मेरे बाबूजी
बचपन की हजार ख्वाइशों को
चुटकी में पूरा करने के लिए
यात्राएँ करते चलते रहे
उनके लिए कलकत्ता (कोलकाता) परदेस नहीं रहा
कहते हैं-जन्म के समय मुठ्ठी बँधी रहती है
अंतिम समय यह खुल जाती है
परन्तु बाबूजी आजन्म मुठ्ठी बाँधे रहे
यह हम लोगों के लिए अमृत वर्षा की स्वर्ण-छत्र-निर्मितअजस्र स्रोत होती थी ।अर्थ के अलावा सब कुछ भरा पड़ा था।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें