शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण



बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान 

(सरकारी सेवा के बीस साल)


मनुष्य अपने जीवन को सुखद बनाने के निमित्त सहज एवं सुगम प्रयास तो करता है लेकिन कठिन समस्या आने पर भयभीत हो जाता है और यही अज्ञात भय बाधक बनकर उसे अंत काल तक डराता रहता है |


इतना लंबा समय जैसे लग रहा है  अभी-अभी सरकारी बेड़ियाँ बधीं हो । याद आते वे दिन जब पहली बार इलाहाबाद से विदा होते हुए अपनों से दूर हुआ था । काशी एक्सप्रेस की लंबी सीटी के साथ बंध गयी थी हमारी आवाज । इटारसी के बाद की पहली लम्बी यात्रा और वह भी बगैर सीट के...याद आती वह तेज होती धड़कने, जिसकी गति हासन से हलेकोटे की राह में हिचकोले खाती बसों ने बढ़ा दी थी । पहली बार जंगल से गुजरती बस में सबसे बड़ी चिंता यही थी कि-कहीं कुल जमा पूँजी के रुप में हमारे साथ जुड़े प्रमाणपत्र न गायब हो जाय। इस समय ज़ब हमारा सामना पहली बार हिन्दी-अंग्रेजी से अलग कन्नड़ से हुआ तो उसी समय हमने प्रण किया कि-हमें सबसे पहले वन्दू,(1) इरदू,(2) मूर,(3) नालको,(4) एयडू (5)... सीखना है। कालांतर में सीखा भी और एक दिन ऐसा भी आया कि हमने इस तीसरी भाषा में खूब जिया। अभी तो बहुत कुछ कहना है...


बहरहाल उस समय से लेकर अगस्त 2009 तक की खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमें झकझोरती है । क्योंकि इस छः साल में सब कुछ बदल गया। मैं बदला, जीवन बदला, यौवन बदला और कई परिवर्तन दृष्टिगोचर हुए । इसी बीच शादी से लेकर घर परिवार को महसूस करना भी विशिष्ट उपलब्धि रही । एक समय रामबोला की स्थिति आने वाली थी मित्र के ताने और मन की जिज्ञासाएँ एक साथ जागृत हो गयी, जिसका बौद्धिक परिणाम निश्चित रुप में बहुत सुखद रहा। हाँ! यह बात बहुत जोर देकर कहना चाहूँगा कि-यह बौद्धिकता प्रेम से हार गयी। परिणामस्वरुप परिवर्तन आना स्वाभाविक था।.. अथ हासन कथा जारी है..


मनुष्य अपने जीवन को सँवारने में हर चीज दाँव पर लगा देता है । वह अपने कीमती समय को समर्पित करते हुए नयी आशा एवं आकांक्षाओं सहित आगे बढ़ता है । इसी राह में चलते-चलते वह ताउम्र गतिशील होता है । ऐसे में उसे केवल मंजिल ही दिखाई देती है । इस दौरान तमाम अंतर्विरोध आये लेकिन बड़े ही मुश्किल समय को सहज भाव से  व्यतीत करके आज नये रुप में सहज हूँ । कभी भी अपनी इच्छाओं को अपने लक्ष्य के आड़े नहीं आने दिया ।शायद इसी का परिणाम शोध उपाधि के रूप में सामने है ।


हमें उस समय व्यतीत किये समय और हासन केंद्रीय पुस्तकालय से निर्गत की गयी पुस्तकें (हिन्दी की ये पुस्तकें यहाँ से निर्गत कराने वाला शायद मैं पहला और अंतिम सदस्य रहा.) आज भी अपनी ओर अनायास ही आकर्षित करती हैं । कुल मिलाकर यह एक लंबा संस्मरण है, जिसकी अनुगूँज आज हमें अक्सर सुनाई देती है ।


यही कारण है कि आज भी  माविनकेरे, हासन की जुदाई के साथ ही याद आते हैं मल्लारिपत्तनम (मल्हार, बिलासपुर) में गुजारे अविस्मरणीय पल । ऐसा कहा जाता है कि-व्यक्ति दो स्थितियों में स्वर्ग से दूर भागता है-पहला-स्वयं की नियति पर और दूसरा अपने भविष्य को संवारने की इच्छा से। इसमें दूसरा कारण ही हमारे हासन प्रवास से मुक्त होने में सहायक रहा। हम अक़्सर सोचते रहते थे कि-दक्षिण हमारी हिन्दी को अपना निवाला बना लेगी। यही कारण था कि-दक्षिण से उत्तर आने का हमने इतना बड़ा जोखिम लिया और 2009 में बिलासपुर वाली रेल पकड़ लिया। यह रेल ज़ब तीसरे दिन यशवंतपुर से चलकर भोर में 3 बजे बिलासपुर स्टेशन पर पहुँची तो पहली बार छत्तीसगढ़िया टोन ने बना बनाया भाषिक मिजाज बिगाड़ दिया। लेकिन उस बिगड़े मिजाज ने भी कहीं न कहीं कुछ सुधार की गुंजाइश बची रही।


लेकिन 2016 के बाद ज़ब मैं अपने प्रदेश में दाखिल हुआ तो सबसे पहले भीषण जातिगत गणित के अनसुलझे रहस्य को सुलझाने का प्रयास करता रहा लेकिन मामला और उलझता चला गया। दूसरी तरफ जनपद वापसी ने खूब ऊर्जा का संचार किया... किसे पता था यह दौर शिक्षा के साथ मजाक करने वाला चल रहा है... जो भी हो अब जारी है..


इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में आज तंत्र के शिकंजे में बंधे 20 बरस पूरे हुए....देखें...कब बेड़ियाँ टूटती है | पहले का चित्र जब मैं पहाड़ों की वादियों में अपने आपको भाग्यशाली मानता था | अब तो बस चलना है....!! क्योंकि चलना ही जिंदगी है....


सरकारी बेड़ियाँ भी अनेक प्रकार की होती है। यह एक तरफ हमें कार्य करना सिखाती है तो दूसरी तरफ आलस्य के आगोश में लेकर जीवन को गर्त में पहुँचाने को अभिशप्त करती है। बहरहाल हमने 6+7+4+3 के रुप में भारत की चतुर्दिक यात्रा की।


बहरहाल ईश्वर से यही इच्छा रहती है कि-ज़ब तक साँस चले तब तक वह हमारे कर्तव्य के प्रति समर्पण भाव को खाली न होने दें।


फोटो-फेसबुक

गुरुवार, 28 सितंबर 2023

जामुन का पेड़ : पीड़ित जन की व्यथा (व्यंग्य एवं यथार्थ का अद्भुत मेल)

 जामुन का पेड़ :  पीड़ित जन की व्यथा


(व्यंग्य एवं यथार्थ का अद्भुत मेल)




कृश्न चंदर की व्यंग्य कहानी जामुन का पेड़ बहुत प्रसिद्ध कहानी है, जिसे एन सी आर टी ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल भी किया है । परन्तु इस कहानी की वास्तविक प्रासंगिकता आज नुक्कड़ नाट्य शैली में संकल्प साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था बलिया के कलाकारों ने प्रस्तुत करके स्वतः सिद्ध कर दी । इसके लिए कला की जीवंत परंपरा के पारखी आशीष त्रिवेदी जी को इस मंचन के लिए खूब बधाई ।


इससे पूर्व आज के कार्यक्रम में "पठनीयता का संकट"  विषयक गंभीर विचार गोष्ठी सम्पन्न हुई । अक्सर यह देखा जाता है कि हम समय के साथ सवालों से घिरते चले जाते हैं और यह सवाल जब घाव बन नासूर  का रूप लेता है तो शल्य-चिकित्सको का सहारा लेते हैं । लेकिन हम जब जगते हैं उस समय तक बहुत देर हो चुकी होती है । कमोबेश यही स्थिति पठनीयता के संदर्भ में बनी हुई है । विशेषतः मुद्रित माध्यमों के संदर्भ में आज की गोष्ठी में बहुत सारे विचार छनकर आये, जिनका जिक्र जरूरी है । इनमें महर्षि अशोक , डॉ. अमलदार नीहार  , Ajay Pandey , श्री अजय पाण्डेय, श्री रामजी तिवारी, श्री शिवजी मिश्र रसराज, श्री Shwetank Singh  एवं डॉ. मनजीत सिंह  इत्यादि के विचारों के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं ।यथा-प्रिंट बनाम डिजिटल संस्करण, संवेदनशीलता का अभाव, पाठकों के भीतर आंदोलन के द्वारा प्रवेश, यह संकट नहीं अपितु दिशाहीन है इत्यादि विचार उल्लेखनीय है । इसके अतिरिक्त प्रखर आलोचक श्री Ramji Tiwari   द्वारा दिया श्री  Mahesh Punetha  जी का उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण रहा 

। इनमें प्रत्येक गाँव में पुस्तकालय की परिकल्पना विशिष्ट है । 


परन्तु आज के कार्यक्रम के केंद्र में नाट्य प्रस्तुति ही रही । हरेक कलाकार अभिनेयता की कसौटी पर खरे उतरे । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये कलाकार हरेक पात्रों को अपने भीतर समाहित करके प्रस्तुति दे रहे हों । 


यह व्यंग्य कथा भले ही आज से लगभग पचास वर्ष पहले लिखी गयी हो लेकिन इसकी प्रासंगिकता सार्वकालिक एवं स्वयंसिद्ध है । अक्सर जामुन के पेड़ को सबसे कमजोर माना जाता है । ऐसा माना जाता है कि यह पेड़ अनायास ही गिर जाता है । परन्तु जब इस पेड़ को वैदेशिक संबंधों की प्रगाढ़ता का पर्याय मानकर लगाया गया हो तो इनकी व्यंजना की कल्पना सहजतापूर्ण किया जा सकता है । रही बात लेखक की तो लेखक ने भारतीय व्यवस्था के अस्थिपंजर की तरह खंडित हुए ढाँचे को अलग-अलग तरीकों से देखा-परखा एवं व्यक्त किया । यहाँ हम अन्य व्यंग्यात्मक रचनाओं से इसकी विशिष्टता का सहज ही आकलन कर सकते हैं । बहरहाल यह तो लेखकीय कौशल की बात रही ।


लेकिन आशीष त्रिवेदी के निर्देशन में अभिनीत इस कहानी के नाट्य रूपांतरण ने नायाब ढंग से अपनी पहचान कायम रखी । सबसे बड़ी बात इसके हरेक कलाकारों ने आधुनिकता एवं उत्तराधुनिक अवयवों को फेंटकर एक ऐसा भाव रस तैयार किया जिसे दर्शक एकमेक होकर पीते चले गये और एक समय ऐसा भी आया जब वे पूर्णतः रसमग्न हो गये । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि-भारत का हरेक विभाग उस जामुन के पेड़ के इर्द-गिर्द घूम रहा है । हरेक कर्मचारी अपना राग अलाप रहा है । अपने में व्यस्त, उन्मुक्त भाव से पेड़ तले दबे कवि महोदय की पीड़ा से अनजान होकर दिन काटते रहे और जैसे उसके मरने का इंतजार करते रहे । कभी जन्मदिन की पार्टी तो कभी आपसी वार्तालापों के माध्यम से पीड़ित जन की पोड़ा पर नमक छिड़कते रहे । इस बीच कुछ भले लोग भी  मिल जाते हैं, खाना भी खिलाते हैं और उसे अपने दोहरे चरित्र के माध्यम से शासन में अभिधा शैली से सीधे व्यंजना की रफ्तार पकड़ लेते हैं । 


