मंगलवार, 28 मई 2019

अपनी बात

अपनी बात :: गाँव के साथ


हम लोगों के लिए गाँव-शहर की विभाजक रेखा क्षीण है । यही कारण है कि हमउम्र-हमजोली-यारी एवं मद्धिम लोग भी कभी-कभी वाक्  युद्ध को मजबूर भी करते हैं ।परन्तु हम तो ठहरे शुद्ध गवईं। हो सकता है यहाँ की आबोहवा कुछेक तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों को सुगम न लगे क्योंकि वह तुलनात्मक सामाजिक विकास के नकली उद्धारक बनकर नवयुग की नयी विचारधारा हमारे ऊपर थोपते हैं । ये मजबूर करते है लेकिन महसूस नहीं करते ।
परिणामस्वरूप वर्तमान समय "मिलावट युग"  के रूप में अभिहित किया जा सकता है । हरेक वर्ग-वस्त्र-मिट्टी से लेकर आचार-विचार-व्यवहार-देह-मन-महल-बाग-बगीचा और पर्वत-पठार-वन-प्रान्तर जैसे कृत्रिम और प्राकृतिक स्वरूपों में मिलावट ही मिलावट दिखाई देता है । हमारे सम्बन्ध मिलावटी है। हमारे भाव मिलावटी है । प्रभाव मिलावटी है । स्वभाव मिलावटी है । कुल मिलाकर यह मिश्रण नीर-क्षीर विवेकी को भी संशय में डाल देता है ।
उपर्युक्त मिश्रण को सामाजिक स्तर पर हम हरेक परिवार में देख सकते हैं । जैसे हरेक सब्जी, हरेक मिठाई सहित छप्पन भोग की शुद्धता संदेहास्पद है वैसे ही भारत के परिवारों के वर्तमान स्वरूप को आत्मसात किया जा सकता है । एक तरफ शहर का आदमी गाँव के लोगों को कमोबेश मन से तो अछूत ही मानता है परन्तु दूसरी तरफ तंग जीवन व्यतीत करने को मजबूर है । जमीनी हकीकत से दूर दो×दो या तीन×दो के वर्गाकार-आयताकार आधे ईंट की दीवार में भास्कर-प्रभाव सहने को अभिशप्त है । यहाँ न कोई संस्कार है । न नूतन विचार है । न व्यवहार है । न संस्कृति है । एकल परिवार के इन दुष्परिणामो को सहजतापूर्वक गगनचुम्बी इमारतों में बिना ताकझाँक किये भी देखा जा सकता है ।
यही कारण है कि-हमें गाँव पसन्द है लेकिन यहाँ के लोगों में बढ़ते कुसंस्कार घृणा भी पैदा करते हैं । 

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