शुक्रवार, 7 जून 2013

आदिवासी संस्कृति एवं साहित्य में अभिव्यक्त नारी चेतना

आदिवासी संस्कृति एवं साहित्य में अभिव्यक्त नारी चेतना

(आदिवासी संस्कृति एवं साहित्य के परिप्रेक्ष्य में स्त्री विमर्श-विन्ध्य भारती (शोध पत्रिका), ISSN-0976-9986,  वर्ष-2011, (पृष्ठ-138 से 145 तक)सम्पादक-डा. सुधा तिवारी, प्रकाशक-अवधेश प्रताप सिंह विश्वविद्यालय, रीवा(म.प्र.)

-डॉ0 रावेन्द्र कुमार साहू                                                                   -डॉ0 मनजीत सिंह, हिन्दी विभाग 
हिन्दी विभागसहायक प्रध्यापक- हिन्दी विभाग                                 इलाहाबाद विश्वविद्यालय,इलाहाबाद
शास0 स्वशासी महाविद्यालय,सतना,म0प्र0

साहित्य में विगत तीन-चार दशकों से आदिवासी विमर्श को गति प्रदान करने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन इनका मूल वेदों में निहित है, क्योंकि भारत में आर्यांे के आगमन के साथ ही अनार्यों का भी उल्लेख आता है। वस्तुतः यही अनार्य अर्थात् ‘‘दूसरे लोग‘‘ आदिवासी हुए, जिन्हें प्राचीन ग्रंथांे में भील, कोल, किरात, निषाद इत्यादि नामों से अभिहित किया गया। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूिम के तथ्यात्मक आधार की पुष्टि अंग्रेजों के प्रवेश और उनके द्वारा दी गयी संज्ञा ‘‘नेटिव ‘‘ या ‘‘ट्राइब‘‘ के रूप में मिलती है। यह शब्द भारतीय संविधान की उत्पत्ति के उपरांत ‘जनजाति‘ के रूप में प्रचलित हो गया।1 शब्दिक अर्थ में आदिवासी शब्द दो शब्दों ‘आदि‘ और ‘वासी‘ से मिलकर बना है, जिसका मूल अर्थ है-निवासी। संस्कृत ग्रंथो में ‘अत्विका‘ या ‘वनवासी‘2 (जिसे ज्ञानेन्द्र पाण्डेय ने भी पांचजन्य के ‘वीर वनवासी‘ अंक में आदिवासी की वजाय ‘वनवासी‘ कहा है।) भी कहा गया है। जबकि गाँॅंधी जी इन्हें ‘गिरिजन‘ कहा करते थे। सभ्यता निर्माताओं ने अंग्रेजी शब्द ‘ट्राइब‘ के मूल लैटिन शब्द ‘ट्राइबस‘ के रूप में व्यक्त किया है, जिसका प्रयोग रोमन राज्य में मूल त्रिपक्षीय जातीय विभाजन के लिए होता है। अनेक नृविज्ञानी  इसका प्रयोग ‘कुटुंब‘ के रूप में किया है।
प्रसंगतः रेमन्ड फर्थ का कहना है कि, ‘‘जनजाति एक ही सांस्कृतिक शृंखला का मानव समूह ह,ै जो साधारणतः एक ही भू-खंड पर रहता है, एक भाषा-भाषी है तथा एक ही प्रकार की परंपराओं एवं संस्थाओं का पालन करता है और एक ही सरकार के प्रति उत्तरदायी होता है।3 जबकि डी.एन.मजूमदार ने ‘‘जनजाति‘‘ को परिवारों का संकलन कहा है, जिसका अपना एक सामान्य नाम होता है, जिसके सदस्य एक निश्चित भू-भाग पर रहते हैं, सामान्य भाषा बोलते हैं, विवाह, व्यवसाय या उद्योग के विषय में कुछ निषेधों का पालन करते हैं तथा एक सुनियोजित आदान-प्रदान की व्यवस्था का विकास करते हैं। इस प्रकार इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया के अनुसार-‘‘जनजाति ऐसे परिवारों को सकंलन है। जिसका एक सामान्य नाम है, सामान्य भाषा है तथा जो सामान्य भू-भाग में बसे हुए अथवा उनमें बसे होने का दावा करते हैं तथा वे प्रायः अन्तर्विवाही नहीं होते, चाहे पहले ऐसी प्रथा उनमें पायी जाती रही हो।‘‘4 इस प्रकार आदिवासी कहने से एक ऐसे परिवार या समूह का बोध होता है, जिनकी स्व की भाषा, संस्कृति, एक सुनिश्चित भू-भाग होता है, जिसमें वे परम्परागत विधि-विधानों से परिपूर्ण ‘स्वतंत्र सुरक्षात्मक संगठन‘ के जरिये अपने समाज का संचालन करने में समर्थ होते है।
