बुधवार, 9 नवंबर 2022

गैंग्रीन (रोज़) : अज्ञेय की कहानी

 (नोट- सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय की प्रसिद्ध कहानी गैंग्रीन (रोज़)  राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत सामान्य पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष-(तृतीय सेमेस्टर) में हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। इसका मूल पाठ हुबहू प्रस्तुत हैं।–सम्पादक)


मूल पाठ

गैंग्रीन (रोज़) : अज्ञेय की कहानी

            दोपहर में उस सूने आँगन में पैर रखते हुए मुझे ऐसा जान पड़ामानो उस पर किसी शाप की छाया मँडरा रही होउसके वातावरण में कुछ ऐसा अकथ्यअस्पृश्यकिन्तु फिर भी बोझल और प्रकम्पमय और घना-सा फैल रहा था

मेरी आहट सुनते ही मालती बाहर निकली। मुझे देखकरपहचानकर उसकी मुरझायी हुई मुख-मुद्रा तनिक से मीठे विस्मय से जागी-सी और फिर पूर्ववत् हो गयी। उसने कहा, “आ जाओ!” और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये भीतर की ओर चली। मैं भी उसके पीछे हो लिया।

भीतर पहुँचकर मैंने पूछा, “वे यहाँ नहीं है?”

अभी आये नहींदफ़्तर में हैं। थोड़ी देर में आ जाएँगे। कोई डेढ़-दो बजे आया करते हैं।

कब के गये हुए हैं?”

सवेरे उठते ही चले जाते हैं।

मैं ‘हूँ’ कर पूछने को हुआ, “और तुम इतनी देर क्या करती हो?” पर फिर सोचा, ‘आते ही एकाएक प्रश्न ठीक नहीं हैं। मैं कमरे के चारों ओर देखने लगा।

मालती एक पंखा उठा लायीऔर मुझे हवा करने लगी। मैंने आपत्ति करते हुए कहा, “नहींमुझे नहीं चाहिए।” पर वह नहीं मानीबोली,”वाह! चाहिए कैसे नहींइतनी धूप में तो आये हो। यहाँ तो…”

मैंने कहा, “अच्छालाओमुझे दे दो।

वह शायद ‘ना’ करनेवाली थीपर तभी दूसरे कमरे से शिशु के रोने की आवाज़ सुनकर उसने चुपचाप पंखा मुझे दे दिया और घुटनों पर हाथ टेककर एक थकी हुई ‘हुंह’ करके उठी और भीतर चली गयी।

मैं उसके जाते हुएदुबले शरीर को देखकर सोचता रहा – यह क्या है… यह कैसी छाया-सी इस घर पर छायी हुई है

मालती मेरी दूर के रिश्ते की बहन हैकिन्तु उसे सखी कहना ही उचित हैक्योंकि हमारा परस्पर सम्बन्ध सख्य का ही रहा है। हम बचपन से इकट्ठे खेले हैंइकट्ठे लड़े और पिटे हैंऔर हमारी पढ़ाई भी बहुत-सी इकट्ठे ही हुई थीऔर हमारे व्यवहार में सदा सख्य की स्वेच्छा और स्वच्छन्दता रही हैवह कभी भ्रातृत्व के या बड़े-छोटेपन के बन्धनों में नहीं घिरा

मैं आज कोई चार वर्ष बाद उसे देखना आया हूँ। जब मैंने उसे इससे पूर्व देखा थातब वह लड़की ही थीअब वह विवाहिता हैएक बच्चे की माँ भी है। इससे कोई परिवर्तन उसमें आया होगा और यदि आया होगा तो क्यायह मैंने अभी तक सोचा नहीं थाकिन्तु अब उसकी पीठ की ओर देखता हुआ मैं सोच रहा थायह कैसी छाया इस घर पर छायी हुई है… और विशेषतया मालती पर

मालती बच्चे को लेकर लौट आयी और फिर मुझसे कुछ दूर नीचे बिछी हुई दरी पर बैठ गयी। मैंने अपनी कुरसी घुमाकर कुछ उसकी ओर उन्मुख होकर पूछा, “इसका नाम क्या है?”