यह कवि उस समस्त जनसमुदाय का प्रतिनिधित्व करता है, जो हर रोज अपनी फ़ाइलों के पीछे दौड़ लगाते हैं । जब शाम को पहुँचते हैं तो वह पुनः वही मेज की शोभा बढ़ा रही होती है । अंतर बस इतना है कि जामुन का पेड़ हर दिन एक नये अवतार में नये व्यक्ति को अपनी आगोश में लेता है ।


इस प्रकार आज एक समय तो ऐसा भी आया कि-दर्शक-अभिनय में अंतर करना मुश्किल हो गया । दर्शकों का हास्य कब करुणा में परिवर्तित हो गया और कब वह व्यंग्यात्मक हँसी के रूप में उभरकर सामने आ गया, इसका एहसास कर पाना बहुत मुश्किल रहा । अंत में लेखक कृश्न चंदर के शब्दों को उधार लेकर कहने की धृष्टता करता हूँ तो प्रासंगिकता पर प्रश्न कोई उठा ही नहीं सकता क्योंकि वही "आईने के सामने" खड़े होकर कहने का साहस कर सकते हैं कि-अफ़सोस इस बात का नहीं कि मौत बेरहम क्यों हैं ,

अफ़सोस इस बात का है कि अस्पताल बेरहम क्यों हैं ?


पुनः संकल्प साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था, बलिया के सचिव सहित पूरी टीम को एक स्तरीय मंचन के लिए अनेकशः बधाई ।


डॉ. मनजीत सिंह

शहीद-ए-आजम भगत सिंह की एकल प्रस्तुति का सामाजिक निहितार्थ

 सुखद गुरुवार 


शहीद-ए-आजम भगत सिंह की एकल प्रस्तुति का सामाजिक निहितार्थ 



भरत मुनि ने नाट्‌यशास्त्र के आठवें अध्याय में अभिनय पारिभाषित करते हुए लिखा है कि, ‘’नाटक में नट आदि के द्वारा जब सामाजिकों के सम्मुख कथा में स्थित पात्रों, उनके आचरण,  व्यवहार तथा अवस्थाओं का अनुकरण किया


जाता है वे तब वह अभिनय कहलाता है। इस आधार पर अभिनेता सामाजिकों के समक्ष विविध अर्थों की भावनाओं का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें उसके अंगों-उपांगों की नियताप्ति होती है।


भगत सिंह की जयंती के अवसर पर संकल्प : साहित्यिक, सामाजिक  सांस्कृतिक संस्था के निदेशक आशीष त्रिवेदी आशीष त्रिवेदी द्वारा अभिनीत शहीद-ए-आजम भगत सिंह की एकल प्रस्तुति ने दर्शक दीर्घा में विचारों एवं क्रांति की अजस्र धारा प्रवाहित करके मिशाल कायम की | यह मात्र अतिश्योक्ति नहीं अपितु बलिया जैसे अकिंचन होते शहर में ऐसा कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर पर सोचने को विवश करने के काफी है | यह अभिव्यक्ति शहीद-ए-आजम के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि थी क्योंकि  इस प्रस्तुति में अभिनेता के दिनप्रतिदिन अपने अभिनय में निखार लाते हुए भावी पीढी को नया सन्देश दिया |


उन्होंने इतिहास के सूत्रों को मोतियों की माला में गूँथकर न केवल नाटक प्रस्तुति के अंगों-यथा-आंगिक, वाचिक, सात्विक, एवं आहार्य को प्रमाणित किया अपितु वस्तु , नेता एवं रस रूपकों की प्रासंगिक क‌थावस्तु प्रस्तुत की। यह स्वयं सिद्ध हैं कि-नाटक का वर्तमान स्वरूप अँधेरे ओट में छिपकर विन्यस्त भाव के लिए करुण क्रंदन कर रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय स्तर पर NSD सहित कुछेक संस्थाओं को छोड़ दें तो उपयुक्त कथन स्वतः सिद्ध हो जाता है |


भगत सिंह ने कहा था कि-निष्ठुर आलोचना और स्वतंत्र विचार ये क्रांतिकारी सोच के दो अहम लक्षण हैं।" इस अर्थ में भगत सिंह केन्द्रित अभिनय को देखते समय जब इसे आलोचकीय मानदण्डों पर कसने का प्रयास करते है तो यत्र तत्र सर्वत्र सकारात्मक पहलू ही उजागर होता है। क्योंकि एकल प्रस्तुति के समय समग्र रूप में प्रभाव ग्रहण करना सर्वदा कठिन होता है | इसमें एक ही पात्र समय एवं परिवेश के अनुरूप आये पात्रों की भूमिका में वार्तालाप करता है | इस समय सबसे जरुरी अभिनेता के मन के भाव होते हैं, जिसे तत्क्षण परिवर्तित करना पड़ता है | इस सन्दर्भ में आशीक त्रिवेदी एक साथ दस-बीस की भूमिका के सामन्जस्य से नयी मिशाल कायम की है। वह रोलट एक्ट से लेकर 23 मार्च 1931 तक की घटनाओं को एक सूत्र में पिरोया | वह गांधी से लेकर भगत सिंह के बीच आये सभी पात्रों को बड़े ही सहजतापूर्वक जीवंत किया | इसके लिए उनकी पूरी टीम को बधाई एवं साधुवाद।