आदिवासी समुदाय न केवल भारतीय अवधारणा में है अपितु यह विदेशी मानसिंकता की भी उपज है क्योंकि वैश्विक स्तर पर वाइकिंग, गोथ और वैंडल (यूरोप), स्काइथियन तथा मंगोल (एशिया) एवं संयुक्त राज्य अमेंरिका के ‘नेटिव‘ भी बेहद चतुर, विनाशक और वर्चस्व के प्रतीक रहे। भारत के आदिवासी, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान , गजरात, आन्ध प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यक तथा पूर्वोत्तर राज्यों में बहुसंख्यक है। इन पूर्वोत्तर राज्यों में गुरूंग, लिंबू, लेपचा, आका, डाफला, अबोर, मिरी, मिशमी, सिंगपी, मिकिर, राम, कवारी, गारो, खासी, नागा, कुकी, लुसाई, चकमा इत्यादि प्रसिद्ध हैं जबकि संथाल, मुंडा, उरांव, हो, भूमिज, खडि़या, बिरहोर, जुआग, खोंड, सवरा, गांेड़, भील, बैगा, कोरकू, कमार इत्यादि मध्य क्षेत्र में एवं भील, ठाकुर, कटकरी आदि (पश्चिमी क्षेत्र में) तथा चेंचू, कोंडा, रेड्डी, राजगांेड, कोया, कोलाम, कोटा, कुरूंबा, बडागा, टोडा, काडर, मलायन, मुशुवन, उराली, कनिक्कर इत्यादि दक्षिण क्षेत्र में निवास करते हैं।
यद्यपि इन आदिवासियों की सांस्कृतिक परंपरा भिन्न प्रतीत होती हुई भारतीय संस्कृति के रूप में प्रचलित है लेकिन कतिपय विधि-विधान हमें आधुनिक स्वरूप निर्धारित करने में सहायक है। इसी कारण समसामयिक आर्थिक शक्तियों तथा सामाजिक प्रभावों के कारण भारतीय समाज के इन विभिन्न अंगों की दूरी अब क्रमशः कम हो रही है। लेकिन यहॉं प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि- आदिवासी समाज शेष भारतीय समाज से भिन्न क्यों है ? इसका सहज ही उत्तर दिया जा सकता है कि, ‘‘आदिवासी समाज का अन्तर्विरोध उन विसंगतियों का परिणाम है, जिनमें धार्मिक अंधविश्वास एवं सामाजिक कुप्रथाओं का विशेष योगदान है।‘‘ इन परिस्थितियों का विशेष वर्णन निर्मला पुतुल ने अपनी कविताअें में किया है। उन्होंनें आदिवासियों की खराब दशा, कुरीतियों के कारण बिगड़ती स्थिति, थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरूष वर्चस्व, स्वार्थवश पर्यावारण की हानि इत्यादि का सहज भाव से व्याख्या की है।5 इसी प्रकार आयता उरॉंव, सृष्टिधर, घासीराम, गौरंगिया, बुधुबाबु, रसिका, कानूराम देवगन, मेनेस राम ओडिया, रघुनाथ मुर्मू, प्यारा केरकेट्टा, इग्नेस बेक, जयपाल सिंह मुण्डा, लको बोदरा, नुअस केरकेट्टा  इत्यादि क्षेत्रीय लोक साहित्यकारों नें आदिवासियों को सामाजिक सांस्कृतिक पहचान दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
यदि हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में विचार करें तब विजय राघव रेड्डी के लेख  ‘आदिवासी साहित्य: विविध परिदृश्य‘ का स्मरण लाजमी है। रेड्डी जी ने लिपि की अनुपलब्धता और वाचिक शैली की प्रधानता को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए आदिवासी साहित्य को लोा साहित्य की श्रेणी में स्थान प्रदान कराते हुए, कल्पना की बजाय परिवेशगत यथार्थ को महत्व प्रदान किया है।6 क्योंकि इसमें उनकी परंपराएॅं, संस्कार, प्राकृतिक शोभा, सुख-दुख, आचार-विचार , रीति रिवाज, प्रतिबिम्बित ही नहीं होते प्रत्युत उनकी पारंपरिक सोच, मिथक व मूल्य भी व्यक्त होते है। अतः अनका अंतिम रूप से प्राप्त साहित्य भावनाओं से भरा होता है, जिनकी संवेदनाएंॅं यथार्थ का स्वरूप ग्रहण करती है। ऐसे साहित्य को ‘सबऑल्टर्न लिट्रेचर नाम दिया गया, जिसका अर्थ होता है- अधीनस्थ, मातहत, गौण, महत्वहीन, घटिया, निकृष्ट, अधोवर्ती, निम्न इत्यादि ।7 लेकिन क्या इस प्रकार के साहित्य को हासिए पर रखकर आदिवासी-नारीवादी, अल्पसंख्यक या दलितवादी विमर्श को गति मिल सकता है ? यदि इस प्रकार  के साहित्य को लोक साहित्य से जोडं़े तों सारे अन्तर्विरोध समाप्त हो जाते है।
अतः आदिवासी अस्मिता की मुख्य अभिव्यक्ति की पहचान समाज में नारी चिन्तन को रूप  प्रदान करने में निहित है। भले ही आदिवासी समाज वैश्वीकरण के आइने में अपना रूप ग्रहण नहीं कर पाता लेकिन महिला सशक्तिकरण की नीति उन्हें एक दरजा ऊपर स्थान प्राप्त कराने में सक्षम है। इस संदर्भ में संस्कृत की यह उक्ति सार्थक है कि, ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता‘ अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है वहॉंँ देवता रमण करते हैं। यदि शेष भारत मे नारियों के प्रति क्रांतिकारी बदलाव आधुनिक या कि उत्तर आधुनिक समाज की देन है तब आदिवासी समाज में यह परम्परागत उत्स के रूप में प्राप्त है। जब एक तरफ भूमंडलीकरण के दौर में सामंती विचारधारा की धज्जियॉंँ उड़ाती मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, उषाप्रियवंदा, मन्नू भंडारी इत्यादि नारी लेखिकाएॅंँ है,  तो दूसरी तरफ निर्मला पुतुल की यह कविता है, जिसमें पुरूष मानसिकता की पोल खुल जाती है- ‘‘क्या हॅूँ मैं तुम्हारे लिए/एक तकिया/कि कहीं से थका-मॉँदा आया/और सिर टिका दिया/कोई खँूूॅटी/कि ऊब उदासी थकान से भरी/कमीज उतारकर टॉँग दी/या आँॅंगन में तनी अरगनी/कि घर-घर के कपड़े लाद दिए/कोई घर/कि सुबह निकला/शाम लौट आया ?