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मंगलवार, 30 जुलाई 2013

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

(कथा साहित्य, दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्री विमर्श की पड़ताल )

डॉ. मनजीत सिंह

इंसान  काले-गोरे  के खेमे  में  बँट गया,
तहजीब के  बदन पे  सियासी  लिबास है।
रोटी के लिए बिक गयी ’धनिया’ की आबरू,
’लमही’ में  प्रेमचन्द  का  होरी  उदास है।(अदम गोंडवी)
    अदम गोंडवी ने भले ही धनिया के आबरू के बिकने और होरी की उदासी को सामाजिक रूप उद्घाटित करते हैं लेकिन इसका सीधा संबंध समकालीन साहित्य से निर्धारित होता है। क्योंकि साहित्य का समकालीन स्वरूप अंतर्विरोधों से परिपूर्ण है, इनमें कुछ ऐसा कड़वा सच है, जिसे आत्मसात् करना मुमकिन नहीं है। यहाँ विमर्श के बहाने ईर्ष्या-द्वेष, गोष्ठी के बहाने अंक बटोर, परिचर्चा के बहाने टीका-टिप्पणी कमोबेश सर्वत्र व्याप्त है। इसका दूसरा पहलू भी कम रोचक नहीं है, जिसे हम शहर बनाम गाँव, ग्लोबल शहर बनाम विश्वग्राम को केन्दं्र में रखकर सहजतापूर्वक विश्लेषण कर सकते हैं। इस संदर्भ में यह कहना में तनिक भी हिचक महसूस नहीं हो रही है कि-आधुनिक साहित्य शहरीकृत मानसिकता कि दबाव से छटपटाता हुआ नवीनता की मांग कर रहा है। आज जब कभी साहित्य की बात की जाती है तो इसकी शुरूआत महानगरों से होती है और वहीं यह समाप्तप्राय भी हो जाता है। इसमें न ही महानगरीय संस्कृति की जीवनशैली की यथार्थ तस्वीर प्रस्तुत हो पाती है और न ही गाँव की सोंधी महक ही सुगंिधत करती है।
प्रसंगतः प्रश्न स्वाभाविक है कि-क्या महानगरों में परिवार को एक सीमीत संसाधनों के ऑकड़ों का सहारा लेकर विश्लेषण करना श्रेयष्कर है? इसका सीध एवं सरल उत्तर नकारात्मक होगा। इसके निमित्त मैं जब कभी कथा साहित्य(कहानी, उपन्यास) को पढ़ने का साहस बटोरता हूँ, (जो महानगरीय जीवन शैली पर केन्द्रित होती है।) तो एक ही स्वर, एक ही उद्देश्य, एक ही कथोपकथन  और कमोबेश एक ही शैली से मन खिन्न हो उठता है। महानगरों में मध्य वर्ग को ही इसके लिए सर्वथा उपयुक्त माना जाना उचित नहीं है। क्या शहरों में निम्न वर्ग नहीं? क्या प्रमचन्द द्वारा ग्रहीत गाँव-शहर को एक ही चरूमें से नहीं देखा जा सकता? प्रेमचन्द में इतना साहस था कि वह एक ही साथ होरी-धनिया-गोबर के साथ मिर्जा-मेहता-मालती को भी रखने का साहस किये थें। क्या आज ऐसा साहस किसी में है? शायद यही कारण था कि- अदम गोंडवी जी ने भी नया इतिहास लिखने की बात की थी-यथा-
मानवता का दर्द लिखेंगे, माटी की बू-बास लिखेंगे।
हम अपने इस कालखंड का एक नया इतिहास लिखेंगे।

सदियों से जो रहे उपेक्षित श्रीमन्तों के हरम सजाकर,
उन दलितों की करूण कहानी मुद्रा से रैदास लिखेंगे।