वर्तमान समय में ऐसा कहा जा रहा है कि साहित्य-संगीत के साथ नाट्‌य-परम्परा लोक की लीक से दूर होता जा रहा है। इसकी जगह अत्याधुनिक साजो- सामान से परिपूर्ण चिल्लपों की भड़‌काऊ आवाज से सुसज्जित डीजे न केवल वातावरण को दूषित कर रहा हैं अपितु ये शास्त्रीय एवं स्वस्थ परंपरा पर कुठाराघात भी कर रहे हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में बलिया जनपद में बदलाव की  यह प्रस्तुति पुनः भगत सिंह के उन विचारों की प्रामाणिकता सिद्ध करती है, जिसमें वह कहते हैं, "आम तौर पर लोग चीजें जैसी है उसी के अभ्यस्त हो जाते हैं। बदलाव के विचार से ही उनकी कंपकंपी छूटने लगती हैं। इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना में बदलने की दरकार है। सचमुच यदि इस निष्क्रीय भावना को ऐसी प्रस्तुतियों द्वारा बदलने का प्रयास किया जाता रहा तो आधुनिक पीढ़ी में विचारों के नये-नये अवयव प्रस्फुटित होंगे और समकालीन तनावग्रस्त बचपन अपने पूर्व रूप में वापस लौटकर प्रसन्नचित मन से नये भारत का निर्माण करके वैश्विक ध्ररा पर अपनी पहचान कायम करने में सक्षम होगी |


पुन: आयोजक मंडल को अनघा बधाई|


डॉ0 मनजीत सिंह

असिस्टेंट प्रोफेसर-हिन्दी

बुधवार, 28 दिसंबर 2022

पराशर मठिया वाले तुमड़िया बाबा


(तुमड़ी की चर्चा से स्मरण लाजमी )


उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर गंगा और घाघरा नदियों के दोआब में बसे बलिया जनपद ऋषि-मुनियों की भूमि रही है। बलिया गजेटियर के अनुसार-महर्षि भृगु के इस भू-भाग पर आकर आश्रम बनाने के बाद इसे भृगुक्षेत्र के नाम से जाना जाता था ।इसके बाद उनके शिष्य दर्दर मुनि के नाम से दर्दर क्षेत्र के नाम से जाना जाता था।


जनपद मुख्यालय से 14 किमी पूर्व राष्ट्रीय राज्य मार्ग 31 पर स्थित परसिया ग्राम में ख्यातिलब्ध पराशर मुनि का आश्रम है। पराशर ऋषि आश्रम परसिया में अभी भी पराशर मुनि के समाधि स्थल के दो सौ मीटर के परिधि में कहीं भी खुदाई करने पर मनुष्यों का कंकाल व हड्डियां मिलती है। कहा जाता है कि-यहाँ 84 हजार साधु-महात्माओं ने तपस्या की है और समाधि ली है और इसके पास स्थित पोखरे में स्नान करने से कुष्ठ रोग की समाप्ति हो जाती है. वहीं पोखरे का पाँच बार परिक्रमा करते हुए जौ बोने का रिवाज है। बहरहाल पराशर मुनि पर बातें फिर कभी। अभी उस मठिया में निवास किये तुमड़िया बाबा के बारे में चर्चा की बारी है।





इसी पराशर की मठिया में एक तुमड़िया बाबा हुआ करते थे। वह गाँव के लिए मैला आँचल वाले डॉ. प्रशांत से भी बढ़कर थे। उनके पास हर मर्ज की दवा रहती थी। लोग-बाग बीमार पड़ने पर सबसे पहले उनसे मिलते थे। ज़ब कभी किसी को भूत पकड़ ले तो भभूत देते थे। कभी कोई बीमार पड़ता था तो भी भभूत देते थे। इसके अलावा हरेक रोग के कुछ न कुछ उपाय बताते थे। मेरी ईया कहती थी कि-बचपन में एक बार मेरा शरीर पूरा नीला पड़ गया। उस समय घर के सभी लोग बहुत परेशान हो गये। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। हमारे बाबा बहुत ही सरल हृदय के धनी थे, उनके मन में कभी किसी के प्रति न ही द्वेष भाव रहा और न ही किसी के प्रति कृतघ्न थे अपितु एक आदर्श व्यक्तित्व के धनी थे। इसकी चर्चा फिर कभी।


वह तुरंत घर आकर हमें लेकर तुमड़िया बाबा के पास ले गये तो वह देखकर पहले खूब हँसे और पूछे-


इनकर माई कवना रंग के साड़ी पहिनले बाड़ी?

(इनकी माँ किस रंग की साड़ी पहनी है?)

बाबा बोले-नीला

तब उन्होंने तुरंत कहा कि-यह उसी साड़ी का रंग है।


ऐसे ही चमत्कारी थे तुमड़िया बाबा।


क्रमशः...