मालती ने बच्चे की ओर देखते हुए उत्तर दिया, “नाम तो कोई निश्चित नहीं कियावैसे टिटी कहते हैं।

मैंने उसे बुलाया, “टिटीटीटीआ जा” पर वह अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मेरी ओर देखता हुआ अपनी माँ से चिपट गयाऔर रुआँसा-सा होकर कहने लगा, “उहुं-उहुं-उहुं-ऊं…”

मालती ने फिर उसकी ओर एक नज़र देखाऔर फिर बाहर आँगन की ओर देखने लगी

काफ़ी देर मौन रहा। थोड़ी देर तक तो वह मौन आकस्मिक ही थाजिसमें मैं प्रतीक्षा में था कि मालती कुछ पूछेकिन्तु उसके बाद एकाएक मुझे ध्यान हुआमालती ने कोई बात ही नहीं की… यह भी नहीं पूछा कि मैं कैसा हूँकैसे आया हूँ… चुप बैठी हैक्या विवाह के दो वर्ष में ही वह बीते दिन भूल गयीया अब मुझे दूर-इस विशेष अन्तर पर-रखना चाहती हैक्योंकि वह निर्बाध स्वच्छन्दता अब तो नहीं हो सकती… पर फिर भीऐसा मौनजैसा अजनबी से भी नहीं होना चाहिए


मैंने कुछ खिन्न-सा होकरदूसरी ओर देखते हुए कहा, “जान पड़ता हैतुम्हें मेरे आने से विशेष प्रसन्नता नहीं हुई।

उसने एकाएक चौंककर कहा, “हूँ?”

यह ‘हूँ’ प्रश्न-सूचक थाकिन्तु इसलिए नहीं कि मालती ने मेरी बात सुनी नहीं थी, ‘केवल विस्मय के कारण। इसलिए मैंने अपनी बात दुहरायी नहींचुप बैठ रहा। मालती कुछ बोली ही नहींतब थोड़ी देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। वह एकटक मेरी ओर देख रही थीकिन्तु मेरे उधर उन्मुख होते ही उसने आँखें नीची कर लीं। फिर भी मैंने देखाउन आँखों में कुछ विचित्र-सा भाव थामानो मालती के भीतर कहीं कुछ चेष्टा कर रहा होकिसी बीती हुई बात को याद करने कीकिसी बिखरे हुए वायुमंडल को पुनः जगाकर गतिमान करने कीकिसी टूटे हुए व्यवहार-तन्तु को पुनरुज्जीवित करने कीऔर चेष्टा में सफल न हो रहा हो… वैसे जैसे देर से प्रयोग में न लाये हुए अंग को व्यक्ति एकाएक उठाने लगे और पाये कि वह उठता ही नहीं हैचिरविस्मृति में मानो मर गया हैउतने क्षीण बल से (यद्यपि वह सारा प्राप्य बल है) उठ नहीं सकता… मुझे ऐसा जान पड़ामानो किसी जीवित प्राणी के गले में किसी मृत जन्तु का तौक डाल दिया गया होवह उसे उतारकर फेंकना चाहेपर उतार न पाये

तभी किसी ने किवाड़ खटखटाये। मैंने मालती की ओर देखापर वह हिली नहीं। जब किवाड़ दूसरी बार खटखटाये गयेतब वह शिशु को अलग करके उठी और किवाड़ खोलने गयी।

वेयानी मालती के पति आये। मैंने उन्हें पहली बार देखा थायद्यपि फ़ोटो से उन्हें पहचानता था। परिचय हुआ। मालती खाना तैयार करने आँगन में चली गयीऔर हम दोनों भीतर बैठकर बातचीत करने लगेउनकी नौकरी के बारे मेंउनके जीवन के बारे मेंउस स्थान के बारे में और ऐसे अन्य विषयों के बारे में जो पहले परिचय पर उठा करते हैंएक तरह का स्वरक्षात्मक कवच बनकर