‘‘8
अतः आदिवासी साहित्य का सकारात्मक पहलू नारी संबंधी विचारो में दृष्टिगत होता है क्योंकि नारियों के प्रति उनका दृष्टिकोण समाज एवं संस्कृति में स्थान निर्धारित करते हुए वैश्विक स्तर पर टक्कर लेने के लिए पर्याप्त है। भले ही आदिवासी नारी पुरूष-प्रधान समाज का शिकार रही है, जिसमें उनकी आवधारणा इस रूप में स्पष्ट हो सकती है कि- पुरूष के टिकने के लिए स्त्री शायद ‘घर‘ हो सकती है, लेकिन स्त्री का अपना घर कहाँॅं ? क्या उसका अपना कोई घर है भी ? लेकिन निर्मला पुतुल ‘अपने घर की तलाश में‘ शीर्षक कविता के माध्यम से इस यक्ष प्रश्न की तलाश करती हुई कुछ इस प्रकार स्त्री की पीड़ा व्यक्त करती है कि -‘अदर समेट पूरा का पूरा घर, मैं बिखरी हूॅँ पूरे घर में/पर यह घर मेरा नही है ...........कही कोई मेरा घर नही होता/बल्कि मै हँॅू स्वयं एक घर/जहॉंँ रहते हैं लोक निर्लिप्त/गर्भ से लेकर बिस्तर तक के बीच/कई-कई रूपों में/............भागती/तलाश रही हँॅू सदियो से निरंतर/.........। इस प्रक्रिया में आदिवासी समाज और उसमें विकल स्त्रीमन अभी भी व्याकुल है। यदि एकांत श्रीवास्तव के लेख ‘तब से आज तक स्त्री‘ के वक्तव्य को व्यक्त करने का साहस जुटाता हँूॅ तो सहज ही उस मानसिक गुलामी को सलामी देने की प्रवृत्ति को बल प्रदान होता है, उनका कथन प्रसंगतः दृष्टव्य है कि, ‘‘कोई भी आन्दोलन, कोई भी नारा और कोई भी कानूनी अधिकार स्त्री को केवल एक झूठा आश्वासन भर दे सकता है और झूठी सुरक्षा भावना भी, लेकिन इससे उसके जीवन का अधंकार खत्म नहीं होता। जन्म के बाद से ही स्त्री का सहज, स्वाभाविक विकास तभी हो सकता है, जब इस पुरूष प्रधान समाज के घर-परिवार में और लोगों के हृदय में एक स्वतंत्र स्त्री की मजबूत और सम्मानजनक छवि बने। कानून यहॉंँ केवल सहायता कर सकता है। स्त्री के प्रति घर -परिवार और समाज के दृष्टिकोण को नहीं बदल सकता है। बहुत हद तक यह काम शिक्षा और साहित्य के द्वारा किया जा सकता है और किया भी जाता है।‘‘9
अतः आदिवासी संस्कृति की अंतर्धारा में भी नारी संवदेना की मार्मिक अभिव्यक्ति है। नारी का आर्थिक रूप से पुरूष पर निर्भर होना, उसकी सामाजिक दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण है, यह तथ्य किसी न किसी रूप में उनके सम्पूर्ण साहित्य में विद्यमान है। ऐसे तो आदिवासी स्त्रियों की स्वंतत्रता और स्वच्छन्दता के मिथक और भ्रम का प्रचार खूब किया जाता रहा है लेकिन उनके समाज के भीतर भी कुछ ऐसे कड़े नियम और बटवारे हैं जो स्त्री को पुरूष से कमतर महसूस कराने के लिए गढे़ गए हैं। लेकिन कुछेक अपवाद आधुनिक भारतीय संस्कृति के विपरीत वैदिक परंपरा का स्मरण कराते है, जैसे -‘वर चुनने की स्वतंत्रता‘। इसमें वह न तो दंडित होती है और न ही दोषी करार दी जाती हैं।10 उनके यहाँ प्रचलित ‘घोटलू प्रथा‘ में वैदिक सस्कृति की  तरह एक प्रकार  के प्रशिक्षण स्थल का बोध होता है, जिसमें लड़के-लड़कियांँ साथ-साथ प्रशिक्षण ,  प्राप्त करते थे। यह बहुत कुछ ‘युवागृह‘ की तरह काम करता है। इसलिए भारत की अन्य स्त्रियों के विपरीत आदिवासी लडकियॉंँ स्वतत्रंतापूर्वक अपनी रजामंदी से विवाह करती थी, इस प्रथा में उनका प्रणय निवेदन प्रमुख है। इनका प्रमाण हमें पूर्वोत्तर राज्य मिजोरम के दक्षिण पश्चिम सिरे पर निवास करने वाले ‘चकमा‘ के प्रणय गीतों से मिल जाता है। चकमा बौद्ध होते है और ये मंगोल प्रजाति के आदिवासी है-उनका एक प्रणय गीत हमारे इस कथन को सिद्ध करने में सहायक है- ‘नदी नाले और ताल-तलैया भर जाने से जैसे मछलियाँॅं खुशी से नाच उठती है, मेरी सजनी! वैसे ही तेरे हाथ से पान खाकर मेरा दिल नाचने लगता है‘, ‘जैसे पहाड़ी झरनों में मछलियॉँ खरपतवार के बिना जिंदा नहीं रह सकती ओ  मेरे प्रिये! वैसे ही तुझे देखे बिना मै एक पल भी जिंदा नहीं रह सकता।11 इसी प्रकार अरूणाचल प्रदेश के सियाङ जिले में निवास करने वाली आदि जनजाति का प्रणयगीत प्रसिद्ध है-