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

स्मृतियों के आईने में बाबूजी 💐💐

 स्मृतियों के आईने में बाबूजी 💐💐


🙏🌷विनम्र श्रद्धांजलि🌷🙏


अदनान कफील 'दरवेश' अपने प्रसिद्ध काव्य संग्रह में लिखते हैं कि-


रोना एक मजेदार काम है

और उसे छुपाना

उससे भी मजेदार

×   ×   ×     ×

एक आदमी बातें बदलकर

×     ×     ×

जो बोलता है

सब मैं उठता बैठता है

लेकिन अपने भीतर

पछाड़े खा खा के रोता है

सिर पीट-पीट कर विलाप करता है

बस कोई देख नहीं पाता

बस किसी को दिखाई नहीं देता।


समाज में व्यक्ति के जीवन में अनेक उतार-चढाव आता है। वह कभी सुख में रहता है तो अधिकांश समय वह दुखों के घेरे में स्वयं को घिरा हुआ पाता है। सुख-दुःख के बीच मनुष्य की अंतरात्मा से एक आवाज तब निकल कर विलाप का रुप ले लेती है, ज़ब सिर से पिता का साया अचानक गायब हो जाता है। उस समय दरवेश के उपर्युक्त शब्द झंकृत होने लगते हैं। ग्लानिग्रस्त इस आत्मा की आवाज भी लोग अनसुनी कर देते है। वह पीड़ित कभी चार्ली बनने को अभिशप्त होता है तो कभी सिर पीटकर पछाड़ खाकर रोते-बिलखते सबके भीतर अपने होने का एहसास दिलाने की जिद पर अड़ जाता है। लेकिन हद तो तब हो जाती है, ज़ब इस विपरीत स्थिति को जनता न तो भाँप पाती है और न ही उसकी पीड़ा को कमतर करने का प्रयास करती है।


मेरे बाबूजी 


इसी अपाधापी में 9 दिसंबर का दिन हमारे जीवन में एक काले अध्याय के रूप में जुड़ गया। किसे पता था कि-बाबूजी के अंतिम शब्द अचेत अवस्था में सुनने को नसीब होगा। मऊ के निजी अस्पताल में पहुँचने के बाद उन्होंने हमें देखकर बहुत सुकून भरे शब्द कहे थे कि-तू आ गईल बबुआ ¡ अब हम ठीक हो जाइम। (आप आ गये तो अब मैं ठीक हो जाऊँगा) उसके बाद न जाने वह किस तीसरी शक्ति के आगोश में चले गये। उसका एहसास ही नहीं हुआ। विक्रम संवत 2073, मार्ग-शीर्ष की दशमी-एकादशी को ही माघ जैसी कड़ाके की ठण्ड ने उस शक्ति को अधिक मजबूत कर दिया, जिसके भयावह परिणाम ने हम सबको झकझोर कर रख दिया।


बाबूजी के वे शब्द आज भी कानों में गूँजते है..बबुआ...पढ़ने-लिखने के लिए खाने में कोताही मत करना । याद आते हैं वे दिन तो मन में ग्लानि एवं पीड़ा का सम्मिश्रण स्वतः हो जाता है । उन्होंने कभी-भी प्रश्न नहीं पूछा ? कभी भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि मैं क्या पढ़ रहा हूँ ? मैं कैसे पढ़ रहा हूँ ? उनकी यात्रा के सामने डाक विभाग भी शर्म से पानी पानी हो जाय । मनीआर्डर के पहले ही वह हर महीने की पहली तारीख को कलकत्ता से इलाहाबाद पहुँच जाते थे । वह भी केवल कुछ ही घंटों के लिए । उन्होंने कभी भी हमारी गलतियों को नासूर नहीं बनने दिया जबकि इसे वह मजबूती के लिए उत्साहित करने का हथियार बनाने की क्षमता रखते थे । आज ज़ब मैं स्वयं एक पिता की हैसियत से उनके समकक्ष रखता हूँ तो स्वयं को इतना असहाय पाता हूँ, जिसकी कल्पना करना व्यर्थ है। 


वह दिन कैसे भूल सकता हूँ ? अक्सर यह देखने में आता है कि जब लड़का बाहर (उस समय इलाहाबाद सामान्य-मध्यमवर्गीय परिवार के लिए विदेश से बढ़कर था।) जाता है तो आस-पड़ोस के लोग तरह-तरह की बाते करते थे। कटाक्ष करते रहे, उनमें कुछ अभी-भी जीवित हैं और आँखें लाल करके देखते हैं जैसे उनके यहाँ केवल-अंगार ही अंगार है । बहरहाल उस विषम परिस्थितियों में भी बाबूजी ने हार नहीं माना । उस समय बंगाल में नौकरी करना मुश्किल हुए जा रहा था । ईमानदारी का इनाम भी इसी दौरान उन्हें उनकी सेवा में मिला । यह इनाम पुरस्कार नहीं अपितु सेवा-हानि थी। कारण बहुत छोटा था-अस्वस्थ होना ।  वह दौर हम सभी के जीवन का क्रांतिकारी दौर रहा । उस समय भी बहुत कम पैसों में किस तरीके से घर-परिवार के साथ शिक्षा को उन्होंने प्रभावित नहीं होने दिया । हम सभी को इलाहाबाद में रहते हुए यह एहसास ही नहीं हुआ कि उनके साथ इतनी बड़ी घटना घटी है । हमें इसका पता तब लगा जब सब कुछ सामान्य हो गया था । इस कारण वह हमारे लिये नीलकण्ठ से भी बढ़कर थे । स्वयं विष पीकर हमें अमृत पान कराया और आज हम सपरिवार गृह जनपद में उनके न होते हुए भी उनके पदचाप को महसूस करके जीवन निर्वहन कर रहे हैं। यह उन लोगों के ऊपर बहुत बड़ा तमाचा है, जिन्होंने बचपन की स्मृतियों को जीवंत बनाये रखा।


ज़ब बचपन की ओर झाँकते हुए गाँव से पातुलिया, बैरकपुर होते हुए इलाहाबाद, हासन, बिलासपुर, ज्ञानपुर और पुनः बलिया तक हुए अपने जैविक यात्रा पर एक नजर फेरता हूँ तो बाबूजी के शब्द हमें हर कदम पर मजबूत बनाते रहे। 