मालती के पति का नाम है महेश्वर। वह एक पहाड़ी गाँव में सरकारी डिस्पेन्सरी के डॉक्टर हैंउसी हैसियत से इन क्वार्टरों में रहते हैं। प्रातःकाल सात बजे डिस्पेन्सरी चले जाते हैं और डेढ़ या दो बजे लौटते हैंउसके बाद दोपहर-भर छुट्टी रहती हैकेवल शाम को एक-दो घंटे फिर चक्कर लगाने के लिए जाते हैंडिस्पेन्सरी के साथ के छोटे-से अस्पताल में पड़े हुए रोगियों को देखने और अन्य ज़रूरी हिदायतें करने… उनका जीवन भी बिलकुल एक निर्दिष्ट ढर्रे पर चलता हैनित्य वही कामउसी प्रकार के मरीजवही हिदायतेंवही नुस्खेवही दवाइयाँ। वह स्वयं उकताये हुए हैं और इसीलिए और साथ ही इस भयंकर गरमी के कारण वह अपने फ़ुरसत के समय में भी सुस्त ही रहते हैं

मालती हम दोनों के लिए खाना ले आयी। मैंने पूछा, “तुम नहीं खोओगीया खा चुकीं?”

महेश्वर बोलेकुछ हँसकर, “वह पीछे खाया करती है…” पति ढाई बजे खाना खाने आते हैंइसलिए पत्नी तीन बजे तक भूखी बैठी रहेगी!

महेश्वर खाना आरम्भ करते हुए मेरी ओर देखकर बोले, “आपको तो खाने का मज़ा क्या ही आयेगा ऐसे बेवक़्त खा रहे हैं?”

मैंने उत्तर दिया, “वाह! देर से खाने पर तो और अच्छा लगता हैभूख बढ़ी हुई होती हैपर शायद मालती बहिन को कष्ट होगा।

मालती टोककर बोली, “ऊँहूमेरे लिए तो यह नयी बात नहीं है… रोज़ ही ऐसा होता है…”

मालती बच्चे को गोद में लिये हुए थी। बच्चा रो रहा थापर उसकी ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था।

मैंने कहा, “यह रोता क्यों है?”

मालती बोली, “हो ही गया है चिड़चिड़ा-साहमेशा ही ऐसा रहता है।

फिर बच्चे को डाँटकर कहा, “चुपकर।” जिससे वह और भी रोने लगामालती ने भूमि पर बैठा दिया। और बोली, “अच्छा लेरो ले।” और रोटी लेने आँगन की ओर चली गयी!

जब हमने भोजन समाप्त किया तब तीन बजने वाले थे। महेश्वर ने बताया कि उन्हें आज जल्दी अस्पताल जाना हैयहाँ एक-दो चिन्ताजनक केस आये हुए हैंजिनका ऑपरेशन करना पड़ेगा… दो की शायद टाँग काटनी पड़ेगैंग्रीन हो गया है… थोड़ी ही देर में वह चले गये। मालती किवाड़ बन्द कर आयी और मेरे पास बैठने ही लगी थी कि मैंने कहा, “अब खाना तो खा लोमैं उतनी देर टिटी से खेलता हूँ।

वह बोली, “खा लूँगीमेरे खाने की कौन बात है,” किन्तु चली गयी। मैं टिटी को हाथ में लेकर झुलाने लगाजिससे वह कुछ देर के लिए शान्त हो गया।

दूरशायद अस्पताल में हीतीन खड़के। एकाएक मैं चौंकामैंने सुनामालती वहीं आँगन में बैठी अपने-आप ही एक लम्बी-सी थकी हुई साँस के साथ कह रही है “तीन बज गये…” मानो बड़ी तपस्या के बाद कोई कार्य सम्पन्न हो गया हो

थोड़ी ही देर में मालती फिर आ गयीमैंने पूछा, “तुम्हारे लिए कुछ बचा भी थासब-कुछ तो…”

बहुत था।

हाँबहुत थाभाजी तो सारी मैं ही खा गया थावहाँ बचा कुछ होगा नहींयों ही रौब तो न जमाओ कि बहुत था।” मैंने हँसकर कहा।

मालती मानो किसी और विषय की बात कहती हुई बोली, “यहाँ सब्ज़ी-वब्ज़ी तो कुछ होती ही नहींकोई आता-जाता हैतो नीचे से मँगा लेते हैंमुझे आये पन्द्रह दिन हुए हैंजो सब्ज़ी साथ लाये थे वही अभी बरती जा रही है

मैंने पूछा, “नौकर कोई नहीं है?”