        रोम-रोम में बसकर प्रिय
        उस पार खड़े हो
        पर मेरे मन में बहुत निकट
        तुम दूर नहीं हो
        कोई अवरोध नहीं आ सकता
        हमारे मिलन में
        प्रेम हमारा शाश्वत और अमर है। 
इस प्रकार भारत का पूर्वोत्तर राज्य शेष भारत से भिन्न परंपरा को पल्लवित करता रहा है क्योंकि ‘मिजो‘ (मिजोरम की आवास भूमि) तथा ‘तांखुल समुदाय‘ (मणिपुर के पूर्वी दिशा में उखरूल जिले में निवास करने वाले) हमारे इसी कथन के साक्षी है । ‘तांखुल समुदाय‘ में अविवाहित लड़के-लडकियों के लिए बना शयनागार एवं परस्पर मिलने और विवाह तय करने की सुविधा उपर्युक्त तथ्य को सिद्ध करने में सहायक। इस संदर्भ में वियोग-संयोग की झॉंँकी निम्न कविता के माध्यम से बिम्बित होती है-‘‘ओह ! यह मेरा बुलावा है/बाँसुरी की आवाज आ रही है/उसके शयनागार से/मेरे अंदर वह प्रतिध्वनि गुज रही है/ हॉंँ एक साल पूरे एक साल तक/तुम्हें आयी नहीं याद मेरी/अब आए हो यहाँ /अब होगा सही मिलन।‘‘12 बाँसुरी की आवाज और नायिका की व्यथा का वर्णन हिन्दी साहित्य के कृष्ण भक्ति का काव्य का स्मरण कराता है। 
आदिवासी संस्कृति में उपर्युक्त स्थिति का वर्णन अपवादस्वरूप प्राप्त होता है, क्योंकि नारीवादी विमर्श में कुछ कड़े नियम उनकी विकृत मानसिकता को इंगित करते है-जैसे संपत्ति में हिस्सेदारी के संबंध में पुरूष वर्चस्व अभी भी कायम है। यह स्थिति सवर्ण स्त्री की पीड़ा व दर्द को व्यक्त करती है, जो लगभग सभी भारतीय भाषाओं में व्याप्त है। कुछ आदिवासी स्त्रियों की स्थिति इससे भी बदतर है। इस परिस्थिति का आकलन करते हुए विजय राघव रेड्डी जी ने स्त्रीवादियों के कथन को उद्घृत करते हुए कहा है कि, ‘‘पुरूषाधिपत्य से लाखों स्त्रियाँॅं दबी पड़ी हुई है। इनको केन्द्र में रखकर इनकी विमुक्ति के लिए जो कविताएंँ लिखी जाती ह,ै वे स्त्रीवादी कविताएँॅ है। लिंग-विवक्षा अर्थात् समाज में पुरूष का सम्मान और स्त्री का अपमान तथा लिंग-विभेदन अर्थात् समाज में पुरूष की भूमिका को श्रेष्ठ व महत्वपूर्ण और स्त्री भूमिका को हीन व महत्वहीन आंके जाने की अवधारणा को लेकर स्त्रीवादी साहित्य की विषयवस्तु का ताना बाना बुना हुआ है।‘‘ इस प्रसंग में सवर्ण नारी की स्थिति को दलित नारी की स्थिति से भिन्न मानते हुए उनकी परिस्थिति का वर्णन करते है,जिसमें आदिवासी नारी के हृदय की अंतहीन पीड़ा व्यंजित होती है। आदिवासियों की जागरूकता और उनकी पीड़ा का वर्णन उनके साहित्यों में आसानी से मिल जाता है। निर्मला पुतुल की कविता समाज के उन लोगांे के लिए ब्रह्मास्त्र का काम कर रही है, जो नारी के प्रति दोहरा चरित्र निजात करके पीड़ा को आंमत्रित करते है-‘और ये वे लोग है जो ........‘ कविता में पुरूष प्रधान समाज की पोल खोलती नारी का अंतर्मन व्याप्त है क्योंकि ‘ये वे लोग है जो मुझे देख/नॉँक भौं सिकोड़ते है/और गोरी चमड़ी से ढके चलते है। .............हमारे नाम पर लेकर-/गटक जाते है हमारे हिस्से का समुद्र।/जो मुँहं पर /करते हैं मेरी बड़ाई/और पीठ पीछे की/फुसफुसाहटों में देते है/बदनाम और बदचलन औरतों की सज्ञा।। .................और हमारी ही जमीन पर/खड़े होकर पूछते हैं हम से हमारी औकात!/‘ और अंत में इस कविता की नियताप्ति ‘कविता में भी देह के तलाश से होती है।‘13