हमें इलाहाबाद की अनेक घटनाएँ क्रमवार एक के बाद एक आती रहती है । इनमें मिश्र बंधुओं सहित अन्य अनेक अभिभावकों को दहशत का माहौल बनाते और अपने बच्चों को अनाप-शनाप, गाली-गलौज करते देखा सुना हैं । महीने में एक दिन उनके लिए वह दिन काले विवर की तरह था । जब कभी उन लोगों के आने का एहसास होता था तो वे अल्लसुबह स्नान-ध्यान के बाद कुर्सी पर बैठ किताब आगे रख चिल्लपों की आवाज सुनते थे । लेकिन मेरे बाबूजी ने कभी भी अपशब्द नहीं बोला । हम लोग अक्सर कहते थे कि आप थोड़ा गंभीर रहिये । वहाँ उस समय भी बच्चों में दो तरह की प्रवृत्तियों को सहजतापूर्वक देखा जा सकता था । शहर के छात्र दो वर्गों में बंटे थे-यथा-हॉस्टल और डेलीगेसी ।  निःसंदेह पहला वर्ग कुछ इलिट, कुछ अमीर, कुछ जमीर, कुछ पढ़ा-लिखा, कुछ ज्ञानी, कुछ जुगाडू,  कुछ नेता, कुछ माफिया, कुछ शूटर, कुछ उत्तराधिकारी के लिए प्रचलित था, जिनके मन के किसी न किसी कोने में डेलीगेसी उनके लिए दोयम भी प्रतीत होता था । बाद में स्थिति सुधरी और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के उपरांत और सुखद हो गयी ।


कुल मिलाकर इलाहाबाद के जीवन की एक-एक कहानियों के केंद्र में बाबूजी की भावनाओं की प्रधानता है । इसकी चर्चा पुनः करने को अभिशप्त हूँ क्योंकि मुझे पता है कि मैं स्वयं उनके जैसा पिता नहीं हो सकता परन्तु उनकी जिजीविषा एवं कर्त्तव्य पथ पर चलने तथा राह दिखाने का काम यदि मुझमें कुछ है तो यह बाबूजी की ही देन है । 


भले ही हम बाबा नागार्जुन की तरह ‘बाबूजी अभाव का आसव ठेठ बचपन से पीता आ रहे थे परन्तु उनके यहाँ अभाव में भी भावों  की गगरी में अमृत रस कम नहीं पड़ता था । उनकी एक कमजोरी हमारी सबसे बड़ी संपत्ति थी । वह कहीं भी कभी भी अपने मन की तमाम परतों को खोलकर किसी अनजान राही-मित्र-कुमित्र के सामने अपनी कहानी कहने लगते थे । कभी-कभी यह स्थिति उस दौरान हम सबको असहज भी कर देती थी । लेकिन यही साफ़गोई उन्हें एक दरजा ऊपर स्थापित करती है । उनके चैतन्य अवस्था में हमारी अंतिम बात चार दिसम्बर 2016 को हुई । हमारे यहाँ वार्षिकोत्सव का कार्यक्रम था । उस दिन के  अंतिम शब्द आज भी गूँजते हैं । जैसे वह आज भी हमारे आस-पास मौजूद हों और पूछ रहे हों-हमारा हाल ।


आज छः वर्ष हुए, 09.12.2016 को मझधार में छोड़ निकल गये अंतिम यात्रा पर...! 


हे तात !


वह काली 

अँधेरी अंतिम रात

घाम के इंतजार में

नहीं मिली आपको

जीवन की सौगात ।


बिछड़ने के भय से

काँपने लगा था हाथ 

कहाँ कमी रह गयी

यह बूझते-जानते ही

डागडर ने कर दिया 

शरीर की अधूरी बात ।


एक वर्ष बीत जाने पर

मन भ्रमित होता रहा

ढूढते मन को सहारा दे

शरीर भी दिया जवाब ।


दूसरे बरिस में अनजान 

भय बड़े होने की मजबूरी 

जीवन से बहुत दूर तक 

भगाता जाता-पछताता।।


तीन-चार और पाँच 

समय जब खींच लाया

स्मृतियों के पास और पास

जड़ता जीवन की सौगात ।


आज छः साल बीतते ही

बहुत कुछ बदलने लगा

काफूर बने लोग भी अब

धीरे-धीरे कहने ही लगे।


बहुत करीब थी प्रशंसा

किसे पता था कि तीर

बिना प्रत्यंचा खींचे ही

बहुत दूर तलक जायेगा। 🙏


🌷🙏विनम्र श्रद्धांजलि ।🌷🙏


बुधवार, 9 नवंबर 2022

गैंग्रीन (रोज़) : अज्ञेय की कहानी

 (नोट- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की प्रसिद्ध कहानी गैंग्रीन (रोज़)  राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत सामान्य पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष-(तृतीय सेमेस्टर) में हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। इसका मूल पाठ हुबहू प्रस्तुत हैं।–सम्पादक)


मूल पाठ

गैंग्रीन (रोज़) : अज्ञेय की कहानी

            दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ामानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही होउसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्यअस्पृश्यकिन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकरपहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, “आ जाओ!” और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, “वे यहाँ नहीं है?”

अभी आये नहींदफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।

कब के गये हुए हैं?”

सवेरे उठते ही चले जाते हैं।

मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, “और तुम इतनी देर क्या करती हो?” पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।

मालती एक पंखा उठा लायीऔर मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, “नहींमुझे नहीं चाहिए।” पर वह नहीं मानीबोली,”वाह! चाहिए कैसे नहींइतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…”

मैंने कहा, “अच्छालाओमुझे दे दो।

वह शायद ‘ना’ करनेवाली थीपर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुएदुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन हैकिन्तु उसे सखी कहना ही उचित हैक्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैंइकट्ठे लड़े और पिटे हैंऔर हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थीऔर हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही हैवह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा थातब वह लड़की ही थीअब वह विवाहिता हैएक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्यायह मैंने अभी तक सोचा नहीं थाकिन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा थायह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, “इसका नाम क्या है?”

