मंगलवार, 11 जनवरी 2022

 मृत संवेदनाएँ एवं मानवतावादी दृष्टिकोण : चिंतन, चुनौतियाँ एवं समाधान


मानवता संवेदनशील प्रवृत्तियों से बलवती होती है । यह संस्कृति का परिष्कार करती है एवं समाज को नयी दिशा भी प्रदान करती है । 


परन्तु वर्तमान समय में मृत कोशिकाओं से निर्मित संवेदनाएँ विपरीत परिस्थितियों को जन्म देती हैं । इसके दो कारण हैं-पहला स्वयं मनुष्य का व्यक्तित्व एवं दूसरा परिवर्तित वातावरण-परिवेश । यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि-मनुष्य स्वार्थ के वश में होकर अपने विकास की धारा मोड़ लेता है, जिसकी नियताप्ति निःसंदेह विनाश के रुप में होती है । इसके लिए कुछेक ज्वलंत उदाहरण मजबूत आधार प्रदान करते हैं । 


हाल ही में एक घटना से रूबरू होने का संयोग बना । इसे आप काल्पनिक भी मान सकते हैं । बलिया जनपद के सुदूर पूरब में एक गाँव हैं । इस गाँव में मुश्किल से पाँच सौ आबादी होगी । यहाँ के युवा "कमाओ-खाओ-लूट-लुटाओ" में विश्वास करते हैं । अचानक एक दिन इनमें से एक परिवार का पढ़ने में रुचि दिखाने लगता है लेकिन यहाँ के परंपरागत योद्धा तमाम ओछी हरकते करके दिग्भ्रमित करने के लिए कुटिल रणनीति तैयार करते हैं । 


परन्तु समय चक्र बहुत तीव्र गति से घूर्णन करता है और बहुत कम समय में वह छात्र अतिरिक्त क्षमताओं का स्वामी होने के कारण उस गाँव में विजेता बन जाता है । स्वयं को ब्रह्मराक्षस का पर्याय मानकर विशेष पद को सुशोभित करने की कल्पना करके यथार्थ की जमीन से दूर हो जाता है । उसका यथार्थ कब स्वार्थ में परिवर्तित हो जाता है, इसका एहसास उसे तनिक भी नहीं होता । इस तरह वह धीरे-धीरे अहं के सम्पूर्ण अवयव का स्वामी बन बैठता है ।


 परिणामस्वरूप उसमें  नैतिक-सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रतिमान धुंधले पड़ जाते हैं । इस प्रकार उसके व्यक्तित्व की कल्पना करते हुए समाज के विकास-पतन को  महसूस कर सकते हैं ।


हमारे पूर्वज न केवल अनुभव के धनी होते थे अपितु उनके पास लोक-समर्थित ज्ञान का अकूत भंडार था । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि यह भण्डार कभी भी खाली नहीं होता था । इसी में से यह तथ्य छनकर आता है कि-मनुष्य वातावरण-परिवेश के अनुरूप अपने व्यवहारों में आवश्यक परिवर्तन करता है । ये बदलाव कभी दिखता है तो कभी अदृश्य ही रहता है । 


अतः इसी प्रभाव के कारण संवेदनशील मनुष्य कभी कठोर दण्ड का भागी बनता है तो कभी सरस माधुर्य का स्वामी । इसमें दो मत नहीं कि कठोरता अक्सर विनाश की सवारी करती है जबकि सरलता वैचारिक रूप में चक्रवर्ती बनाता है ।


©डॉ. मनजीत सिंह 


जारी

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