आदिवासी साहित्य में नारी विमर्श को प्रमुखता से महत्व प्रदान करके पीड़ा को क्रांतिकारी स्वरूप देकर व्यक्त करने वाली कवयित्रियों में निर्मला जी के अतिरिक्त ‘खडि़या भाषा‘ की ‘वंदना टेट‘े का सफलतम प्रयास भी सराहनीय है। वंदना टेटे ने न केवल नारी आंदोलन के माध्यम से मुक्ति की कामना की है अपितु सामुदायिक विकास कार्यक्रमों के माध्यम से आदिवासी संस्कृति को पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। ‘औरत‘ नाम से हिन्दी में अनुवादित कविता इन्हीं मानसिकताओं की पोल खोलती नजर आ रही है और औरतों को पुरूषो के विरूद्ध संघर्ष हेतु मोर्चा का आह्वान करती है-‘‘कई-कई मोर्चे पर खड़ी/लड़ रही औरत।/भीड़ में अकेली, अनवरत। थकती-टूटती/फिर मजबूर करती खुद को खुद से/खेतों, खलिहानों में/जंगल मरूभूमि में/घर में ऑँगन में।।/ तुम्हारी खींची लक्ष्मणरेखा/के खिलाफ/उसने बो दिये है संघर्ष बीज/और पिरो दिये है मधुर गीत/हताश होती है और उलाहाने देती/तुम्हारी नफरत भरी अवाज को/बना लिया है/उसने अपनी ताकत।‘‘14 इनके आलावा डॉं0 मंजू ज्योस्सा की कविता ‘विवाह‘ भी उल्लेखनीय है क्योंकि उन्होने  ‘नागपुरियॉ‘ लड़की के माध्यम से एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व कराया है, जिनका दामन माँॅं की ममता से उज्ज्वल रहता है और विवाह के नाम का भय उसे अंदर तक झकझोंर देता है। इसका प्रमाण हमें कुछ इस प्रकार प्रस्तुत कर सकते है कि- ‘‘मॉंँ, पिता मेरी शादी मत करना क्योंकि मैनें ‘बुधनी‘ के जीवन  को देखा, वह रोज सबेरे भात पकाकर, बाल-बच्चे संभालकर, खेत में काम करती हैं। उसका पति हमेशा उसे प्रताडि़त करता है। अतः मॉंँ मुझे पराये घर न भेजना, मैं अपने भाई की तरह कमाऊॅंँगी। इतना ही नही ‘मंगरी‘ की जिदंगी उससे भी बदतर है, वह प्रातः घर के काम से निवृत्त होकर बच्चों के पालन-पोषण के लिए बॉँध पर काम करने जाती है, उसके पास संपत्ति के नाम पर कुछ नही, जबकि उसका उदंड पति लात मारकर, हंडि़या पीता है, मॉंँ मुझे कुएँॅ मंे ढकेल देना लेकिन शादी मत करना। इससे खराब स्थिति ‘सोमरी‘ की है क्योंकि उसे हर वर्ष संतान सुख भोगना पड़ता है उसका रसिक पति चरित्रहीन है, निर्लज्ज है। और अंत में हताश होकर कहती है कि-मॉंँ भले ही, मुझे मार डालना पर, मेरा व्याह मत करना।‘‘15
आदिवासी नारी का यथार्थ चित्रण उपर्युक्त उद्धरणों से सहज ही स्पष्ट हो जाता है भले ही एक तरफ लडकियाँॅं विवाह हेतु वर को चुनने के लिए स्वतंत्र हो लेकिन उनकी वास्तविक स्थित यही है। पुरूष के नाममात्र से भयातुर समाज का यह भाग आज भी मुक्ति की कामना हेतु विलाप कर रहा है। वस्तुतः आदिवासी साहित्य की प्राप्ति की सुगमता और इन्हें व्यापक स्तर पर पहँुॅचाना अपेक्षित है जो अनुवाद के माध्यम से ही संभव है। यदि दक्षिण, पश्चिम, मध्य और पूवात्तर भारत में रचित आदिवासी साहित्य का हिन्दी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद करके सार्वजनिक किया जाय तो नारी हृदय की व्यथित पीड़ा का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस प्रकार साहित्य और भाषा के द्वारा आदिवासी जन की वास्तविक पहचान तथा प्रासंगिक स्थिति का एहसास हो सकता है क्योंकि नामवर सिंह ने भी कहा है कि ‘कविता किसी साहित्य की पहचान होती है जो कि वो जो बोलता है उसकी भाषा क्या है ? किस भाषा में बात करता हैं।‘‘16 इस प्रकार नारी मुक्ति आंदोलन को बल तभी मिलेगा जब परिस्थितिवश इस दृष्टि से परखते हुए उनकी संवेदनाओं को संपूर्ण भारतीय परिवेश में व्याप्त कराएगें। इस मुद्दे पर परम्परा , संस्कृति और समाज के भीतर पुरूष समाज से जिरह करते हुए समाजवादी विचारक लोहिया कें विचार उन आदिवासी नारियों के हृदय की पीड़ा को भी कम करने में सक्षम है क्योंकि उन्होनें समाज को आगाह करते हुए कहा था कि, ‘‘किसको पंसद करोगे। ऐसी औरत पंसद करोगे जो आपके प्रति अपना प्रेम, अपनी भक्ति, अपना आदर आपके मरने के बाद आपके शरीर के साथ या शरीर के बिना जलकर दिखाये या ऐसी औरत पसंद करोगे, जो आपके साथ-साथ या आगे-पीछे देश की रक्षा करते हुए खुद अलग से मरे ? ........... नारी को गठरी नहीं बनाना है परन्तु नारी को इतना स्वंय काबिल होना चाहिए कि वक्त पर पुरूष को गठरी बनाकर अपने साथ ले सके। 