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नाम तो कोई निश्चित नहीं कियावैसे टिटी कहते हैं।

मैंने उसे बुलाया, “टिटीटीटीआ जा” पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गयाऔर रुआँसा-सा होकर कहने लगा, “उहुं-उहुं-उहुं-ऊं…”

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखाऔर फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही थाजिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछेकिन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआमालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँकैसे आया हूँ… चुप बैठी हैक्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयीया अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती हैक्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भीऐसा मौनजैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए


मैंने कुछ खिन्न-सा होकरदूसरी ओर देखते हुए कहा, “जान पड़ता हैतुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई।

उसने एकाएक चौंककर कहा, “हूँ?”

यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक थाकिन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, ‘केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहींचुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहींतब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थीकिन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखाउन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव थामानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा होकिसी बीती हुई बात को याद करने कीकिसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने कीकिसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने कीऔर चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं हैचिरविस्मृति में मानो मर गया हैउतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ामानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया होवह उसे उतारकर फेंकना चाहेपर उतार न पाये

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखापर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गयेतब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।

वेयानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा थायद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयीऔर हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगेउनकी नौकरी के बारे मेंउनके जीवन के बारे मेंउस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैंएक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैंउसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैंउसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती हैकेवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैंडिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता हैनित्य वही कामउसी प्रकार के मरीजवही हिदायतेंवही नुस्खेवही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, “तुम नहीं खोओगीया खा चुकीं?”

महेश्वर बोलेकुछ हँसकर, “वह पीछे खाया करती है…” पति ढाई बजे खाना खाने आते हैंइसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, “आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?”

मैंने उत्तर दिया, “वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता हैभूख बढ़ी हुई होती हैपर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।

मालती टोककर बोली, “ऊँहूमेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…”

मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा थापर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

मैंने कहा, “यह रोता क्यों है?”

मालती बोली, “हो ही गया है चिड़चिड़ा-साहमेशा ही ऐसा रहता है।

फिर बच्चे को डाँटकर कहा, “चुपकर।” जिससे वह और भी रोने लगामालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, “अच्छा लेरो ले।” और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना हैयहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैंजिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़ेगैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, “अब खाना तो खा लोमैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।

वह बोली, “खा लूँगीमेरे खाने की कौन बात है,” किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगाजिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।

दूरशायद अस्पताल में हीतीन खड़के। एकाएक मैं चौंकामैंने सुनामालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है “तीन बज गये…” मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो

थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयीमैंने पूछा, “तुम्हारे लिए कुछ बचा भी थासब-कुछ तो…”

बहुत था।

हाँबहुत थाभाजी तो सारी मैं ही खा गया थावहाँ बचा कुछ होगा नहींयों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।” मैंने हँसकर कहा।

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, “यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहींकोई आता-जाता हैतो नीचे से मँगा लेते हैंमुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैंजो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है

मैंने पूछा, “नौकर कोई नहीं है?”

कोई ठीक मिला नहींशायद एक-दो दिन में हो जाए।

बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?”

और कौन?” कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।

मैंने पूछा, “कहाँ गयी थीं?”

आज पानी ही नहीं हैबरतन कैसे मँजेंगे?”

क्योंपानी को क्या हुआ?”

रोज़ ही होता है… कभी वक़्त पर तो आता नहींआज शाम को सात बजे आएगातब बरतन मँजेंगे।

चलोतुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,” कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगाछुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं थापर मेरी सहायता टिटी ने कीएकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।

थोड़ी देर फिर मौन रहामैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगातब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहींऔर बोली, “यहाँ आये कैसे?”

मैंने कहा ही तो, “अच्छाअब याद आयातुमसे मिलने आया थाऔर क्या करने?”

तो दो-एक दिन रहोगे न?”

नहींकल चला जाऊँगाज़रूरी जाना है।

अज्ञेय



मालती कुछ नहीं बोलीकुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआमैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तुयहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँपर बात भी क्या की जायेमुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई हैवह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही हैमैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँजैसे-हाँजैसे यह घरजैसे मालती

मैंने पूछा, “तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?” मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।

यहाँ!” कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’

मैंने कहा, “अच्छामैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…” और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, “आये कैसे होलारी में?”

पैदल।

इतनी दूरबड़ी हिम्मत की।

आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।

ऐसे ही आये हो?”

नहींकुली पीछे आ रहा हैसामान लेकर। मैंने सोचाबिस्तरा ले ही चलूँ।

अच्छा कियायहाँ तो बस…” कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, “तब तुम थके होगेलेट जाओ।

नहींबिलकुल नहीं थका।

रहने भी दोथके नहींभला थके हैं?”

और तुम क्या करोगी?”

मैं बरतन माँज रखती हूँपानी आएगा तो धुल जाएँगे।

मैंने कहा, “वाह!” क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयीटिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगीजिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगेमैं ऊँघने लगा

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया – मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटीमैं उस मौन में सुनने लगा

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी… वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखीअबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुनामालती एक बिलकुल अनैच्छिकअनुभूतिहीननीरसयन्त्रवत् – वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, “चार बज गये”, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता होवैसे हीजैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता हैऔर यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कबकैसे मुझे नींद आ गयी।

तब छह कभी के बज चुके थेजब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुलीऔर मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आयापानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, “आपने बड़ी देर की?”

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, “हाँआज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ाएक कर आया हूँदूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।

मैंने पूछा, “ गैंग्रीन कैसे हो गया।

एक काँटा चुभा थाउसी से हो गयाबड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…”

मैंने पूछा, “यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैंआय के लिहाज से नहींडॉक्टरी के अभ्यास के लिए?”

