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मंगलवार, 22 जुलाई 2014

सतत संवाद कार्यशाला : एक अनूठा प्रयोग

सतत संवाद कार्यशाला : एक अनूठा प्रयोग

 

एक रपट :-

 

नॅशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली और दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे, बिलासपुर के सौजन्य से आयोजित {१९-२० जुलाई २०१४} इस कार्यशाला में भावी पीढ़ी के साथ साहित्यकारों का सानिध्य अद्भुत रहा | इसमें बाल साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर तथा बच्चों के मनोविज्ञान को साहित्यिक शिखर पर विराजमान कराने वाले दादा {यहाँ के बच्चों में प्रिय} प्रकाश मनु, सुपरिचित कथाकार श्रीमती गीताश्री, श्री गिरीश पंकाज, श्री जय प्रकाश मानस, डा.सुधीर शर्मा तथा नेशनल बुसतत संवाद कार्यशाला क ट्रस्ट के संपादक एवं पुस्तक उन्नयन के छतीसगढ प्रभारी लेखक लालित्य ललित जी की बच्चों के साथ उपस्थिति ने नया एहसास दिलाया | जब बड़े-बड़े लेखकों के साथ बच्चे मिलते हैं तो, उनकी भंगिमाएं तथा वाद-विवाद की शैली सामान्य से सामान्य पाठक को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है | हमारा यह दुर्भाग्य रहा कि-मैं इस कार्यक्रम में दूसरे दिन शामिल हो सका उस समय कार्यक्रम का सचालन स्वयं ललित जी कर रहे थे |
छात्र-शिक्षकों-अभिभावकों से भरा सभागार पूर्णतः साहित्य के रस में सराबोर था , ठीक ऐसे ही समय मेरी उपस्थिति ने हमारे अंदर बैठे कल्पित भावों को खूब जोर से झकझोरा और मैं उस समय अपना उद्बोधन देती गीता श्री जी को सुनकर भावविभोर हो गया | उनका एक ही वाक्य-कविताएं सदियों को जोडती हैं- ने मन के न जाने कितने अंतर्विरोधों को स्वतः समाप्त करने के लिए पर्याप्त था क्योंकि कविताएँ परम्पराओं और आधुनिकता के सामंजस्य से नवीन भावों का संचार करती हैं | उन्होंने नवांकुर साहित्य मनीषियों में काव्य रस को उडेलकर कविता की जो नयी पृष्ठभूमि स्थापित की, वह काबिलेतारीफ रही |
छात्रों से सतत संवाद स्थापित करते हुए जय प्रकाशा मांस जी ने कहा कि-जब कोई लेखक रचनाकर्म में प्रवृत्त होता है, तो उसका लेखन सायास नहीं होता अपितु उसमें अनुभव अपेक्षित होता है | अतः जब हम गाँव में जाते हैं या किसी ऐसे गाँव की कल्पना करते हैं, जहां कोई पोस्ट आफिस नहीं हो, जहाँ मूलभूत सुविधाओं का अभाव हो और वहाँ लोक में निवास करने वाले लोग पीड़ा को भी खुशी-खुशी पीते हों, तो उस गाँव का चित्र भाव और कल्पना से समृद्ध होकर कथा-काव्य के रूप में हमारे सामने उपस्थित होता है | ऐसे परिदृश्य में रचित साहित्य में इतनी क्षमता होती है कि वह सर्वस्व को अंगीकृत करके अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में पूर्णतः सफल होती है | इसके अलावा मानस जी ने स्वयं की कहानी के माध्यम से छात्रों को लेखन के प्रति प्रोत्साहित किया |