कोई ठीक मिला नहींशायद एक-दो दिन में हो जाए।

बरतन भी तुम्हीं माँजती हो?”

और कौन?” कहकर मालती क्षण-भर आँगन में जाकर लौट आयी।

मैंने पूछा, “कहाँ गयी थीं?”

आज पानी ही नहीं हैबरतन कैसे मँजेंगे?”

क्योंपानी को क्या हुआ?”

रोज़ ही होता है… कभी वक़्त पर तो आता नहींआज शाम को सात बजे आएगातब बरतन मँजेंगे।

चलोतुम्हें सात बजे तक छुट्टी हुई,” कहते हुए मैं मन-ही-मन सोचने लगा, ‘अब इसे रात के ग्यारह बजे तक काम करना पड़ेगाछुट्टी क्या खाक हुई?’

यही उसने कहा। मेरे पास कोई उत्तर नहीं थापर मेरी सहायता टिटी ने कीएकाएक फिर रोने लगा और मालती के पास जाने की चेष्टा करने लगा। मैंने उसे दे दिया।

थोड़ी देर फिर मौन रहामैंने जेब से अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों के लिखे हुए नोट देखने लगातब मालती को याद आया कि उसने मेरे आने का कारण तो पूछा नहींऔर बोली, “यहाँ आये कैसे?”

मैंने कहा ही तो, “अच्छाअब याद आयातुमसे मिलने आया थाऔर क्या करने?”

तो दो-एक दिन रहोगे न?”

नहींकल चला जाऊँगाज़रूरी जाना है।

अज्ञेय



मालती कुछ नहीं बोलीकुछ खिन्न सी हो गयी। मैं फिर नोटबुक की तरफ़ देखने लगा।

थोड़ी देर बाद मुझे भी ध्यान हुआमैं आया तो हूँ मालती से मिलने किन्तुयहाँ वह बात करने को बैठी है और मैं पढ़ रहा हूँपर बात भी क्या की जायेमुझे ऐसा लग रहा था कि इस घर पर जो छाया घिरी हुई हैवह अज्ञात रहकर भी मानो मुझे भी वश में कर रही हैमैं भी वैसा ही नीरस निर्जीव-सा हो रहा हूँजैसे-हाँजैसे यह घरजैसे मालती

मैंने पूछा, “तुम कुछ पढ़ती-लिखती नहीं?” मैं चारों और देखने लगा कि कहीं किताबें दीख पड़ें।

यहाँ!” कहकर मालती थोड़ा-सा हँस दी। वह हँसी कह रही थी, ‘यहाँ पढ़ने को है क्या?’

मैंने कहा, “अच्छामैं वापस जाकर ज़रूर कुछ पुस्तकें भेजूँगा…” और वार्तालाप फिर समाप्त हो गया

थोड़ी देर बाद मालती ने फिर पूछा, “आये कैसे होलारी में?”

पैदल।

इतनी दूरबड़ी हिम्मत की।

आख़िर तुमसे मिलने आया हूँ।

ऐसे ही आये हो?”

नहींकुली पीछे आ रहा हैसामान लेकर। मैंने सोचाबिस्तरा ले ही चलूँ।

अच्छा कियायहाँ तो बस…” कहकर मालती चुप रह गयी फिर बोली, “तब तुम थके होगेलेट जाओ।

नहींबिलकुल नहीं थका।

रहने भी दोथके नहींभला थके हैं?”

और तुम क्या करोगी?”

