शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण



बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान 

(सरकारी सेवा के बीस साल)


मनुष्य अपने जीवन को सुखद बनाने के निमित्त सहज एवं सुगम प्रयास तो करता है लेकिन कठिन समस्या आने पर भयभीत हो जाता है और यही अज्ञात भय बाधक बनकर उसे अंत काल तक डराता रहता है |


इतना लंबा समय जैसे लग रहा है  अभी-अभी सरकारी बेड़ियाँ बधीं हो । याद आते वे दिन जब पहली बार इलाहाबाद से विदा होते हुए अपनों से दूर हुआ था । काशी एक्सप्रेस की लंबी सीटी के साथ बंध गयी थी हमारी आवाज । इटारसी के बाद की पहली लम्बी यात्रा और वह भी बगैर सीट के...याद आती वह तेज होती धड़कने, जिसकी गति हासन से हलेकोटे की राह में हिचकोले खाती बसों ने बढ़ा दी थी । पहली बार जंगल से गुजरती बस में सबसे बड़ी चिंता यही थी कि-कहीं कुल जमा पूँजी के रुप में हमारे साथ जुड़े प्रमाणपत्र न गायब हो जाय। इस समय ज़ब हमारा सामना पहली बार हिन्दी-अंग्रेजी से अलग कन्नड़ से हुआ तो उसी समय हमने प्रण किया कि-हमें सबसे पहले वन्दू,(1) इरदू,(2) मूर,(3) नालको,(4) एयडू (5)... सीखना है। कालांतर में सीखा भी और एक दिन ऐसा भी आया कि हमने इस तीसरी भाषा में खूब जिया। अभी तो बहुत कुछ कहना है...


बहरहाल उस समय से लेकर अगस्त 2009 तक की खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमें झकझोरती है । क्योंकि इस छः साल में सब कुछ बदल गया। मैं बदला, जीवन बदला, यौवन बदला और कई परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए । इसी बीच शादी से लेकर घर परिवार को महसूस करना भी विशिष्ट उपलब्धि रही । एक समय रामबोला की स्थिति आने वाली थी मित्र के ताने और मन की जिज्ञासाएँ एक साथ जागृत हो गयी, जिसका बौद्धिक परिणाम निश्चित रुप में बहुत सुखद रहा। हाँ! यह बात बहुत जोर देकर कहना चाहूँगा कि-यह बौद्धिकता प्रेम से हार गयी। परिणामस्वरुप परिवर्तन आना स्वाभाविक था।.. अथ हासन कथा जारी है..


मनुष्य अपने जीवन को सँवारने में हर चीज दाँव पर लगा देता है । वह अपने कीमती समय को समर्पित करते हुए नयी आशा एवं आकांक्षाओं सहित आगे बढ़ता है । इसी राह में चलते-चलते वह ताउम्र गतिशील होता है । ऐसे में उसे केवल मंजिल ही दिखाई देती है । इस दौरान तमाम अंतर्विरोध आये लेकिन बड़े ही मुश्किल समय को सहज भाव से  व्यतीत करके आज नये रुप में सहज हूँ । कभी भी अपनी इच्छाओं को अपने लक्ष्य के आड़े नहीं आने दिया ।शायद इसी का परिणाम शोध उपाधि के रूप में सामने है ।


हमें उस समय व्यतीत किये समय और हासन केंद्रीय पुस्तकालय से निर्गत की गयी पुस्तकें (हिन्दी की ये पुस्तकें यहाँ से निर्गत कराने वाला शायद मैं पहला और अंतिम सदस्य रहा.) आज भी अपनी ओर अनायास ही आकर्षित करती हैं । कुल मिलाकर यह एक लंबा संस्मरण है, जिसकी अनुगूँज आज हमें अक्सर सुनाई देती है ।


यही कारण है कि आज भी  माविनकेरे, हासन की जुदाई के साथ ही याद आते हैं मल्लारिपत्तनम (मल्हार, बिलासपुर) में गुजारे अविस्मरणीय पल । ऐसा कहा जाता है कि-व्यक्ति दो स्थितियों में स्वर्ग से दूर भागता है-पहला-स्वयं की नियति पर और दूसरा अपने भविष्य को संवारने की इच्छा से। इसमें दूसरा कारण ही हमारे हासन प्रवास से मुक्त होने में सहायक रहा। हम अक़्सर सोचते रहते थे कि-दक्षिण हमारी हिन्दी को अपना निवाला बना लेगी। यही कारण था कि-दक्षिण से उत्तर आने का हमने इतना बड़ा जोखिम लिया और 2009 में बिलासपुर वाली रेल पकड़ लिया। यह रेल ज़ब तीसरे दिन यशवंतपुर से चलकर भोर में 3 बजे बिलासपुर स्टेशन पर पहुँची तो पहली बार छत्तीसगढ़िया टोन ने बना बनाया भाषिक मिजाज बिगाड़ दिया। लेकिन उस बिगड़े मिजाज ने भी कहीं न कहीं कुछ सुधार की गुंजाइश बची रही।


लेकिन 2016 के बाद ज़ब मैं अपने प्रदेश में दाखिल हुआ तो सबसे पहले भीषण जातिगत गणित के अनसुलझे रहस्य को सुलझाने का प्रयास करता रहा लेकिन मामला और उलझता चला गया। दूसरी तरफ जनपद वापसी ने खूब ऊर्जा का संचार किया... किसे पता था यह दौर शिक्षा के साथ मजाक करने वाला चल रहा है... जो भी हो अब जारी है..


इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में आज तंत्र के शिकंजे में बंधे 20 बरस पूरे हुए....देखें...कब बेड़ियाँ टूटती है | पहले का चित्र जब मैं पहाड़ों की वादियों में अपने आपको भाग्यशाली मानता था | अब तो बस चलना है....!! क्योंकि चलना ही जिंदगी है....


सरकारी बेड़ियाँ भी अनेक प्रकार की होती है। यह एक तरफ हमें कार्य करना सिखाती है तो दूसरी तरफ आलस्य के आगोश में लेकर जीवन को गर्त में पहुँचाने को अभिशप्त करती है। बहरहाल हमने 6+7+4+3 के रुप में भारत की चतुर्दिक यात्रा की।


बहरहाल ईश्वर से यही इच्छा रहती है कि-ज़ब तक साँस चले तब तक वह हमारे कर्तव्य के प्रति समर्पण भाव को खाली न होने दें।


फोटो-फेसबुक

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