युवा "कमाओ-खाओ-लूट-लुटाओ" में विश्वास करते हैं । अचानक एक दिन इनमें से एक परिवार का पढ़ने में रुचि दिखाने लगता है लेकिन यहाँ के परंपरागत योद्धा तमाम ओछी हरकते करके दिग्भ्रमित करने के लिए कुटिल रणनीति तैयार करते हैं । 


परन्तु समय चक्र बहुत तीव्र गति से घूर्णन करता है और बहुत कम समय में वह छात्र अतिरिक्त क्षमताओं का स्वामी होने के कारण उस गाँव में विजेता बन जाता है । स्वयं को ब्रह्मराक्षस का पर्याय मानकर विशेष पद को सुशोभित करने की कल्पना करके यथार्थ की जमीन से दूर हो जाता है । उसका यथार्थ कब स्वार्थ में परिवर्तित हो जाता है, इसका एहसास उसे तनिक भी नहीं होता । इस तरह वह धीरे-धीरे अहं के सम्पूर्ण अवयव का स्वामी बन बैठता है ।


 परिणामस्वरूप उसमें  नैतिक-सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रतिमान धुंधले पड़ जाते हैं । इस प्रकार उसके व्यक्तित्व की कल्पना करते हुए समाज के विकास-पतन को  महसूस कर सकते हैं ।


हमारे पूर्वज न केवल अनुभव के धनी होते थे अपितु उनके पास लोक-समर्थित ज्ञान का अकूत भंडार था । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि यह भण्डार कभी भी खाली नहीं होता था । इसी में से यह तथ्य छनकर आता है कि-मनुष्य वातावरण-परिवेश के अनुरूप अपने व्यवहारों में आवश्यक परिवर्तन करता है । ये बदलाव कभी दिखता है तो कभी अदृश्य ही रहता है । 


अतः इसी प्रभाव के कारण संवेदनशील मनुष्य कभी कठोर दण्ड का भागी बनता है तो कभी सरस माधुर्य का स्वामी । इसमें दो मत नहीं कि कठोरता अक्सर विनाश की सवारी करती है जबकि सरलता वैचारिक रूप में चक्रवर्ती बनाता है ।


©डॉ. मनजीत सिंह 


जारी

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

हाईकू

एकान्तवासी 


द्वार से दूर
हटके बैठा वह
है मुसाफिर ।

ताड़ रहा है
दुनिया के लोगों के
असाध्य रोग ।

सुबह-सबेरे की
धूप काट खाने को
लालायित है।

रोज होता है
जीव अशांत मन
चंचल तन ।

आज विदाई
बेला शुभ संकेत
लेकर आई ।

हार्न बजाते
ड्राईवर संग ही
उड़ता मन ।

उड़ेल देना
चाहता तन गेह
स्नेह-प्रेम ।

बाल-सुलभ
बूढ़ा बरगद बन
कर यौवन ।।

( हाईकू लिखने की धृष्टता)

शनिवार, 4 जनवरी 2020

तस्वीर में तकदीर

तस्वीर में तकदीर 


मुड़ता हूँ पीछे कभी
सन्न रह जाते सारे अवयव
काम करती इन्द्रियाँ भी
थककर चूर होकर
आसरा खोजती रहती है ।
नये तलाश का आनंद लेती
कोने में बैठे स्थूल शरीर को
देती है सहारा वही तस्वीर ।
दिखने लगता है-उसमें चेहरा
पुराना-बहुत पुराना-अधिक ।
अब धुंधले जीवन का उजाला
दूर कहीं दिखने लगता है ।
वही सरगम बुनने लगता है
जहाँ से बिगड़ने लगते हैं-तन ।
बार-बार भागने लगता है-मन ।
और बीच राह से वापस
कभी पुचकारती-कभी मनुहार करती
ढाँढ़स बँधाती यही कहती जाती-
मन को जीत कर भी उदास क्यों ?
आगे बढ़ो जमाने से जुड़ो ।
बढ़ने और जुड़ने का अलग ही मजा है
हासिये पर विलाप करने से
किस फलसफा को सिद्ध करोगे?

क्रमशः

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

स्वर्ग कहाँ है....