प्रेमचन्द की रचनाओं को एक सिरे से खारिज करके,
ये ’ओशो’ के अनुयायी हैं, कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे।
 इस प्रकार साहित्य के इस परिवर्तन में आधुनिक कहानियाँ खरी नहीं उतरती क्योंकि इन कहानियों पर पड़ते ग्लोबल प्रभाव को सहजता से आत्मसात् किया जा रहा है परन्तु ग्रामीण प्रभाव को अछूता करना साहित्य के साथ अन्याय है। इसके निमित्त यदि यत्र-तत्र प्रभाव दियाता भी है, तो वह यथार्थ से इतना दूर रहता है कि हमारे जैसा पाठक भी कभी-कभी सिर पकड़कर बैठ जाता है। क्योंकि इस गाँव को लेखक अपने ध्वनि प्रतीकों एवं कल्पनाओ से इतना ओत-प्रोत कर देता है कि-अन्ततः आत्मविश्लेषणपरक दुर्गध आने लगती है।    कहा जाता है कि-कहानी कला के बीच में लेखक या लेखिका की उपस्थिति कहानी कला की कसौटी का प्रमाण है। परंतु जब इनकी बेजा उपस्थिति से कथोपकथन और पात्रों का सेवाद प्रभावित होने लगे, तब यह कहानी कला की कमजोरी का द्योतक बनता है। कुछेक आलोचक इसे आत्मपरक विभाजन के रूप में स्वीकार्य करने की सतही सलाह भी देते हैं, जो हजम नहीं होता क्योंकि इससे आधुनिक गद्य की अन्य विधाओं पर खतरे की घंटी मंडराने लगती है। इस प्रकार सामाजिक सरोकारों के छलावे में एक अदना सा पाठक ही छला जाता है और वह उस तथाकथित सभ्य कीे जाने वाले समाज से स्व को कटा हुआ महसूस करते है।
कथा साहित्य में कहानी की ही भाँति उपन्यास का नवीन आवरण भी हैरतअंगेज सूरत प्रस्तुत करता है। इसके साज-सज्जा पर प्रकाशक अनायास धन की वर्षा करते हैं। लेकिन इसके शृंगार और कथावस्तु में सामंजस्य करना प्रेत की छाया छूने के बराबर है। सजिल्द-अजिल्द, शृंगारपरक ऐसे उपन्यास एक कमजोर कड़ी के रूप में प्रस्तुत होकर हमें चिढ़ाते हैं। लगभग ऐसा ही एक उपन्यास मुझे पढ़ने का अवसर मिला, इसे मजबूरी ही कह सकते हेै क्योंकि धन का मोह जो था! पढ़ता चला गया....प्रथम-द्वितीय से 107 पृष्ठ तक। लेकिन घोषित आत्मपरकता से मैं स्वयं भयभीत हों गया। यह भय न केवल उस लेखक से था अपितु प्रकाशक से भी रहा, जिसका संबंध साहित्य के आधुनिकतम स्वरूप से किया जाना लोहे के चने चबाने जैसा था। अक्सर यह देखने में आता है कि-जब भी आत्मप्रशंसा की बात आती है, तब लेखक के पास शब्दों का जखीरा जमा हो जाता है लेकिन परोपकार की बात आते ही उसके शब्दकोश के शब्द गायब हो जाते हैं और कल्पनाएँ सुषुप्तावस्था में चली जाती है। सोकर लिखने और लिखकर सोने में फर्क है। सोकर सपना देखते हैं, यह सपना उन्हीं चीजों से संबंधित होता है, जिससे प्रत्यक्ष में हमारा सामना हुआ हो। जबकि लिखकर सोना ही लेखकीय कौशल का प्रामाणिक नमूना बन सकता है। अतः मैं बोरिशाइल्ला’ के साथ आधुनिक उपन्यासों में एकाध को छोड़ शायद ही कोई उपन्यास होगा, जो आत्मपरक शैली के खाँचे में सटीक बैठे। यहाँ तक पेंच को जबरदस्ती कसना निंदनीय है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में दलित-स्त्री और आदिवासी साहित्य की चर्चा न हो...यह असंभव है। प्रसंगतः यह कहना उचित है कि-दलित आत्मकथा, उपन्यास और कहानी पर भारी पड़ता है। क्योंकि इसमें ’स्व’ की पीड़ा उजागर होती है। लेकिन यह पीड़ा भी कभी-कभी अतिव्याप्ति दोष से बच नहीं पाती। जूठन, उचक्का, झोपड़ी से राजमहल तक, अपन-अपने पिंजरे इत्यादि गिनी चुनी आत्मकथाओं को छोड़ अधिकांश में यही दोष दृष्टिगोचर होता है। इसमें बचपन को तोड़ना-मरोड़ना, जवानी के साथ खिलवाड़ करना और बुढ़ापे के सहारे को भी अलग अंदाज में प्रस्तुत करना ठीक नहीं। क्योंकि एंेसी परिस्थिति में यहाँ भी काल्पनिक वर्चस्व हावी होकर पाठकों को हिमालय से चली शीतल बयार का अहसास होने लगता है। परन्तु यह हमें कभी नही भूलना चाहिए कि-जिस प्रकार हिमालय हमारे देश के लिए रक्षा कवच का कार्य करता है लेकिन इससे छेड़छाड़ विध्वश का कारक बनता है ठीक उसी प्रकार साहित्य में बाहरी प्रभाव(आत्मकथांक) रक्षक और भक्षक दोनों है। इसी प्रकार दूसरी ओर कुछ दलित-अदलित कहानिकारों को छोड़, शेष उसी लीक पर ही चलते दिखाई देते हैं। जबकि आधुनिक समय और समाज लीक से हटकर लेखन की मांग करता है, जो विशेष हो। लीक से दूर जाने में पाठकों से लेखक की सहभागिता और अंतर्संबंध अनिवार्य घटक बनकर नवीन उद्भावना करता है। परंतु वे बेचारों को....फटी-धोती, बिन-पनही और रीढ़ की हड्डी को छाती से चिपकाये गरीबों की गरीबी से किस कदर अपना संबंध स्थापित करें। इसका वास्तविक चित्रण तो अदम साहब ही करते हैं-
    आइए,  महसूस करिए  जिंदगी  के ताप को ं।
    मैं चमारों  की गली तक  ले  चलूँगा  आपको।

    जिस गली में भुखमरी की यातना से   ऊबकर।
    मर गयी है फुलिया बिचारी कल कुएँ में डूबकर।

    ×    ×    ×    ×    ×    ×    ×
    जुट गयी थी भीड़ जिसमें जोश का सैलाब था।
    जो भी था,  अपनी  सुनाने  के लिए बेताब था।   
लोग अपनी हाँकने में व्यस्त रहते हैं क्योंकि वह ठहरे शहरी। अतः अब तो यही कहकर संतोष करना पड़ रहा है कि-कल्पनाएँ यथार्थ तक पहुँचने का एक पतला-संकरा मार्ग भले बना लें, वह स्वतः यथार्थ नहीं बन सकती। जब बनने का प्रयास करेंगी तो वह फैंटेंसी में उलझकर स्वयं का रूप भी नहीं पहचान पायंेगी।
    समकालीन साहित्य में स्त्री विमर्श के आइने में उभरी तस्वीर कम विचारोत्तेजक नहीं। यहाँ तो मुद्रित और मौखिक माध्यमों में लगी होड़ से उत्तर-पूर्वी तथाकथित ’सबआल्टर्न साहित्य’ भी शर्म के मारे पानी-पानी हो जाय। श्लील-अश्लील बनाम मैत्रेयी-विभूति प्रकरण से लेकर हाल-फिलहाल दिग्गी के डिग्गी में सौ टके टंच की बात को कैसे भुलाया जा सकता है? भले ही राजेन्द्र यादव ’हासिल’ करने में दो कदम आगे निकल जायें। इस पर अदम जी की सटीक टिप्पणी दृष्टव्य है-
        टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो।
        फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।