दरअसल आदिवासी स्त्रियों पर कड़े नियम संपत्ति में हिस्सेदारी को लेकर है, इसलिए जनजातीय संस्कृति में महिला की स्थिति जानने के लिए उनकी पुरातन एवं आधुनिक स्थिति का अभिज्ञान आवश्यक है। वैसे तो कई आदिवासी समाज में मातृसत्ता विद्यमान है लेकिन अधिकांशतः जातियाँ पितृसत्तात्मक व्यवस्था में विश्वास करती है, भले ही अनेक जगह सत्ता नाममात्र के लिए महिला के अधीन हो, लेकिन वास्तविकता पुरूष वर्चस्व के रूप में ही कायम है। प्रारंभिक समय में ‘समूह‘ के रूप में रहने से उपर्युक्त समस्या नगण्य थीं । उस समय जनजातियों के पितृप्रधान समाज में भी लड़कियाँॅं जब तक चाहे रह सकती थी। पति की मृत्यु के उपरांत भी उसकी जिम्मेदारी पिता या भाई की होती थी। जबकि हिस्सेदारी का प्रश्न ही नहीं था। अतः जंगल में निवास करने वाली जनजातियॉंँ स्वतंत्रतापूर्वक जीवन यापन करती थी। सच तो यह है कि आदिवासी स्त्रियॉंँ पुरूषांे से ज्यादा मेहनती थी लेकिन कालांतर में अंग्रेजों के आगमन और उनकी ‘फूट डालो और राज करो‘ की कारगर नीति ने आदिवासी समाज में सामंतवादी प्रवृत्ति को स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस समय जमींदारी प्रथा, भूमि-अधिग्रहण आदि बुराईयों ने अपना पॉंँच जमाना शुरू कर दिया । इस परिस्थिति में आदिवासी मुखिया या मॉँझी ने जमीन को अपने नाम करने में कोई कसर नही छोड़ी धीरे-धीरे उस अंतहीन शोषण की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी जिनका शिकार आदिवासी स्त्रियाँॅ हुई।
तदन्तर समूहिकता की बजाय वर्चस्ववादी एक नई प्रवृत्ति के लिए मार्ग प्रशस्त हुआ और तब से लेकर आज तक नारी अन्याय की प्रतिमूर्ति के रूप में स्थापित होती चली गयी, जिसका वर्णन बिटिया मुर्मु ने कुछ इस प्रकार किया है कि, ‘‘स्त्री और पुरूष की शारीरिक बनावट के आधार पर काम में बटवारा समझ में आ सकता है, लेकिन आदिवासी पुरूष समाज ने कार्य का बटवारा शारीरिक बनावट या क्षमता के अधार पर न करके, स्त्री पर अधिकार जताने के दृष्टिकोण से, कड़े-कड़े नियम-कानून बनाकर उन्हें कुछ कामांे से वर्जित कर दिया, जैसे-हल चलाना, घर का छप्पर छाना या धनुष छूना अर्थात् जमीन और घर की परिभाषा में संपत्ति के प्रतीक है, पर आदिवासी पुरूष ही समाज का अधिकारी रहे हैं।‘17  इस संदर्भ में ‘अंगामी नागा समाज‘ में औरतों की वर्तमान स्थिति उल्लेखनीय है, क्योंकि ये औरतें कानूनी रूप से संपत्ति की अधिकारिणी नहीं होती हैं लेकिन घरेलू और व्यवहारिक स्थलों पर उनका महत्वपूर्ण स्थान होता है।18 लेकिन पैतृक संपत्ति में अधिकारी की मांग आदिवसी समाज में जोरों पर ह,ै जिसकी गँॅूज सुप्रीम कोर्ट तक सुनाई पड़ी।
आदिवासी पूर्वोत्तर भारत में सर्वाधिक मजबूत कड़ी के रूप में अपना प्रतिनिधित्व करते है, जहॉंँ मिशाल के तौर पर स्त्री-पुरूष में समानता विद्यमान है। वहॉंँ के खासी, गारो, बोडो तथा मिजो समाज में पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाया जाता है। खासी जनजाति का सामाजिक संगठन मातृसत्तात्मक सिद्धांत पर आधारित है। खासी कई गोत्रों में विभक्त है। प्रत्येक की उत्पत्ति किसी महिला पूर्वजों के नाम से  संबधित रहती है। खासी ऐसी महिला की पूजा करते है। गोत्र को खासी भाषा में ‘शिकुर‘ और उसके सदस्यों को ‘‘का लाकेई‘‘ की संज्ञा दी गयी है।19 प्रत्येक शिकुर परिवार में विभक्त होता है। पुत्रियॉंँ, उसकी मॉंँ, सभी एक परिवार और मकान में रहते है। शादी के बाद पति ही अपनी पत्नी के घर रहने जाता है। परिवार की संपत्ति की उत्तराधिकारी गारो की भाँंति पुत्री ही होती है। परन्तु गारो जनजाति में माता-पिता की इच्छानुसार यह विधान प्रचलित है, जिसे ‘‘का खछुह‘‘ कहा जाता है।20 यह स्थिति समाज में महिलाओं को एक दरजा ऊपर स्थान प्रदान करती है यहाँ तक कि धार्मिक उत्सवों, परिवार के अन्य निर्णयों में पुत्री को महत्व देना, इसी कथन को सिद्ध करने में सहायक है। परंन्तु इसका अर्थ यह नही कि समाज में औरतों को एकाधिकार प्राप्त हो। वस्तुंतः पिता ही परिवार का मुखिया होता है। इसके अतिरिक्त विधवा-विवाह की मनाही, तलाक प्रथा का प्रचलित होना तथा गोद लेने की प्रथा का प्रचलन, सामाजिक स्वरूप को अधिक संबल प्रदान करता है, जिससे स्त्रियॉंँ अपने हक के निमित्त क्रांति करने का अधिकार रख सकती है।