बोले, “हाँमिल ही जाते हैंयही गैंग्रीनहर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता हैनीचे बड़े अस्पतालों में भी…”

मालती आँगन से ही सुन रही थीअब आ गयी, “बोली, “हाँकेस बनाते देर क्या लगती हैकाँटा चुभा थाइस पर टाँग काटनी पड़ेयह भी कोई डॉक्टरी हैहर दूसरे दिन किसी की टाँगकिसी की बाँह काट आते हैंइसी का नाम है अच्छा अभ्यास!

महेश्वर हँसेबोले, “न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?”

हाँपहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगेआज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…”

महेश्वर ने उत्तर नहीं दियामुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, “ऐसे ही होते हैंडॉक्टरसरकारी अस्पताल है नक्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।

तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा – टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्

मालती ने कहा, “पानी!” और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जानाबरतन धोए जाने लगे हैं

टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा थाअब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, “उधर मत जा!” और उसे गोद में उठा लियावह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

महेश्वर बोले, “अब रो-रोकर सो जाएगातभी घर में चैन होगी।

मैंने पूछा, “आप लोग भीतर ही सोते हैंगरमी तो बहुत होती है?”

होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैंपर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जायेअब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।” फिर कुछ रुककर बोले, “आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दियाऔर पलंग बाहर खींचने लगेमैंने कहा, “मैं मदद करता हूँ”, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।

अब हम तीनों… महेश्वरटिटी और मैंदो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगेबाहर आकर वह कुछ चुप हो गया थाकिन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता याऔर फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थेया महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे

मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चलीतब महेश्वर ने कहा, “थोड़े-से आम लाया हूँवह भी धो लेना।

कहाँ हैं?”

अँगीठी पर रखे हैंकाग़ज़ में लिपटे हुए।

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रहीजब दोनों ओर पढ़ चुकीतब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।

मुझे एकाएक याद आयाबहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुखसबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थीउसके माता-पिता तंग थेएक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करोहफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी होनहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले लीपर क्या उसने पढ़ीवह नित्य ही उसके दस पन्नेबीस पेजफाड़ कर फेंक देतीअपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, “किताब समाप्त कर ली?” तो उत्तर दिया…”हाँकर ली,” पिता ने कहा, “लाओमैं प्रश्न पूछूँगातो चुप खड़ी रही। पिता ने कहातो उद्धत स्वर में बोली, “किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी हैमैं नहीं पढ़ूँगी।

उसके बाद वह बहुत पिटीपर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी हैकितनी शान्तऔर एक अखबार के टुकड़े को तरसती है… यह क्यायह

तभी महेश्वर ने पूछा, “रोटी कब बनेगी!

बसअभी बनाती हूँ।

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चलीतब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयीवह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं मानामालती उसे भी गोद में लेकर चली गयीरसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी

और हम दोनों चुपचाप रात्रि कीऔर भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने कीऔर न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया थापर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया थापर तुरन्त ही लेट गया।

मैंने महेश्वर से पूछा, “आप तो थके होंगेसो जाइये।

वह बोले, “थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आये हैं।” किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया… थका तो मैं भी हूँ।

मैं चुप रहाथोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बतायावह ऊँघ रहे हैं।

तब लगभग साढ़े दस बजे थेमालती भोजन कर रही थी।

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहावह किसी विचार में – यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहींलीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थीफिर मैं इधर-उधर खिसक करपर आराम से होकरआकाश की ओर देखने लगा।

पूर्णिमा थीआकाश अनभ्र था।

मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही हैअत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही हैमानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही होझर रही हो

मैंने देखापवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल हैकिन्तु करुण नहींअशान्तिमय हैकिन्तु उद्वेगमय नहीं

मैंने देखाप्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैंवे भी सुन्दर दीखते हैं

मैंने देखा – दिन-भर की तपनअशान्तिथकानदाहपहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैंजिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं

पर यह सब मैंने ही देखाअकेले मैंने… महेश्वर ऊँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थीऔर कह रही थी…”अभी छुट्टी हुई जाती है।” और मेरे कहने पर ही कि “ग्यारह बजने वाले हैं,” धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखामालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिएएक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा – “क्या हुआ?” मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ामालती रसोई से बाहर निकल आयीमैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, “चोट बहुत लग गयी बेचारे के।

यह सब मानो एक ही क्षण मेंएक ही क्रिया की गति में हो गया।

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “इसके चोटें लगती ही रहती हैरोज़ ही गिर पड़ता है।

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गयाफिर एकाएक मेरे मन नेमेरे समूचे अस्तित्व नेविद्रोह के स्वर में कहा – मेरे मन न भीतर हीबाहर एक शब्द भी नहीं निकला – “माँयुवती माँयह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया हैजो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो – और यह अभीजब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!

औरतब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं हैमैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी हैउनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी हैउसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहींउसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहींमैंने उस छाया को देख भी लिया

इतनी देर मेंपूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया थायद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थीकिन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजामैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगीऔर घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, “ग्यारह बज गये…”

 

-सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय 

(डलहौजीमई 1934)



(नोट- अज्ञेय की कहानी कला, लेखन शैली, साहित्यिक अवदान एवं प्रस्तुत निबंध की विश्लेषणात्मक व्याख्या शीघ्र ही इस ब्लॉग एवं प्रोफेसर एकेडमी बलिया के यू-ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत किया जायेगा, जिसका लिंक निम्नवत है-

प्रोफेसर एकेडमी बलिया, https://www.youtube.com/@ProfessorAcademyBallia

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