मैं बरतन माँज रखती हूँपानी आएगा तो धुल जाएँगे।

मैंने कहा, “वाह!” क्योंकि और कोई बात मुझे सूझी नहीं

थोड़ी देर में मालती उठी और चली गयीटिटी को साथ लेकर। तब मैं भी लेट गया और छत की ओर देखने लगा… मेरे विचारों के साथ आँगन से आती हुई बरतनों के घिसने की खन-खन ध्वनि मिलकर एक विचित्र एक-स्वर उत्पन्न करने लगीजिसके कारण मेरे अंग धीरे-धीरे ढीले पड़ने लगेमैं ऊँघने लगा

एकाएक वह एक-स्वर टूट गया – मौन हो गया। इससे मेरी तन्द्रा भी टूटीमैं उस मौन में सुनने लगा

चार खड़क रहे थे और इसी का पहला घंटा सुनकर मालती रुक गयी थी… वही तीन बजेवाली बात मैंने फिर देखीअबकी बार उग्र रूप में। मैंने सुनामालती एक बिलकुल अनैच्छिकअनुभूतिहीननीरसयन्त्रवत् – वह भी थके हुए यन्त्र के से स्वर में कह रही है, “चार बज गये”, मानो इस अनैच्छिक समय को गिनने में ही उसका मशीन-तुल्य जीवन बीतता होवैसे हीजैसे मोटर का स्पीडो मीटर यन्त्रवत् फ़ासला नापता जाता हैऔर यन्त्रवत् विश्रान्त स्वर में कहता है (किससे!) कि मैंने अपने अमित शून्यपथ का इतना अंश तय कर लिया… न जाने कबकैसे मुझे नींद आ गयी।

तब छह कभी के बज चुके थेजब किसी के आने की आहट से मेरी नींद खुलीऔर मैंने देखा कि महेश्वर लौट आये हैं और उनके साथ ही बिस्तर लिये हुए मेरा कुली। मैं मुँह धोने को पानी माँगने को ही था कि मुझे याद आयापानी नहीं होगा। मैंने हाथों से मुँह पोंछते-पोंछते महेश्वर से पूछा, “आपने बड़ी देर की?”

उन्होंने किंचित् ग्लानि-भरे स्वर में कहा, “हाँआज वह गैंग्रीन का आपरेशन करना ही पड़ाएक कर आया हूँदूसरे को एम्बुलेन्स में बड़े अस्पताल भिजवा दिया है।

मैंने पूछा, “ गैंग्रीन कैसे हो गया।

एक काँटा चुभा थाउसी से हो गयाबड़े लापरवाह लोग होते हैं यहाँ के…”

मैंने पूछा, “यहाँ आपको केस अच्छे मिल जाते हैंआय के लिहाज से नहींडॉक्टरी के अभ्यास के लिए?”

बोले, “हाँमिल ही जाते हैंयही गैंग्रीनहर दूसरे-चौथे दिन एक केस आ जाता हैनीचे बड़े अस्पतालों में भी…”

मालती आँगन से ही सुन रही थीअब आ गयी, “बोली, “हाँकेस बनाते देर क्या लगती हैकाँटा चुभा थाइस पर टाँग काटनी पड़ेयह भी कोई डॉक्टरी हैहर दूसरे दिन किसी की टाँगकिसी की बाँह काट आते हैंइसी का नाम है अच्छा अभ्यास!

महेश्वर हँसेबोले, “न काटें तो उसकी जान गँवाएँ?”

हाँपहले तो दुनिया में काँटे ही नहीं होते होंगेआज तक तो सुना नहीं था कि काँटों के चुभने से मर जाते हैं…”

महेश्वर ने उत्तर नहीं दियामुस्करा दिये। मालती मेरी ओर देखकर बोली, “ऐसे ही होते हैंडॉक्टरसरकारी अस्पताल है नक्या परवाह है! मैं तो रोज़ ही ऐसी बातें सुनती हूँ! अब कोई मर-मुर जाए तो ख़याल ही नहीं होता। पहले तो रात-रात-भर नींद नहीं आया करती थी।

तभी आँगन में खुले हुए नल ने कहा – टिप् टिप् टिप्-टिप्-टिप्-टिप्

मालती ने कहा, “पानी!” और उठकर चली गयी। खनखनाहट से हमने जानाबरतन धोए जाने लगे हैं

टिटी महेश्वर की टाँगों के सहारे खड़ा मेरी ओर देख रहा थाअब एकाएक उन्हें छोड़कर मालती की ओर खिसकता हुआ चला। महेश्वर ने कहा, “उधर मत जा!” और उसे गोद में उठा लियावह मचलने और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा।

महेश्वर बोले, “अब रो-रोकर सो जाएगातभी घर में चैन होगी।

मैंने पूछा, “आप लोग भीतर ही सोते हैंगरमी तो बहुत होती है?”