यदि ‘अंगामी नागा जनजाति‘ की स्त्रियों पर विहंगम दृष्टि डालते है तब वहॉंँ प्रत्येक दृष्टिकोण से स्त्री अपने पति की सहयोगिनी है और प्रत्येक क्षेत्र में दोनो मिलकर काम करते हैं। आर्थिक मामलों में एक-दूसरे की सहायता करते है, कन्या-मूल्य, आधुनिक दहेज प्रथा का पूरक है। नैनीताल के तराई में फैली ‘थारू जनजाति‘ में महिलाओं की स्थिति का ब्यौरा वहॉंँ प्रचलित विवाह के प्रकारों से मिलता है क्योंकि स्वभाव से, स्त्रीभक्त, परंपरावादी रूढि़वादी और अंधविश्वासी प्रतीत होते है। इनके विवाह अन्य जनजातियों से अलग है। वहाँॅं ‘खासी विवाह‘ या ‘धर्म विवाह‘, ‘खर्चा विवाह‘, ‘चुटकुटा‘, ‘उखरा विवाह‘ या ‘प्रेमविवाह‘, ‘पति-भ्राता विवाह‘ तथा ‘साली विवाह‘ प्रचलित हैं। ‘खासी विवाह‘ में विवाह का प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से रखा जाना तथा वधू पक्ष द्वारा इच्छानुसार चयन करना, ‘ब्रहम विवाह‘ के समकक्ष है । इसके अतिरिक्त विवाहों में वधू-मूल्य देना, पुनर्विवाह का प्रचलन आज के सामाजिक स्तरीकरण ओर नारी पीड़ा को कमतर करने में सहायक है।
हिन्दी साहित्य में पूवोत्तर इलाकों को प्रस्तुत करने में अग्रणी अज्ञेय ने अपने संस्मरण तथा कहानियों के माध्यम से समाज, संस्कृति, प्रकृति परंम्परा और मानसिकताओं की मौजूदगी दर्ज करायी है। इनमें ‘जयदोल‘, ‘हीली-बोन की बतखे‘, ‘मेजर चौधरी की वापसी‘, ‘नंगा पर्वत की एक घटना‘ तथा ‘नीली हंसी‘ जैसी कहानियाँॅं और तीन संस्मरण ‘परशुराम से तुरखम‘, ‘मॉँझुली‘ और ‘बहता पानी निर्मला‘ आलोच्य युग में विवेच्य है। उन्होंने इनकी संस्कृति में पुराण एवं नदी सभ्यता को आधार बनाया है, क्योंकि नदी अपने आप में एक संस्कृति होती है और अपने आसपास रहने वाले लोगांे की जीवन-पद्धति निर्धारित करती है। उन लोगांे के बाहरी रहन-सहन को ही प्रभावित नहीं करती अपितु उनकी संपूर्ण मनोभूमिका के निर्माण में योगदान देती है। ‘गंगायाम् घोषः जैसी उक्ति अथवा सिंधुं या नाइल जैसी नदी सभ्यताएॅंँ इसका प्रमाण है। ब्रह्मपुत्र बहुत विशाल नदी है, जिसमें अनेक द्वीप है इनमें से एक है मॉँझुली ।21 इस प्रकार अज्ञेय ने ब्रह्मपुत्र नदी के आस-पास निवास करने वाले लोगो, जनजातियो का जो लेखा-जोखा अपने संस्मरण में प्रस्तुत किया है, वह आदिवासी साहित्य और संस्कृति के विकास की गाथा का बयान करता है। इन संस्मरणों में ‘होली बेन की बतखें‘ खासी समाज के स्त्री प्रधान जाति संगठन, समाजिक सत्ता में उसका अनुशासन, कनिष्ठतम लड़की को उत्तराधिकार का नियम, खासिया घरो की बनावट,नाड्.-क्रेम के नृत्योत्सव, प्रकृति उपसाना, जनजातीय लोगों की वन्य पशुओं-पक्षियों के प्रति संवेदना आदि जैसी पूर्वी जीवन की अनेक बारीकियों से परिचय कराती है।22 और उनका उत्तर औपनिवेशिक परंपरा से जोड़ना भी एक सार्थक प्रयास कहा जा सकता है।