भारत की आत्मा गाँवों में निवास करती है लेकिन उन आत्माओं को पुनर्जीवन प्रदान करने का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व हमारे बच्च्चों पर ही है | यही कारण था कि- डा. सुधीर शर्मा जी ने कहा कि-हम चाहें कितने ही वसंत पार कर लें, हमारा बचपना नहीं जाता | उम्र की दहलीज पर हम गर्व करते हुए अनायास ही उपरी आवरण ओढकर युवा, प्रौढ़, वृद्ध कहलाएं लेकिन मन को आत्मिक शक्ति बाल-सुलभ चंचल व्यवहार से ही प्राप्त होती है |(कुछ शब्द हमारे हैं..भाव उनके) लेकिन आज हमारे समाज में नटखट बच्चों का बचपना छिना जा रहा है | यदि आज ९-१० माह के बच्चों को देखा जाय, तो वह विज्ञापन को देखकर रोता है, हँसता है, दूध पीता है | यहाँ तक कि-वह आधुनिक युग के अभिमन्यु की भाँति माँ के गर्भ से ही विज्ञापनों का आशिक बककर जन्म लेता है | अतः लोगों में परिवर्तन बचपन से ही दिखने लगता है, क्योंकि कहा गया है-होनहार बिरवान के होत चिकने पात | यहाँ तक कि-बचपन से बुढापा तक चाँद को देखने, सोचने और समझने का नजरिया भी अलग-अलग हो जाता है | जो चाँद बच्चों के लिए मामा हुआ करता था युवा पूर्व चंदू चाचा बनता है और युवा काल में “मुस्काता चाँद जो धरती पर’(मुक्तिबोध) बनकर प्रेमिका के मुख का दर्शन करता है |
कार्यशाला के केन्द्र में बाल साहित्य के पुरोधा बच्चों के प्रिय प्रकाश मनु जी को सुनना अविस्मारीय रहा | उनकी वाणी में वह मीठास थी, जो ध्वनि तरंगों के माध्यम से सभागार में उपस्थित दर्शक दीर्घा को झंकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी | बकौल मनु जी-आज बहुत सारी बातें कहने का मन है | मैंने बहुत सारे बच्चों का संस्मरण पढ़ा, जिसे जज करना मुश्किल है | इसी समय उन्होंने “पिंटू“ नामक कहानी का पाठ किया | यह कहानी हमें अंदर तक झकझोर दी | इस कहानी का पात्र(बच्चा) एक जूता चोर है, उसे जूता चुराने और उसे पहनकर दिखाने की मजबूरी है लेकिन “कमालपुर के धमाल पम्पाल” को उपस्थित कराकर लेखक ने न केवल पिंटू का ह्रदय परिवर्तित कराया अपितु गरीब-असहाय बच्चों के साथ ही भारत की समस्त सेना(बच्चों) को नैतिकता का पाठ पढ़ाया | कहानी की पहली और अंतिम अनिवार्यता है-कहने की कला | एक मंजे हुए कलाकार की भाँति उन्होंने ऐसी सरलतापूर्वक कथ्य को फेंट दिया कि-यह अंतर करना मुश्किल लग रहा था कि-मनु जी हैं कि साक्षात पिंटू मंच पर कहानी पाठ कर रहा है | प्रतीत हो रहा था कि-वह स्वयं पिंटू के रूप में कभी अमीर के घर पंहुंच जाते हैं कभी वह नया जूता पहनकर गाँव के