लोग कहते हैं
जीवन नरक हो गया
भागते-भागते जी ऊब गया
क्योंकि
सुबह से शाम तक
वह इसी जुगाड़ में वह रहता
कब ?  किसकी ? और  कितनी ?
जेब काटनी है ..............!
इस पर भी संतोष नहीं उसे
कुछ कर गुजरने की खातिर
जबरन वसूली करके संतोष कहाँ ?
घर-बार-दुआर का गुजारा कर
डूबने लगा वह अतल गहराईयों में
जहाँ जाने की ख्वाईश
खींच लाती थी मधुर स्वर लहरी ।
कहते हैं उसे स्वर्ग-सीढ़ी
जिसके सहारे अनजान व्यक्ति
ब्रह्म-आत्मा का दीदार करता ।
लेकिन ! टूटे पायदान से फिसलकर
उतरने को जमीन पर विवश-अपयश
हकीकत से टकराकर चूर-चूर हुआ
स्वप्निल विचारों का पहिया ।
यही कारण है कि -
वह खोजता-फिरता-भटकता
पहुँच जाता अपनी गुफा बीच।
कथित नरक में ऐसे जीवन को मिलती
नयी ऊर्जा-नयी ऊष्मा, नयी-नयी
यह उसकी नजर में स्वर्ग से भी बढ़कर
नया एहसास दिलाती ।
कुछ चीजें पाकर खुशी से कहता--
हम दूर नहीं जाते, ईश्वर को भी यहीं पाते
न ही तुलसी जल, बिन गोदान वैतरिणी पार।

क्रमशः

©डॉ. मनजीत सिंह

मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

नया-पुराना

नया-पुराना 


नववर्ष की पूर्व संध्या

सूरज की लालिमा को

छुपाने को तत्पर

आसमान किस तरह

उमंगें भर रहा,

इसे देखकर मन को

बड़ा सुकून मिलता |

कम से कम एक

भारी भरकम साल

बड़े ही आहिस्ते से,

गुजरता  चला जा रहा

हौले-हौले चिढ़ाता चला

जोर-जोर से पुकारकर

यही  कहता चला जा रहा,

याद  कीजिए, दिमाग पर

जोर भी डालिएगा

आज का ही दिन था

जोश  में भी  थे, उत्साह में भी थे

यह तो जरूर प्रण किये थे

भूली-बिसरी यादों में

नयापन ही जोडेंगे

अफ़सोस होता है तब

जब हम तीन सौ पैंसठ दिन को

देखते तो यही पाते है

तुमने हमें कहीं का नहीं छोड़ा

याद करो वे सारे दिन

तुम जब हमको छेड़ रहे थे

यह क्रम रूकने की वजाय

चलता गया

आपसे तो बेहतर पश्चिम वाले थे

जिन्होंने प्रकृति से ही ईश्वर को याद किया|

लेकिन आपने तो कुछ भी नहीं किया औ

समाज  पर भी  बोझ बनते हुए

भरसक सताने में कोई भी

कोताही नहीं की |

दाद देते हैं-

प्रकृति प्रदत्त उन भाग्यशाली लोगों को-

प्रणाम  करता हूँ उनके जूनून को

जिसके बल पर

भारीपन होते जीवन को भी,

हल्का करने का साहस रहा|

अपनी खुशियाँ बरकरार रखकर

यही कहते रहे कि-

भई ! जन्म लेकर धरती पर

तुमने भोगा, हमने पाया |

इसे पाने की ललक ने

भले ही हमें कुछ ऐसा-वैसा

करने को मजबूर होना पड़ा |

आखिर हमें जाने न जाने से क्या होता

जानना है तो जानो,

लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े

समाज के बहुरूपिए को

बजाते रहे और सुनते रहे

अपनी ही तान पर झूमते रहे |

जनता बेचारी समय की मारी

कहाँ जाए और किसे सुनाये

अपना कष्ट, अपना दुःख

संतोष करके बस रह जाती है

वह तो यह भी नहीं कह पाती है

नववर्ष की पूर्व संध्या मुबारक हो||

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

गजल

कविता


काश मेरी बगिया में भी चाँद की खेती होती
दूसरों के आँगन से कुछ शीतल बयार आती ||
अफ़सोस नहीं होता धरती पर जन्म लेने का
अगले जन्म की ख्वाईश से हलचल न होती ||

©********डॉ. मनजीत सिंह*********

रविवार, 29 दिसंबर 2019

आह से निकला गान !

आह से निकला गान !


बेटी की तेज धड़कन
सुनने के बाद भावविभोर होकर
मन के सागर में गोता लगाता
हैरान-परेशान ग़मों को पीकर
चल निकला ईश्वर के घर-द्वार |

दिल की गहराई को
बार-बार  मापने के बाद  ही
आह निकली ! पीड़ा के बरक्स
आवाज को सुनने वाले बहुत हैं ।

लेकिन

आँगन के दायरे के भीतर से
असह्य वेदना के इस  मर्म को
समझने-समझने वाला शायद कोई
जीवन की अक्षुण्ण बहती नदी के
निर्मल जल  की शोभा बढ़ाने में
सहयोग की गुंजाईश से आगे आये |