इस भूमंडलीकरण के दौर में एक तरफ भारतीय संस्कृति की वैश्विक पहचान बनाने में स्त्रीयॉं अगली पक्ति में शामिल होने को तत्पर हैं लेकिन दूसरी तरफ न केवल भारत अपितु विश्वस्तर पर ये जनजातियॉँ अपने विकास और सर्वहितकारी स्वरूप को प्राप्त करने के लिए विवश है। इनके विकास का मार्ग अवरूद्ध करने में ईसाई मिशनरियों का भी योगदान रहा, जो व्रितानी अलगाववादी नीति का परिणाम थी, जिसे नेहरू जी ने भी स्वीकार किया था कि, ‘‘ब्रिटिश अफसरों ने या कभी-कभी वहॉंँ जा बसे पादरियों ने आदिवासियों के मन में उल्टी बातें भर दी थी।‘‘23 वस्तुतः स्वतंत्रता के पश्चात् आदिवासी विकास के निमित्त कभी भी स्थायी और सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। यद्यपि नेहरू ने कुछ प्रयास करते हुए कहा कि हम आदिवासी क्षेत्रों के मामले को दिशाहीन भटकाव की स्थिति में नहीं रहने दे सकते है................आज की दुनिया में न यह संभव है और न वह वांँछनीय ही है। परंतु इसके साथ ही हमें इन क्षेत्रों के अतिप्रशासन के जोखिम से भी बचाना होगा। हमें इन दो सीमांतों के बीच मध्यमार्ग बनाकर काम करना होगा। आदिवासी समाज को उनकी अपनी जातीय चेतना के अनुरूप विकास का मार्ग निर्धारित करने में सहायता दी जानी चाहिए । विकास के कार्य के लिए आधुनिक भारी भरकम संस्थाओं को उन पर थोपने की बजाय उनकी अपनी संास्कृतिक और सामाजिक परंपरा के संबंध में भी राष्ट्रीय नीति अत्यंत संवेदनशील रही है। जबकि गोविंद वल्लभपंत ने सलाह दी थी कि-‘आदिवासियों के रीति-रिवाजों और आमोद-प्रमोद की रीति-नीति को अनावश्क रूप से इतना न बदला जाय कि उनकी अपनी कोई पहचान ही न रह जाय। ऐसा कोई भी प्रयास ग्रामीण एवं शैल वनों के जीवन से उसके रंग और वैविध्य को समाप्त करना होगा।23
अंततः भले ही भारत के सविधान में जनजातियों को प्रचुर स्थान मिला है लेकिन उनकी स्थिति विकसित समाज से भिन्न है और इस समाज में नारी की संवेदनाएॅँ पीडि़त और स्वतंत्रता की तलाश में व्याकुल है। हो सकता है कि भविष्य में नारी अस्मिता में एक ऐसी क्रांति आये जिससे सामाजिक समरसता कायम हो । इस परिस्थिति में भले ही इस शिव- धनुष के टूटने पर समाज के परशुराम रूपी परम्परिक चेतना वाले हंाहाकार मचाये लेकिन नई राम चेतना उस धनुष की टंकार सुनने में अक्षम होगी और आदिवासी समाज में स्त्री की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जायेगी। 

सन्दर्भः-
1.    उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश -भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ अकादमी,  
पंचम   आवृत्ति: 1998, पृष्ठ-1

    2.     ळण्च्ंदकमलरूभ्पदकने ंदक वजीमतेरूजीम उपससपजंदज  बवदेजतनबजपवदरू म्बवदवदवउपबंस ंदक चवसपजपबंस ूममासल ए 28ण्12ण्1991 चण्3003ण्
  3   उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश-भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ
       अकादमी, पंचम आवृत्ति: 1998, पृष्ठ -1
  4.     वही, पृष्ठ-2
  5.     आरोह-भाग 1, एनसीईआरटी, प्रथम संस्करण, 2007, पृष्ठ -108
  6.     बहुवचन, अंक 25 ,अ0-जू0, 2010, सं0-राजेन्द्र कुमार, पृष्ठ-95
  7.    वहीं, पृष्ठ -95
  8.   ’साहित्य अमृत’,संपादक, त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी, मई 2011,, वर्ष 16, अंक 10, पृष्ठ-66
  9.   वही , पृष्ठ-66
  10  कथादेश , मई  2010 अंक, पृष्ठ-26
  11.  बहुवचन, अंक 25 ,अ0-जू0, 2010, सं0-राजेन्द्र कुमार, म0गा0अं0हि0वि0वि0, वर्धा प्रकाशन पृष्ठ-97
  12  वही , पृष्ठ-99
  13.  वही , पृष्ठ-110
  14.  वही , पृष्ठ-110
  15.  वही , पृष्ठ-112
  16. बहुवचन संयुक्तांक अंक 26,27 संपादक-ए0 अंरविदाक्षन, म0गा0अं0हि0वि0वि0 , वर्धा प्रकाशन, जुलाई-सितम्बर    
        2010, अक्टूबर -दिसम्बर 2010, पृष्ठ-10 
 17.   कथादेश, मई 2010 अंक,  पृष्ठ-27
18.   उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश -भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ अकादमी, पंचम
     आवृत्ति: 1998, पृष्ठ -62
19.   वही, पृष्ठ-65
20.   वही, पृष्ठ-66
21.  ’साहित्य अमृत’, अज्ञेयजन्मशती अंक संपादक, डॉ0 लक्ष्मीमल्ल सिघंवी, अक्टूबर 2010, वर्ष 16, अंक 3, पृष्ठ-109
22.   वही, पृष्ठ-111
23.   उपाध्याय विजय शंकर, वर्मा विजय प्रकाश-भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिंन्दी ग्रंथ अकादमी, पंचम
      आवृत्ति: 1998, पृष्ठ -50
24.   वही, पृष्ठ-91

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