होने को तो मच्छर भी बहुत होते हैंपर यह लोहे के पलंग उठाकर बाहर कौन ले जायेअब के नीचे जाएँगे तो चारपाइयाँ ले आएँगे।” फिर कुछ रुककर बोले, “आज तो बाहर ही सोएँगे। आपके आने का इतना लाभ ही होगा।

टिटी अभी तक रोता ही जा रहा था। महेश्वर ने उसे एक पलंग पर बिठा दियाऔर पलंग बाहर खींचने लगेमैंने कहा, “मैं मदद करता हूँ”, और दूसरी ओर से पलंग उठाकर निकलवा दिये।

अब हम तीनों… महेश्वरटिटी और मैंदो पलंगों पर बैठ गये और वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर उस कमी को छुपाने के लिए टिटी से खेलने लगेबाहर आकर वह कुछ चुप हो गया थाकिन्तु बीच-बीच में जैसे एकाएक कोई भूला हुआ कर्त्तव्य याद करके रो उठता याऔर फिर एकदम चुप हो जाता था… और कभी-कभी हम हँस पड़ते थेया महेश्वर उसके बारे में कुछ बात कह देते थे

मालती बरतन धो चुकी थी। जब वह उन्हें लेकर आँगन के एक ओर रसोई के छप्पर की ओर चलीतब महेश्वर ने कहा, “थोड़े-से आम लाया हूँवह भी धो लेना।

कहाँ हैं?”

अँगीठी पर रखे हैंकाग़ज़ में लिपटे हुए।

मालती ने भीतर जाकर आम उठाये और अपने आँचल में डाल लिये। जिस काग़ज़ में वे लिपटे हुए थे वह किसी पुराने अखबार का टुकड़ा था। मालती चलती-चलती सन्ध्या के उस क्षण प्रकाश में उसी को पढ़ती जा रही थी… वह नल के पास जाकर खड़ी उसे पढ़ती रहीजब दोनों ओर पढ़ चुकीतब एक लम्बी साँस लेकर उसे फेंककर आम धोने लगी।

मुझे एकाएक याद आयाबहुत दिनों की बात थी… जब हम अभी स्कूल में भरती हुए ही थे। जब हमारा सबसे बड़ा सुखसबसे बड़ी विजय थी हाज़िरी हो चुकने के बाद चोरी से क्लास से निकल भागना और स्कूल से कुछ दूरी पर आम के बग़ीचे में पेड़ों पर चढ़कर कच्ची आमियाँ तोड़-तोड़ खाना। मुझे याद आया… कभी जब मैं भाग आता और मालती नहीं आ पाती थी तब मैं भी खिन्न-मन लौट आया करता था।

मालती कुछ नहीं पढ़ती थीउसके माता-पिता तंग थेएक दिन उसके पिता ने उसे एक पुस्तक लाकर दी और कहा कि इसके बीस पेज रोज़ पढ़ा करोहफ़्ते भर बाद मैं देखूँ कि इसे समाप्त कर चुकी होनहीं तो मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूँगा। मालती ने चुपचाप किताब ले लीपर क्या उसने पढ़ीवह नित्य ही उसके दस पन्नेबीस पेजफाड़ कर फेंक देतीअपने खेल में किसी भाँति फ़र्क न पड़ने देती। जब आठवें दिन उसके पिता ने पूछा, “किताब समाप्त कर ली?” तो उत्तर दिया…”हाँकर ली,” पिता ने कहा, “लाओमैं प्रश्न पूछूँगातो चुप खड़ी रही। पिता ने कहातो उद्धत स्वर में बोली, “किताब मैंने फाड़ कर फेंक दी हैमैं नहीं पढ़ूँगी।

उसके बाद वह बहुत पिटीपर वह अलग बात है। इस समय मैं यही सोच रहा था कि वह उद्धत और चंचल मालती आज कितनी सीधी हो गयी हैकितनी शान्तऔर एक अखबार के टुकड़े को तरसती है… यह क्यायह

तभी महेश्वर ने पूछा, “रोटी कब बनेगी!