बच्चों के आगे-आगे दौड़ते हैं तो कभी किसान बनकर पिंटू से संवाद करते हैं और स्वयं धमाल पम्पाल के रूप में ईश्वर बनकर पिंटू को प्रायश्चित कराते हैं | ऐसा लगा जैसे प्रेमचन्द और समकालीन कहानीकारों को फेंटकर एक ऐसा रस तैयार किया गया हैं, जिसे पीकर एक छोटा सा बच्चा भी अमर हो जाय और बड़ा-बूढा भी | साथ ही उत्कृष्ट बाल कविता पर भी कहना न भूले कि-अच्छी बाल कविता वह है, जिसे पढकर या सुनकर दिल की कली खिल जाय | बाल साहित्य की कसौटी इस बात में निहित है कि-जब हम किसी बालक की एक पंक्ति पढ़ें तो हमारे अंदर ऐसी उत्सुकता जग जाय कि-पूरी रचना पढ़े बिना न रह जाय | यह अद्वितीयता है | लेखक जब कहता है तो यह अद्वितीयता आ जाती है | अतः इसे ही लेखन में अनूठापन कहते है, जो लेखंक की अनिवार्य शर्त है तभी रचना अनोखी होती है |
वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज जी से मिलना और उन्हें सुनना भी एक उपलब्धि रही | उन्हें अपने जीवन में बीते पल का स्मरण करते हुए अपने वक्तव्य से छात्रों में नवीन चेतना का संचार किया | इसके साथ ही दो दिवसीय कार्यशाला में समूहवार चयनित कविता-कहानी-यात्रा वृतांत-संस्मरण-रिपोर्ताज का स्वयं साहित्यकारों ने वाचन किया तथा चयनित छात्रों को भी मौक़ा दिया | इसी में गीताश्री जी यह कहने में तनिक भी नहीं हिचकिचाई कि-कंक्रीट के जंगल में कोयल की आवाज सुनने को हम तरस गए हैं | वहीं आज कोयल पर लिखी कविता भावनाओं को झकझोरने वाली रही और लुप्त होती यात्रा साहित्य की विधा पर चिंता व्यक्त करते हुए छात्रा की रचना को पढकर इसे नया जीवन मिलने की उम्मीद भी जतायी एवं कहा कि-यात्रा पर निकलते हुए एक लेखक का प्रकृति को देखने का नजरिया बदल जाता है, उस समय हम पहाड-झरनों-पेड़-पौधों को एक पर्यटक की नजर से नहीं अपितु उस समय हम एक यात्री बनकर स्वयं रचना करते हैं यही यात्रा वृत्तांत होता है |
ललित जी का “आत्मदीपोभवः”, अमिताभ के कालेज में पढ़ने वाली बात और अपने बचपन को याद करते हुए सुखद पलों को भूलने का साहस कैसे जुटा सकता |
अंततः हमने भी थोडा समय उधार लिया और कहा कि-यह एक ऐसा कार्यक्रम था, जो न केवल छात्तीसगढ़ अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष में विशिष्ट रहा | कुल मिलाकर यह कार्यक्रम सतत संवाद के बहाने हिन्दी साहित्य की नयी पौध को खाद-पानी देने तथा उसे जीवंत बनाने का सफलतम प्रयास रहा, जिसका प्रमाण बच्चों के हाव-भाव तथा स्वभाव में स्पष्टतः दृष्टिगोचर हुआ | अब तक के अधिकाँश साहित्यिक समारोहों की अंतिम कड़ी बहुत ही कम उत्साहवर्धक रहती है, जबकि यहाँ आद्योपांत सरसता बरकार रही | 
अतः पूरी टीम को साधुवाद 
21.07.14
‪#‎डॉ‬. मनजीत सिंह

