शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

मैं, मेरा बचपन और खिचड़ी (मकर संक्रांति)


(कल, आज और कल)

दही-चिउरा-गुड़ के संगम से अधिक खिचड़ी का मजा चटनिया मेले की जलेबी में आता था । हम लोग बड़े भिनसहरे (सुबह सबेरे) काका, नुनु, बाबा के संग गंगा नहाने बड़े चाव से जाते थे । सबसे बड़ी बात यह थी कि-उस समय बिना नहाये कुछ खाना नहीं था । इस कारण बचपन की भूख नहान के पहले ही उफान लेने लगती थी । बाबा की गठरी में घर से ही गमछी में बँधा तिलवा देख मन बहुत ललचा जाता था, लेकिन नहाने की बाध्यता से मन मारकर हम चलते रहते । इसी ऊहापोह में रेत दिखने लगता और नहाने की बारी आ जाती । सबसे बड़ी बात उस समय ठण्डी भी कम लगती थी । मकर के दिन नहाने के लिए एक ही लालच बार-बार सालता रहा-5 रूपये की गुड़ही जिलेबी । 
लोक परिचित मकर लोक व्यंजन तिलवा (जनेरा, जोन्हरी, बाजरा, चिउरा) , तीसी का कसार, तिल के लड्डू को देख मन प्रफुल्लित हो जाता था । यह कलेवा एक महीने पहले से ही चलता रहता और एक महीने बाद तक सुबह का नाश्ता-पूर्व पसंदीदा व्यंजन ही रहता था। पूस और माघ की रातें बीतते देर नहीं लगती ।

मकर के व्यंजनों का शारीरिक प्रभाव भी वातावरण एवं परिवेश के अनुरूप निश्चित होता है । इन व्यंजनों की तासीर गरम होती है । जब लोग इसका सेवन सुबह सबेरे करते हैं तो स्वास्थ्य सन्तुलन बना रहता है । 

 आज जब इन त्यौहारों की प्रासंगिकता के सन्दर्भ में सोचते हैं तो मन व्यथित हो जाता है । लोक-व्यंजन से लेकर लोक नहान तक तथाकथित हाईटेक हो चुके लोगों के मन में आभासी प्रतिबिम्ब सीधा नहीं दीखता । विशेषतः सोशल मीडिया में चित्रित तिल के लड्डू, तिलवा के तथाकथित स्वाद से संतोष करना और बधाई तक सीमित आनन्द की कल्पना करना न केवल त्यौहारों के साथ अपितु भारतीय संस्कृति के साथ अन्याय है । 
बहरहाल नब्बे के दशक तक त्यौहारों की रौनक बरक़रार थी । कम से कम लोगों में आपसी भाईचारे की भावना का विकास और संस्कृति को पुनर्जीवन अवश्य मिलता था । लोग ऐसे अवसर पर होली की तरह घर-घर जाकर तिलौरी खाते-खिलाते और अघाते थे । आज अपना नसीब पतला हो चुका है । हम बाजारू बन चुके हैं । लेकिन बाजार दर्शन प्राप्त ये व्यंजन गाहे-बेगाहे स्वाद दे जाते हैं परन्तु इनका वास्तविक प्रभाव बाद में दिखाई देता है । इसमें दाँत की कसरत का बढ़ जाना स्वाभाविक है । 

इस कारण मेरा मन बारम्बार यही पुकारता-

मकर राशि में प्रवेश करके
सूर्य की किरणों की आभा
मन-मष्तिष्क को 
सहज-सुगम आभास से
नवजीवन प्रदान करती रहे ।

खान-पान से ऊपर 
मानवता कायम रहे
एक कदम आगे बढ़ने को 
मजबूर करती रहे ।

इन्हीं आकांक्षा सहित
तिल-गुड़ के संग 

खिचड़ी की दोहरी बधाई ।

© #डॉ. मनजीत सिंह
14-15 जनवरी 2022

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...