बसअभी बनाती हूँ।

पर अबकी बार जब मालती रसोई की ओर चलीतब टिटी की कर्त्तव्य-भावना बहुत विस्तीर्ण हो गयीवह मालती की ओर हाथ बढ़ा कर रोने लगा और नहीं मानामालती उसे भी गोद में लेकर चली गयीरसोई में बैठ कर एक हाथ से उसे थपकने और दूसरे से कई छोटे-छोटे डिब्बे उठाकर अपने सामने रखने लगी

और हम दोनों चुपचाप रात्रि कीऔर भोजन की और एक-दूसरे के कुछ कहने कीऔर न जाने किस-किस न्यूनता की पूर्ति की प्रतीक्षा करने लगे।

हम भोजन कर चुके थे और बिस्तरों पर लेट गये थे और टिटी सो गया था। मालती पलंग के एक ओर मोमजामा बिछाकर उसे उस पर लिटा गयी थी। वह सो गया थापर नींद में कभी-कभी चौंक उठता था। एक बार तो उठकर बैठ भी गया थापर तुरन्त ही लेट गया।

मैंने महेश्वर से पूछा, “आप तो थके होंगेसो जाइये।

वह बोले, “थके तो आप अधिक होंगे… अठारह मील पैदल चल कर आये हैं।” किन्तु उनके स्वर ने मानो जोड़ दिया… थका तो मैं भी हूँ।

मैं चुप रहाथोड़ी देर में किसी अपर संज्ञा ने मुझे बतायावह ऊँघ रहे हैं।

तब लगभग साढ़े दस बजे थेमालती भोजन कर रही थी।

मैं थोड़ी देर मालती की ओर देखता रहावह किसी विचार में – यद्यपि बहुत गहरे विचार में नहींलीन हुई धीरे-धीरे खाना खा रही थीफिर मैं इधर-उधर खिसक करपर आराम से होकरआकाश की ओर देखने लगा।

पूर्णिमा थीआकाश अनभ्र था।

मैंने देखा-उस सरकारी क्वार्टर की दिन में अत्यन्त शुष्क और नीरस लगने वाली स्लेट की छत भी चाँदनी में चमक रही हैअत्यन्त शीतलता और स्निग्धता से छलक रही हैमानो चन्द्रिका उन पर से बहती हुई आ रही होझर रही हो

मैंने देखापवन में चीड़ के वृक्ष… गरमी से सूख कर मटमैले हुए चीड़ के वृक्ष… धीरे-धीरे गा रहे हों… कोई राग जो कोमल हैकिन्तु करुण नहींअशान्तिमय हैकिन्तु उद्वेगमय नहीं

मैंने देखाप्रकाश से धुँधले नीले आकाश के तट पर जो चमगादड़ नीरव उड़ान से चक्कर काट रहे हैंवे भी सुन्दर दीखते हैं

मैंने देखा – दिन-भर की तपनअशान्तिथकानदाहपहाड़ों में से भाप से उठकर वातावरण में खोये जा रहे हैंजिसे ग्रहण करने के लिए पर्वत-शिशुओं ने अपनी चीड़ वृक्षरूपी भुजाएँ आकाश की ओर बढ़ा रखी हैं

पर यह सब मैंने ही देखाअकेले मैंने… महेश्वर ऊँघे रहे थे और मालती उस समय भोजन से निवृत्त होकर दही जमाने के लिए मिट्टी का बरतन गरम पानी से धो रही थीऔर कह रही थी…”अभी छुट्टी हुई जाती है।” और मेरे कहने पर ही कि “ग्यारह बजने वाले हैं,” धीरे से सिर हिलाकर जता रही थी कि रोज़ ही इतने बज जाते हैं… मालती ने वह सब-कुछ नहीं देखामालती का जीवन अपनी रोज़ की नियत गति से बहा जा रहा था और एक चन्द्रमा की चन्द्रिका के लिएएक संसार के लिए रुकने को तैयार नहीं था