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

सोना रे सोना

सोना रे सोना


सोना का सस्ता होना आर्थिक दृष्टि से कितना उचित है, यह तो समय ही बताएगा | लेकिन माध्यम वर्ग से थोडा ऊपर जीवन-यापन करने वाले परिवारों की चांदी है | बाजार में निवेशक हैरान है, सराफा परेशान हैं | ऐसा भी सुनने में आया है कि-विश्व के कुछ देश (जहाँ सोने की बहुतायत है) अपनी आर्थिक व्यस्था सुदृढ़ कर्ण के लिमित्त सोने को आधार बनाने वाले हैं | भारत सरकार को चाहिए कि-सोने का भंडारण इतना कर ले कि भविष्य में करेंसी जारी करने में असुविधा न हो | खैर काली करेंसी जारी करने वालों को तो यह सलाह भी देना जरूरी नहीं |


मनोरंजन  


वैश्विक प्रभाव तले मनोरंजन प्राप्त करने के तरीकों में आये बदलावों के चलते आम जनजीवन त्रस्त है | चूंकि मनोरंजन समाज के प्रत्येक व्यक्तियों में अलग-अलग रूप में अपना आश्रय लेती रही है | कहीं यह साहित्य को, कहीं सिनेमा को, कहीं खेल को , कहीं भ्रष्टाचार को तो कहीं हवस को व्यक्ति अपना साधन बनाते हुए सुख-दुःख प्राप्त करता है | सभी की यही कोशिश रहती है कि-वह सुख और आनंद ही प्राप्त करे | इससे आगे आनंद सुख पर भारी पड़ता है | सुख और आनंद के इस युद्ध में विजय किसी की भी हो दुखी वही होता है, जिसके पास मनिरंजन के तथाकथित साधनों का अभाव रहता है |

गुरुवार, 11 अप्रैल 2013

लोक साहित्य पर सम्पूर्ण पुस्तक


लोक साहित्य पर सम्पूर्ण पुस्तक-'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं 

(लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )'

लोक साहित्य अछोर क्षितिज में फैला आकाश है-लोकसाहित्य में अटल सागर जैसी गहाराई है, जंगल में पाए जाने वाले पेड़-पौधों की तरह वह अनादी है, उसमें ह्रदय से निकले हुए स्वर है | आत्मा के गीत है, मन की व्यथा-कथा है, भारत की लोक संस्कृति का चित्रपट है | वे साहित्य की अमूल्य निधि है, उनके भीतर हमारा इतिहास झांकता है, वे सही अर्थों में हमारे सामाजिक जीवन के दर्पण, इतिहास शोधक हैं | यदि इसका उपयोग किया जाय तो हमारा इतिहास सजीव, संतुलित, सर्वांगीण बन जाएगा | यह कथन हमारे अग्रज स्वरूप मित्र डा. रावेंद्र कुमार साहू का है जिनके द्वारा संपादित पुस्तक  'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं (लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )' के फ्लैप पर छपा है | पेसिफिक पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से हालिया प्रकाशित इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि-यहाँ एक ही स्थल पर हमें भारतीय सभ्यता में लोक के बिखरे हुए साहित्य  का दिग्दर्शन हो जाता है, वह बुन्देली क्षेत्र का हो, भोजपुरी क्षेत्र का हो, साहित्य के विभिन्न कालों में हो, आदिवासी क्षेत्रों का हो या बघेली क्षेत्र का साहित्य हो |
         रावेंद्र जी ने इसे कुल छ: भागों में विभाजित किया है, जिसका प्राण भाग-२ एवं भाग-३ को माना जा  सकता है क्योंकि इसमें क्रमशः बघेली लोक साहित्य एवं संस्कृति में अभियक्त जीवन चेतना एवं विभिन्न बोलियों में अभिव्यक्त लोक साहित्य एवं संस्कृति का मूल्यांकन विषय को समाहित किया गया है | इसमें ३२ साहित्यकारों ने अपनी लेखनी को नये कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है | संयोग से एक कोने में मुझे भी स्थान देकर रावेंद्र जी ने "भोजपुरी लोकसाहित्य का सौंदर्य और मानवीय मूल्य" को स्थापित कराने में सहयोग दिया है | सम्पूर्ण भारत का प्रतिनिधित्व भी लोक को एवं इसमें निर्मित मौखिक साहित्य को लिखित स्वरूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है | यही कारण है कि यह थोड़ी भारी भरकम(कुल४५७ पृष्ठ ) बन गयी है | मैं हृदय से रावेंद्र जी को बधाई देता हूँ |

 'उधौ  मोंहि ब्रज बिसरत नाहीं
 (लोक साहित्य एवं लोक संस्कृति विमर्श के विविध आयाम )
संपादक-डा. रावेंद्र कुमार साहू
पैसिफिक  पब्लिकेशन, दिल्ली
प्रथम संस्करण-२०१३
ISBN 97893-81630-36-5
मूल्य-1200



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