        बह गये कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में,
        अक्ल इस कच्चे घड़े से कैसे दरिया पार हो।

और कहते हैं-

        एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
        झोपड़ी  से  राजपथ का रास्ता हमवार हो।।
प्रश्न उठना स्वाभाविक है-क्या व्यक्तिगत टीका-टिप्पणी को मुद्रित माध्यमों में भरपूर स्थान देकर झोपड़ी से राजमहल का रास्ता सहज हो सकता है? छोटी मुँह बड़ी बात का साहस तो कर नहीं सकता फिर भी थोड़ा साहस जुटाता हूँ तो यह तथ्य अनायास निकल जाता है कि-साहित्य व्यक्तिगत हित के निमित्त न होकर सार्वजनिक या सर्वजन होता है। अतः इसके मुख्य उद्देश्य का हनन स्वाभाविक है। पहले देखा जाता था, पढ़ा जाता था और अब लिखा जाता है तथा छापा जाता है। इस छाप को तूलिका के किसी भीरंग से भरकर रंगीन कर दिया जाता है। इतना भी ध्याान नहीं दिया जाता है कि-कौन सा रंगकृकिस रंग से मेल खाता है? गमगीन को भी चमेली के फूल से सुगंधित किया जाता है। ंऔर जहाँ सुगंध है उसे धूमिल किया जाता है। इस परिदृश्य में नारी जीवन को कठपुतली की तरह प्रस्तुत करना उचित नहीं। यह बात अलग है कि नारी की परछाई भी शक्तिस्वरूपा ब्रह्मनंद सहोदर से मेंल खाती है। यह माया भी है लेकिन आधुनिक नारियों की माया से अलग। जो लेखक वृंद सहजतापूर्वक इन रूपों को केन्द्र में रखकर लेखन कार्य में व्यस्त हैं उन्हें-साधुवाद।
    अन्ततः आदिवासी साहित्य के पल्ल्वन को शामिल करने में गर्व का अनुभव होना लाजमी है। लेकिन इस बिखरे और मौखिक रूप मंे हमें प्र्राप्त है। अधिसंख्य जनता न ही इसे पढ़ सकती है, न समझ सकती है। यहाँ अनुवाद के सहारे ही जीना मजबूरी है। लेकिन जहाँ तक मैं अपनी सीमा में रहकर जाना-पहचाना और कह रहा हूँ कि-यह साहित्य अपने मूल रूप् में वैसा नहीं जैसा पढ़ा या समझा जाता है या जबरिया समझने का प्रयास केया जाता है अपितु यह इससे भी बहुत आगे है। इसका सबसे बड़ा कारण तो यही हो सकता है कि-भारोपीय परिवार में हो, उरॉव, मुंडा की समझ रखने वालों की संख्या अत्यल्प है। जो लोग इसे समझने वाले हैं, उनमें अधिकांशतः महानगरीय जीवन-शैली से प्रभावित होकर वस्तुतः अपने मूल उद्देश्यों से लगभग दूरी बना रहें हैं। जबकि रमणिका गुप्ता, निर्मला पुतुल आदि लेखिकावों में इसका पूर्ण परिपाक मिलता है। परंतु इस संदर्भ में एक प्रश्न लाजमी है-क्या आदिवासी साहित्य पर केन्द्रित महानगरीय गोष्ठियाँ उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में अपना योगदान दे सकती है? विगत वर्षों में हमने देखा कि- ऐसी गोष्ठियाँ अमरकंटक, डाल्टनगंज और उत्तर-पूर्व में हुई लेकिन छत्तीसगढ़ में नहीं। इसमें कोई दो राय नही ंकि इनमें नये-नये विचार आते हैं। कुछ नयी योजनाएँ भी बनती हैं। लेकिन तथाकथित अन्त्यज और गिरिजन कहे जाने वाले आदिवासी कितने शिरकत करते हैं। क्या इनके जीवन में अपेक्षित क्रांतिकारी परिवर्तन आया। यदि नही ंतो क्या इनके कारणों की खोज की गयीं? ये प्रश्न अभी भी अंधेरे में है और शायद भविष्य में भी ऐसे ही रहें।  इतना तो अवश्य है कि-इससे बड़े-बड़े आलेखों से संपादित पुस्तकें पुस्तकालयों की शोभा अवश्य बढ़ा रहें है। यह शोभा आथर््िाक संबल प्रदान करने में भी सहायक है। जबकि प्रयास तो यह होना चाहिये कि-इस सैद्धांतिक वर्चस्व को तोड़कर इसकी व्यवहारिक उपादेयता सिद्ध किया जाय। क्योंकि सिद्धांत ही व्यवहार पर हावी होकर तांडव नृत्य कर रहा है। हो सकता है नटराज के इस रौद्र रूप को देख कुछ लोग सहम जाय और कुछ बोलकर चुप  भी हो जाय । लेकिन इसकी टंकार बुत दूर तक सुनायी देंगी।
    ंअतः समकालीन साहित्य का पुनर्लेखन एक चुनौती से कम नहीं क्योंकि इसकी गद्दी पर विराजमान आकाआंे से भयभीत मन की कातर पुकार कोई नहीं सुनता। भले ही इसे अनसुना कर दिया जाय परंतु एक तथ्य स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि-साहित्य में आयी बाढ से खतरा भी है और लाभ भी। खतरा इस बात का हैकि कहीं यह तहरी न बन जाय और लाभ निःसंदेह साहित्यिक है।
(उपर्युक्त विचार लेखक के स्वयं के विचार हैं, इससे किसी भी समुदाय विशेष का योगदान नहीं। 30/07/13 )