चाँदनी में शिशु कैसा लगता है इस अलस जिज्ञासा से मैंने टिटी की ओर देखा और वह एकाएक मानो किसी शैशवोचित वामता से उठा और खिसक कर पलंग से नीचे गिर पड़ा और चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा। महेश्वर ने चौंककर कहा – “क्या हुआ?” मैं झपट कर उसे उठाने दौड़ामालती रसोई से बाहर निकल आयीमैंने उस ‘खट्’ शब्द को याद करके धीरे से करुणा-भरे स्वर में कहा, “चोट बहुत लग गयी बेचारे के।

यह सब मानो एक ही क्षण मेंएक ही क्रिया की गति में हो गया।

मालती ने रोते हुए शिशु को मुझसे लेने के लिए हाथ बढ़ाते हुए कहा, “इसके चोटें लगती ही रहती हैरोज़ ही गिर पड़ता है।

एक छोटे क्षण-भर के लिए मैं स्तब्ध हो गयाफिर एकाएक मेरे मन नेमेरे समूचे अस्तित्व नेविद्रोह के स्वर में कहा – मेरे मन न भीतर हीबाहर एक शब्द भी नहीं निकला – “माँयुवती माँयह तुम्हारे हृदय को क्या हो गया हैजो तुम अपने एकमात्र बच्चे के गिरने पर ऐसी बात कह सकती हो – और यह अभीजब तुम्हारा सारा जीवन तुम्हारे आगे है!

औरतब एकाएक मैंने जाना कि वह भावना मिथ्या नहीं हैमैंने देखा कि सचमुच उस कुटुम्ब में कोई गहरी भयंकर छाया घर कर गयी हैउनके जीवन के इस पहले ही यौवन में घुन की तरह लग गयी हैउसका इतना अभिन्न अंग हो गयी है कि वे उसे पहचानते ही नहींउसी की परिधि में घिरे हुए चले जा रहे हैं। इतना ही नहींमैंने उस छाया को देख भी लिया

इतनी देर मेंपूर्ववत् शान्ति हो गयी थी। महेश्वर फिर लेट कर ऊँघ रहे थे। टिटी मालती के लेटे हुए शरीर से चिपट कर चुप हो गया थायद्यपि कभी एक-आध सिसकी उसके छोटे-से शरीर को हिला देती थी। मैं भी अनुभव करने लगा था कि बिस्तर अच्छा-सा लग रहा है। मालती चुपचाप ऊपर आकाश में देख रही थीकिन्तु क्या चन्द्रिका को या तारों को?

तभी ग्यारह का घंटा बजामैंने अपनी भारी हो रही पलकें उठा कर अकस्मात् किसी अस्पष्ट प्रतीक्षा से मालती की ओर देखा। ग्यारह के पहले घंटे की खड़कन के साथ ही मालती की छाती एकाएक फफोले की भाँति उठी और धीरे-धीरे बैठने लगीऔर घंटा-ध्वनि के कम्पन के साथ ही मूक हो जानेवाली आवाज़ में उसने कहा, “ग्यारह बज गये…”

 

-सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय 

(डलहौजीमई 1934)



(नोट- अज्ञेय की कहानी कला, लेखन शैली, साहित्यिक अवदान एवं प्रस्तुत निबंध की विश्लेषणात्मक व्याख्या शीघ्र ही इस ब्लॉग एवं प्रोफेसर एकेडमी बलिया के यू-ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत किया जायेगा, जिसका लिंक निम्नवत है-

प्रोफेसर एकेडमी बलिया, https://www.youtube.com/@ProfessorAcademyBallia

 पाठ्यक्रम में शामिल अन्य कहानियों को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक को क्लिक करें -

 1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

 2. जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

 3. तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम-रेणु की कहानी

    4. यशपाल की कहानी परदा

    5. ज्ञानरंजन की कहानी पिता

 

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