बीते पल की नुमाइश करके
बह चली एक धारा इस धरा पर
दुःख की छाया अब मद्धिम हो
अधखिले सूरजमुखी संग होकर
यौवन के संगम पर बालू की रेत में
बुढ़ापा का एहसाह तरबतर होकर
एक नयी परिभाषा गढ़ता-जाता ।।

क्रमशः

©डॉ. मनजीत सिंह

बुधवार, 5 जून 2019

काली अंधेरी रात

काली अंधेरी रात


काली अंधेरी रात
प्रकृति के आईने में
आम का पेड़
मौन होकर
याद दिलाता रहता
बार-बार
उस सामाजिक परिवर्तन को
जो हो रहा है
हर पल, क्षण-क्षण
एहसास कराता मैदान में
रेगिस्तान सरीखे
कैक्टस का...
काँटे चूभते रहने पर भी
अनजान दुनिया बेखबर
राग अलापती..अपना

......5-6 जून19.......

पर्यावरण 2

5 जून विशेष-पर्यावरण दिवस

आग लगी है जंगल में
दावानल..बडवानल...हावी हैं ...!
जठराग्नि को अपने आगोश में लेकर
आमदा है मिटाने को
यहाँ न कोई बामन
राजपूत, बनिया ..शूद्र
धुँआ देख काँपता हैं देह
नर्तक बन दौड़ते हैं बचाने
भूल जाते हैं जातीय संघर्ष |

प्रकृति की लीला देख
कभी मन बैचैन  होता
जाने-अनजाने तड़प उठता
धरती के भीतर हलुवा(मैग्मा) खाने को
दोड़ता..खींचता...चला जाता
सीता माता की याद दिलाता
हिलती-डोलती धरा के गर्भ में
लपट बनकर बुझ जाता ||

ग्लोबल-ग्लोबल-ग्लोबल
वार्मिंग-वार्मिंग-वार्मिंग
विश्व-भारत-वारत की गरिमा
हिमालय के दिल को टुकडा करते
एक्सप्रेस-वे का सपना दिखाते
भावी गाड़ियों को तीव्र गति से दौडाते
धुल-धूसरित होते पहाड़
आज नहीं तो कल
कल नहीं तो परसों
परसों नहीं लेकिन बरसों
डूबते थल को बचाने के प्रयास
पोल्डरिंग से भी विफल होने में
देर नहीं लगती ....!!
(हालेंड में समुद्र के किनारे मिट्टी भरकर जमीन तैयार करने को पोल्डरिंग कहा जाता है )

५ जून १३

पर्यावरण

पर्यावरण 


गोधूलि बेला में
दरख्त की रूदन
हरे-हरे पत्तों पर
कृत्रिम आँसूओं की धारा
धरती की बनावटी गर्मी को
अनकहे बयाँ करती है..... !

आम, नीम, पीपल,बबूल,ताड़
साल,सागौन,चीड़ औ देवदार
एक साथ वही रोना रोते....?

नदी-घाटी, पहाड़-पठार
अपने ओछेपन से तंग होकर
काल की ग्रास बनती बसुंधरा पर
मुसकाते और चिढ़ाते हुए
आह्वान करते.........!!!

सीमित होकर भी छेड़ो-काटो
फल का स्वाद भी चखा करो..?

डॉ. मनजीत सिंह
5जून2013

सोमवार, 15 सितंबर 2014

उस पार

उस पार 

अक्षोर क्षितिज के पार
मेघ करते श्रृंगार 
धरा की शोभा को बढाने की लालसा में
रूप-रंग बदलते 
मानव मन की गरिमा को 
बारिश के बहाने ||
‪#‎डॉ‬. मनजीत सिंह
15.09.14

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

आखिर क्यों-


आखिर क्यों !


वसंत की लहर
हिमयुग के आगोश में 
तीव्रता खोती जा रही-

आखिर क्यों-

धूल कणों से निर्मित
बादलों की आभा
भूमंडलीय ताप से
मद्धिम होती जा रही-
आखिर क्यों-

आमफहम जनतंत्र
लोक के अभाव में
धूर आधुनिक के आग्रह से
धूमिल होती जा रही-

आखिर क्यों-

माँ बछड़े से बिछुडकर भी
दर्द के एहसास को
आँसुओं की धारा में
छुपाये जा रही -

आखिर क्यों-
जिंदगी की महफ़िल में
लोगों के जीने की ख्वाईश
बदलती जा रही है –

डॉ. मनजीत सिंह

वसंत पंचमी, दिन सोमवार
दिनांक-04फरवरी, 2014

सोमवार, 6 जनवरी 2014

नहीं हुआ न्याय !!



नहीं हुआ न्याय !!