सोमवार, 13 मई 2013

मलाला की डायरी

 

मलाला की डायरी

कल मलाला की डायरी(मलाला युसुफजई) का कुछ अंश को पढकर मन में तमाम सवाल उमड़ने लगे | सबसे पहला सवाल तो यही है कि-एन फ्रैंक और मलाला बनाम आलो आंधारि की तुलना किस स्तर तक किया जा सकता है ? नसरूद्दीन ने मलाला के छद्म नाम 'गुल मकई' के माध्यम से ( सनीचर, 3 जनवरी 2009 : मैं डर गई और रफ्तार बढ़ा दी से जुमेरात, 12 मार्च 2009 : जन्नत में हूरें अनीस का इंतजार कर रही हैं तक हिन्दी समय पर) स्वात घाटी में स्त्री पीड़ा को बड़े ही सहज भाव से अनुवाद का सुधरा रूप प्रस्तुत करते हैं |
यह डायरी एन फ्रैंक की डायरी से इस बात में विशेष है कि-यहाँ स्त्री विमर्श में प्रेम का कोई ज्यादा योगदान नहीं अपितु मलाला ने उस घाटी और तालीबानी हकीकत को दुनिया के सामने रखा है | जबकि आलों आंधारि में कश्मीर से कोलकाता गयी लड़की की कहानी है | दूसरे शब्दों में पश्चिमी-एशिया-भारत का एक ऐसा त्रिकोण निर्मित होता है, जिसका अंतिम उद्देश्य एक ही है-स्त्री मुक्ति | कहने का तात्पर्य यही है कि-मलाला स्वयं कहती है-मैं आज उठते ही बहुत ज्यादा खुश थी कि आज स्कूल जाऊँगी। स्कूल गई तो देखा कुछ लड़कियाँ यूनिफार्म और बाज घर के कपड़ों में आई हुई थीं। असेंबली में ज्यादातर लड़कियाँ एक-दूसरे से गले मिल रही थीं और बहुत ज्यादा खुश दिखाई दे रही थीं।(पीर, 30 फरवरी 2009 : स्कूल खुल गए) क्या इस कथन से हम मान लें कि-स्वात घाटी में अमन चैन आ रहा है याकि इस कथन भी तालिबानीकरण की बू आती है | जो भी हो यह डायरी एक ऐसा दस्तावेज है, जो एन फ्रेंक की डायरी से कई मायनों में भारी है |
भारत में स्त्री मुक्ति और स्त्री स्वातंत्र्य की चर्चा अक्सर की जाती रही है | लेकिन पुरूष स्वातंत्र्य और पुरूष शोषण की बात करने में अक्सर कंजूसी बरती जाती है | इसका प्रमाण धारा ३७६ के दुरूपयोग से मिलता है | हमने इसे अपनी आँखों से देखा है | वाकया गाँव के प्रथम व्यक्ति से सम्बंधित है| पूरा गाँव उस व्यक्ति के समर्थन में अभी भी है लेकिन एक औरत ने उन पर आरोप लगाया है कि-अमुक व्यक्ति विगत तीन वर्षों से हमारे साथ सम्बन्ध बना रहा है | बात यहीं तक रहती तो इसे सत्य मानने में कोताही नहीं लेकिन उसने थाना-मजिस्ट्रेट के सामने अलग-अलग