डायरी का पन्ना-१
सावन का महीना, रुक-रुक कर बारीश की बूँदें लोगों को शीतलता प्रदान कर रही
थी. मैं अपने घर-परिवार में व्यस्त कुछ नया करने के लिए उतावला हो रहा था.
इसी में मेरी बेगम ने दबाव बनाना शुरू कर दिया कि बच्चे को बिलासपुर भेजना
हैं. सभी के बच्चे जा रहे हैं. हम भी समर्थ को बड़े स्कूल में एडमिशन करा
दें. मैं एक बार तो यह सुनकर चौकन्ना हो गया. एक तो स्कूल के बड़े होने की
बात और दूसरा २५ किलोमीटर दूर रोज जाना-आना. सच कहें तो यह हमारे लिए असह्य
था कि मैं अपने बच्चे को इतनी दूर भेजूं. लेकिन अंततः थक-हारकर मैं भी
एडमिशन करा दिया. चूकि मेरा बच्चा कक्षा-१ में पढ़ने जाने वाला था, उम्र भी
लगभग हो गयी थी, इसलिए मैं थोडा निश्चिंत हो गया. थोडी देर हो चुकी थी
यानी जुलाई का पहला हफ्ता बीत चुका था इस कारण स्कूल में पाठ्यक्रम पूरा
करने की बात भी आने वाली थी. बहरहाल वह दिन आ ही गया जब बच्चे को दूर स्कूल
जाने की तैयारी होने लगी.
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मेरे लाडले ले स्कूली सफर का पहला दिन |
एक समय था जब हम लोग गाँव में पास के ही स्कूल में पढ़ने के लिए जाते थे, हमें नही लगता कि हमारे माता-पिता के मन में स्कूल जाने की तैयारी को इतने वृहद रूप में लेने की बात आयी हो. हम तो बस गए और जाने का क्रम शुरू हो गया. लेकिन आज ८ जुलाई को हमारे घर में जश्न जैसा माहौल देखने को मिला. छुट्टी का दिन रविवार होते हुए भी सुबह से ही किताबो-कापियों के सौंदर्य को ज्यादा महत्त्व देते हुए रंगीन कवर लगाने में व्यस्त मेरा परिवार प्रफुल्लित था. बाल-सुलभ स्वभाव का मनोरम दृश्य देखते बनता. कभी वह कहता-पापा हम कौन-कौन किताब ले जायेंगे, पापा हमने आपका मोबाईल नंबर याद कर लिया, सुनाऊँ, हां बेटे सुनाओ-९७७०५४३६३० क्यों सही हैं .इसी क्रम में शाम हो गयी. जल्दी-जल्दी खाना बनाकर खिलाने के बाद मेरी पत्नी ने सुला दिया. क्योंकि सुबह जल्दी उठाकर स्कूल जो जाना है. इतना ही नहीं माँ की ममता के आंचल में बच्चों को बाहर भेजने का भय भी हमने सहज ही महसूस किया. वह समझती रही कि सुनो बेटे वहाँ जाकर हमेशा एक साथ रहना. कोई भी बात हो तो अपनी मैडम से कहना. जब आपकी छुट्टी हो तो अपने मित्रों के साथ सीधे अपनी गाड़ी में बैठ जाना. रस्ते में कभी भी खिड़की के बाहर मत देखना.
मनुष्य के जीवन में अनेक समस्याएं आती हैं, वह उसे बड़े ही आराम से सुलझा भी लेता है. लेकिन एक बात जो मन को कचोटते रहती है, वह है जीवन में अपनों को भविष्य बनाने के लिए दूर भेजने का भय. हमें भी यह डर सता रहा था कि, इतना छोटा बच्चा कैसे इतनी दूर जायेगा, वह किससे दूर रहकर अपनी बात कहेगा. इन्ही सारे बातों से मेरा मन परेशान हो रहा है. लेकिन हमें भी स्वीकार करना पड़ा. हृदय पर पत्थर रखकर हमने भेजने का निर्णय लिया.
आख़िरकार वह दिन आ ही गया जब मेरा बच्चा स्कूल जाने के लिए तैयार हो गया. सुबह जल्दी उठकर टिफिन का इंतजाम किया गया, यह ९ जुलाई २०१२ की सुबह थे, सावन की बारीश धीरे-धीरे अपनी छटा बिखेर रही थी, चिड़िया चहचहाकर प्रकृति का नया अहसास दे रही थी, घर में बाल-क्रीड़ाओं का खेल पहली बार सुबह शुरू हो गया था. बड़े ही मेहनत से हमने अपने बेटे को उठाया. उसमें उत्सुकता थी बड़े स्कूल में जाने की, नहाकर जब वह तैयार हुआ तब हमें ऐसा लग जैसे वह अपने जीवन की पहली पायदान पर चढ़कर किलकारियां कर रहा हो. यहाँ तक कि एक फोटो भी खींच ली गयी. एक बात तो है कि होनहार बिरवान के हॉट चिकने पात वाली कहावत को चरितार्थ करता हुआ वह मुझे प्रतीत हो रहा था. बैग से भरी किताबों के भार से मैं भी दंग था कि छोटे-छोटे बच्चों को इतना भरी वजन उठाने की क्या आवश्यकता है. लेकिन हम ठहरे परम्परावादी कभी-कभार आधुनिकता का दामन भी थाम लेता हूँ. जो भी हो मैं स्वयं अपने बच्चे को गाड़ी में बैठाने गया, प्रवेश द्वार के पास जब गाड़ी आयी तो वह दुखमिश्रित आनंद से भरा था तो मुझे थोड़ी शांति मिली. सारे बच्चे बैठ गए तो वह अपने आपको अकेला महसूस कर रहा था. क्योंकि उसके दो मित्रों के पिता साथ जा रहे थे.
इसी दौराण मैं घर आया और अपनी नियमित दिनचर्या में लग गया, उधर मेरी बेगम की हालत बदतर होती गयी, इसी कारण कई बार फोन करके समर्थ की गतिविधियों के बारे में जानकारी लेती रही. सच बताऊँ बहार से कठोर माँ की ममता की गगरी में कितनी भावनाएँ भरी रहती हो इसका अहसास मुझे जीवन में दो बार हुआ है. एक बार जब हम घर से इलाहबाद पढ़ने के लिए पहली बार आया था, दूसरी बार आज. आज बार-बार वह मुझसे पूछ रही थी कि कैसे होगा मेरा बेटा? कैसे पढता होगा? इन सवालों के घेरे में अपने आपको मजबूर महसूस कर रहा था.
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