बाबा की बगिया में
आम-अमरुद-महुआ पर
बेर का पेड़ भारी होकर
अपनी कटीली झाडियों से
करता रहता है रखवाली ||

बरसों बीत गए
बाँस की मचान पर
गुदड़ी में लिपटे मटमैले
बिस्तर भी जवाब देकर
साथ छोड़ने को नहीं तैयार ||

रात रानी की सुगंध भी
फींकी सुगंध बिखेरकर
चिढाती रही चाँदनी रात
पपीहा की आवाज से अब
संगम का कहाँ हुआ एहसास ||

ललमुनिया भी सुध खोकर
बाजरे की लिटी को गेहूँ समझ
अब पकाती रही मीठे पकवान
नून-तेल-मिर्ची की त्रिवेणी पर
रोटी संग कहाँ हुआ स्नान ||

पिरामिड के ऊपर बैठ
यमराज के दूत को सपने में देख
स्वर्ग में जगह आरक्षित करने की
बढ़ीं लालसा औ याद आया गोदान
अंत समय तक नहीं हुआ न्याय ||

डॉ. मनजीत सिंह 

06/01/14

बुधवार, 20 नवंबर 2013

युवराज को रास आयी गरीबी !!

*****व्यंग्यात्मक *****


युवराज को रास आयी गरीबी !!


कही ऐसा तो नहीं !
उनके लिए गरीब 
शायद 
अपने प्याज के 
आँसू नहीं बहा रहें हों ?

सब्जी भी राजा बिन 
उदास नहीं रहती होगी |

वहाँ न छत्तीस का आंकड़ा होगा 
न ही छबीस का डाटा होगा 
वहाँ सौ फीसदी काँटा-छूरी 

और 

पांच सितारा न सही 
मिट्टी से इतर 
आलीशान दिख रही 
छत के नीचे आसरा होगा ?

19/11/13

डॉ. मनजीत सिंह

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

धिक्कारती रही बार-बार !!

धिक्कारती रही बार-बार !!


1

सुरक्षित जीवन की ललक 
सुना पड़ते ही विवर में खो जाता 
आते-जाते राहों में निजता जीवित 
हल्की पड़ भागर-ताल में भटकते 
उस अछोर क्षितिज की ओर निहार 
वह धिक्कारती रही बार-बार || 

डॉ. मनजीत सिंह

27/10/13

बीते पल.... !!


बीते पल.... !!


1

कितना मधुर था 
कितना सुघर था 
कितना सुन्दर था 
हमारा वह पल !!
छोटे-छोटे पाँव 
पराये वसन से 
सुसज्जित होकर,
परायी किताबों से 
लदकर धरती को 
हल्का ही प्रतीत होते |
नित नयी परिपाटी में 
रहने के लिए बैचैन 
मन ही मन वह 
कुछ न कहते हुए भी 
सब कह जाते ||
परी भूत बनकर 
दादी की कहानियों में 
रोज-रोज ही आती 
काश वह पल 
आज मुझे नहीं रूलाते !!

डॉ. मनजीत सिंह

27/10/13

शनिवार, 31 अगस्त 2013

बजट : सबसे बड़ा रूपैया

बजट : सबसे बड़ा रूपैया


परिवार का बजट
महीने में एक बार
बनता है...........!
शेष दिनों में यह तो
केवल बिगडता है...!
सरकार का बजट
सालों भर बनता है
लेकिन
हर तीसरे महीने  के
अंत में प्रस्तुत होता है..!
समय बीतता जाता है
महीना-साल गुजरकर
बनती शताब्दी वर्ष को
दूर से ही चिढाता है ..!
सोना भी तो सिक्का बन
सरकार की शोभा बढाते हैं-
डालर-यूरो-पोंड-एन से
रोज ही दूरी बढाते हैं..!
सबकी हस्ती मिटती नहीं 
भारत की बस्ती में .....!
क्योकि वे गढते है कहानी
करोड़पति की मस्ती में ..!
वित्त-लोक से साझा करता
गटक जाते हैं सिक्का वे
कथनी-करनी; सूझ-बूझ का
देते है-टिक्का वे...!
आम बजट बना अब खास
गयी दिवाली होली में भी
नहीं आया मधुमास....!
गया बेचारा रूपया लेकर
रोज साँझ वह किसान
मजदूरी के प्रेम में
लंबी-चौड़ी फरमाईश में
गया बाजार लाई रस्सी
बजट की महिमा अपार है
बनते-रोज-रोज वह खस्सी |
खाकर-पीकर नेता आते
जेल में रहकर जीत ही जाते
लाल निशान होंगे भगवान
हो जाते हैं करूणानिधान |
क्रमशः

 डॉ. मनजीत सिंह
31/08/13

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