बयान दिया है | यहाँ तक कि-उसने ७० हजार रूपये और एक चेन की भी मांग अप्रत्यक्ष रूप से लगाया है |उत्तर प्रदेश पुलिस की बातें निराली है, बिना जाँच लिए इस घटना को सत्य मानकर ३७६ का आरोप तय कर दी | जबकि उस व्यक्ति से दूर-दूर तक उससे कोई सम्बन्ध नहीं | यहाँ तक कि-यह भी जानकारी मिली है कि-यहाँ जेल में इस मुकदमे में कुल ७०० लोग सजा भुगत रहें हैं, जिसमे नब्बे फीसदी पर झूठ-मूठ का आरोप है | क्या बच्चा, क्या जवान, क्या बूढा हर व्यक्ति इस समस्या से जूझ रहा है | कहावत सटीक है-एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है लेकिन जब तालाब का पानी सूख गया हो तो वह क्या कर सकती है | ऐसे ही हमारे समाज के रक्षक ही भक्षक बनकर पीड़ित को और पीड़ा पहुंचाते है तथा अपराधी स्वतन्त्र विचरण करते हैं | नारी की गरिमा और उसकी अस्मिता की पहचान उसकी आबरू से होती है लेकिन क्या यह घटना नये विमर्श की मांग नहीं करती |

महामारी


अकाल के बाद यह
रोग बनकर आती है,
सताती है, जलाती है
रूलाती है, सुलाती है |
दिन को भी रात और
रात को भी दिन बनाती है |
कार्य दिवस में बड़े बाबू को
चमत्कार दिखलाती है |
हाय ! यही महामारी उसे
स्वप्न में भी उठाती है |
गिरता हुआ व्यक्ति भी
ओहदा का ध्यान नहीं रखता
अपना ही पेट भरता है
भरता चला जाता है |
दूसरों का निवाला निगलते-निगलते
राक्षस ही बन जाता है |
यह वही महामारी है जो
सभ्यता को कहीं का नहीं छोडती
शिक्षा में लग जाने से
इंजीनीयर-डाक्टर के फेर में
बेकारी को ही बुलाती |
ओह.....! यही महामारी उसे
असमय बेरोजगार ही बनाती |
गावो-शहरों के बीच
के भेद को भी निताती है
जाति-पात से ऊपर उठाकर
इंसान कहलाने पर भी
विवश उसे कराती है |

०२/०४/२०१३

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

मौसम सुहाना है



मौसम सुहाना है


आँधी-पानी लेकर
बादलों ने कहर बरपाया
धरती की पीड़ा को और बढ़ाया |
लोग झाँक रहे
अपने घर की खिड़की से
सहम गया मन सहम गयी जिंदगी |
कुछ ने कहा-
भई ! वाह क्या कहना
मौसम सुहाना है यही है गहना |
महलों-राजमहलो में
बयार की आवाजाही नहीं
पवन देव तो बसते है
गाँवों औ गलियों में
असर भी छोड़ते है_
मिटाकर भी जिलाते हैं
स्वर्ग में नहीं फिर भी
नरक में रहने को मजबूर भी करते हैं ||

२०/०४/१३

 

न रहा चैन, न रहा सुख ||  


लोग कहते है दिल्ली दिलवालों का शहर है
कहाँ गये दिलवाले, कहाँ गयी दीवानगी
कहाँ गया सुख चैन, कहाँ गयी रवानगी |
अब तो यही कहना मुनासिब है-
दिल्ली दरिंदों का शहर है
अब तो न रहा चैन, न रहा सुख ||

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

लोक साहित्य पर सम्पूर्ण पुस्तक


लोक साहित्य पर सम्पूर्ण पुस्तक-'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं 

(लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )'

लोक साहित्य अछोर क्षितिज में फैला आकाश है-लोकसाहित्य में अटल सागर जैसी गहाराई है, जंगल में पाए जाने वाले पेड़-पौधों की तरह वह अनादी है, उसमें ह्रदय से निकले हुए स्वर है | आत्मा के गीत है, मन की व्यथा-कथा है, भारत की लोक संस्कृति का चित्रपट है | वे साहित्य की अमूल्य निधि है, उनके भीतर हमारा इतिहास झांकता है, वे सही अर्थों में हमारे सामाजिक जीवन के दर्पण, इतिहास शोधक हैं | यदि इसका उपयोग किया जाय तो हमारा इतिहास सजीव, संतुलित, सर्वांगीण बन जाएगा | यह कथन हमारे अग्रज स्वरूप मित्र डा. रावेंद्र कुमार साहू का है जिनके द्वारा संपादित पुस्तक  'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं (लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )' के फ्लैप पर छपा है | पेसिफिक पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से हालिया प्रकाशित इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि-यहाँ एक ही स्थल पर हमें भारतीय सभ्यता में लोक के बिखरे हुए साहित्य  का दिग्दर्शन हो जाता है, वह बुन्देली क्षेत्र का हो, भोजपुरी क्षेत्र का हो, साहित्य के विभिन्न कालों में हो, आदिवासी क्षेत्रों का हो या बघेली क्षेत्र का साहित्य हो |
         रावेंद्र जी ने इसे कुल छ: भागों में विभाजित किया है, जिसका प्राण भाग-२ एवं भाग-३ को माना जा  सकता है क्योंकि इसमें क्रमशः बघेली लोक साहित्य एवं संस्कृति में अभियक्त जीवन चेतना एवं विभिन्न बोलियों में अभिव्यक्त लोक साहित्य एवं संस्कृति का मूल्यांकन विषय को समाहित किया गया है | इसमें ३२ साहित्यकारों ने अपनी लेखनी को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है | संयोग से एक कोने में मुझे भी स्थान देकर रावेंद्र जी ने "भोजपुरी लोकसाहित्य का सौंदर्य और मानवीय मूल्य" को स्थापित कराने में सहयोग दिया है | सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व भी लोक को एवं इसमें निर्मित मौखिक साहित्य को लिखित स्वरूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है | यही कारण है कि यह थोड़ी भारी भरकम(कुल४५७ पृष्ठ ) बन गयी है | मैं हृदय से रावेंद्र जी को बधाई देता हूँ |

 'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं
 (लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )
संपादक-डा. रावेंद्र कुमार साहू
पैसिफिक  पब्लिकेशन, दिल्ली
प्रथम संस्करण-२०१३
ISBN 97893-81630-36-5
मूल्य-1200



बुधवार, 10 अप्रैल 2013

दलित साहित्य का मेनिफेस्टो-शवदाह

दलित साहित्य का मेनिफेस्टो-शवदाह बनाम शवयात्रा

मुद्राराक्षस द्वारा संपादित दलित साहित्य में विशेष "नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ " वास्तव में लाजबाब है |  इस कहानी संग्रह में कुल १४ कहानियां संकलित हैं | लेकिन  इसमें की बातें विशेष है | मैं  सबसे पहली बात तो यही है कि-प्रत्येक कहानी की शुरूआत वक्तव्य से हुई है, जिसमें कहानीकार अपनी काहानियों को कल्पनाजनित यथार्थ ( यदि भीष्म साहनी द्वारा नयी कहानी संग्रह, जो भारतीय ज्ञानपीठ  से छपी है-की भूमिका में दी गयी यथार्थ की नयी परिभाषा को आत्मसात करें तो ) को पृष्ठभूमि प्रदान करने के साथ ही उद्देश्य को भी स्पष्ट करते हैं | यह बात अलग है कि-इसकी पहली कहानी 'घायल शहर की एक बस्ती'(-मोहन दस नेमिस्राय ) मुझे ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकी | लेकिन शवयात्रा (ओम प्रकाश वाल्मीकि) पढकर इसे दलित साहित्य का मेनिफेस्टो कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा है | इसे यदि 'एक फूल की चाह' के साथ जोड़कर पढ़ें तो वास्तव में यथार्थ का नया रूप उजागर होता है | यह बात अलग है कि वहाँ मंदिर प्रवेश की समस्या थी और ज्वर से पीड़ित लड़की की अंतिम इच्छा एक फूल की थी लेकिन यहाँ समस्या को सार्वभौमिक सत्य के रूप में स्वीकार करते हुए स्वयं ओमप्रकाश वाल्मीकि ने माना है कि-कहानी मेरे लिए दहकते रक्त को सुन्न कर देने वाली यातनाएं हैं, जो इतिहास नहीं बन सकीं-वे व्यथा-कथाएँ हैं | इसका प्रमाण हमें कहानी के प्राम्भ से अंत तक मिलता है | सुरजा, संतो, कल्लन और उसकी बेटी सलोनी ही मुख्य पात्र के रूप में हैं जबकि बलराम सिंह यहाँ खलनायक के रूप में उपस्थित हैं, जो बल्हार जाती के लिए पक्के मकान बनाने का विरोध ही नहीं कर रहे हैं अपितु आस-पड़ोस में असहयोग की हिमायत भी कर देते हैं |
                  मनुष्य परिस्थियों का दस होता है |  लेकिन जब वह जब अपने परिवार की स्थिति से घिर जाता है तो उसके सामने केवल एक ही रास्ता बचता है, जिसका चुनाव वह विरले ही करता है  क्योंकि समाज इसकी अनुमति नहीं देता | इस सन्दर्भ में यह कहानी न केवल कल्लन  को घेरे रहती है अपितु वह अपने पिता और समाज में अपने समुदाय का स्थान बनाने के निमित्त ईंट खरीदता है अपितु एक जिम्मेद्दर पुत्र की तरह अपने पिता का  आज्ञाकारी पुत्र भी बनता है | परन्तु यहाँ एक बात थोड़ी खटकती है कि-आधुनिक समाज में दलित, अतिदलित कहा जाने वाला पुत्र भी उत्तर आधुनिक चोला ओढकर अपने समाज, परिवार और उन विपरीत परिस्थियों से मुँह मोड लेता है | जिसका उदाहरण कमोबेश हरेक गाँव में देखने को मिल जाता है | इस कसौटी पर यह कहानी थोड़ी काल्पनिक बन जाती है , जो पाठक वर्ग के अनुरूप ही लिखी जान पड़ती है | लेकिन सलोनी की बीमारी, संतों की सेवा, पिता का कर्तव्य आदि तथ्यों से इसे ऊँचा दर्जा दिया जा सकता है | सबसे बढ़कर शवदाह में महिलाओं का शामिल होना, गाँव का असहयोग आदि सामाजिक परिवर्तन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है |

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