बुधवार, 24 अप्रैल 2013

दलित कहानी का सच : संवेदनशील भाषा और समाज

दलित कहानी का सच : संवेदनशील भाषा और समाज

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(दाग दिया सच के सन्दर्भ में )


हाल ही में हमने कई दलित कहानियाँ पढ़ी | एक बात तो लगभग सभी कहानियों में दिखाई दी-इन काहानियों में अन्य पुरूष शैली का प्रयोग कम देखने को मिलता है इसकी जगह प्रथम पुरूष शैली का प्रयोग ही लेखक स्वय उपस्थित होकर करता है | ऐसे में ये कहानियाँ कभी-कभी लेखक के आत्मविश्लेषण का संक्षिप्त दस्तावेज ही प्रतीत होती हैं | वैसे भी दलित कहानियों में हासिये पर जीवनयापन करने वाली लगभग सभी जातियों (यथा-पैशाचिक-मुद्राराक्षस में नाई, अस्मिता लहू-लुहान-बुध्चरण जैन में चंदर बनिया, दाग दिया सच-रमणिका गुप्ता में कुर्मी महतो की लड़की और चमार का लड़का इत्यादि ) को शामिल करने का प्रयास सराहनीय है | बहरहाल एक बात गले से नीचे नहीं उतरती है-आखिर आधुनिक कहानीकारों ने ग्लोबल प्रभाव तले बदलते परिवेश में दलित साहित्य का वर्णन क्यों नहीं कर रहें हैं ? अब समय बदला, ज़माना बदला, समाज भी बदल गया तो दलित पात्रों की स्थिति भी बदलनी चाहिए | जिस बनिए की बात बुद्धचरण जी कर रहें हैं-वह या तो समाज में अपनी स्थिति पूरी तरह परिवर्तित कर चुका है या उस स्थिति में नहीं हैं कि उसे दलित साहित्य में स्थान दिया जाय | रमणिका गुप्ता ने अवश्य एक नयी बहस को दाग दिया सच में शामिल किया है | क्योंकि इन्होने इस कहानी को पूर्णतः देशज स्वरूप दिया है | इसका प्रमाण हमें बीच-बीच में जिस तरीके से पात्रों को उपस्थित कराते हुए अन्य पुरूष शैली का प्रयोग कराती हैं उससे कहानी की नयी परत ही खुलती है | एक उदाहरण देख सकते हैं-जब महावीर और मालती के प्रेम सम्बंधों का विरोध करते तासा पार्टी के नौजवान, थाने के इन्स्पेक्टर का कुर्मी होना और बुजुर्गों द्वारा मालती के पिता को यह कहते हुए डांटना-"क्या मरजी है बेटी चमार के साथ व्याहानी हैं क्या ? बिरादरी में रहना है या नहीं ? दस दिन के अंदर ब्याह कर दो लड़का खोज के, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा | बिरादरी की इज्जत बर्बाद कर रहे हो |...........यह तो रही तथाकथित बुजुर्गों की धौंस भरी भाषा | अक्सर यह देखा गया है कि-जब कोई भी व्यक्ति किसी कमजोर पर अपना क्रोध जाहिर करता है तो उसकी भाषा भी उससे ऊँची होती है(इसे लोक बनाम-देशज, देशज बनाम साहित्यिक या साहित्यिक बनाम आंग्ल के रूप में भी आत्मसात कर सकते हैं )|
इस प्रकार बेचारा बुधन गिडगिडाकर कहता है-"इतनी जल्दी कैसे 'कुटुंब' मिलती बाबू ! फिर धोकर का बेटा तो लायके ही है | के देखे है आज कल जाट-पात | हमर पास तो पैसा-कौड़ी भी तो नाय है | आज-कल जात वाला सब जो कोलयरी की नौकरी पाया गया है मोटर साइकल और टी. वी. माँगो है-हमर थीं (पास) कहाँ से इतनी रकम आवेगी | आप सब भी तो तैयार ण है हमर घर शादी करे खातर |......."बुधन के एक एक शब्दों से आंचलिकता का एहसास होता है | भाषा के अतिरिक्त इस कहानी को दलित कहानियों के कोलाज में स्थान देतें हैं तो इसे किसी भी कों से ऊपर ही चिपकाना पड़ेगा | क्योंकि इसमें महावीर को कूच-कूच कर मारना, रमणिका गुप्ता द्वारा 'दाऊ टू ब्रूटस' से महावीर की तुलना तथा रात भर महावीर के लाश को रखकर जश्न मनाना और यह दुहाई देना कि-इज्जत बच गयी थी उनकी-उनके समाज की और उनकी औरतों की !इज्जत औरतो के जो पुरूषों ने दे रखी थी औरतों को ताजिंदी गुलाम बने रहने के एवज में | कुर्मी की बेटी के आशिक को मार दिया गया था | सब औरतें खुश थीं | समाज खुश थ | लेकिन धोकर बेचारा सब्र कर लिया था जैसे उसके जीवन में मीठे फल की आकांक्षा हो | लेखिका ने इसके अंत में एक साथ कई प्रश्नों को हमारे समक्ष छोड़ जाती हैं | क्योंकि वह स्वय धोकर के मुँह से महावीर-मालती की कहानी सुनकर बैचैन हो जाती है | अपनी छटपटाहट दिखाने के लिए कहती है-गाँव के लोग कहते है-धोकर पर महावीर का भूत सवार है | हाँ महावीर का भूत सवार है धोकर पर चूँकि धोकर एक मनुष्य है ! ऐसा हादसा देखने वाले किसी मनुष्य पर भूत सवार हो सकता है-उस घटना का भूत-हत्यारों का भूत-मृतकों का भूत-अगर वह संवेदनशील मनुष्य है ! और धोकर मनुष्य है-मनुष्य था और मनुष्य रहेगा ! भविष्य में मानवता की चिंता से व्यग्र लेकिका ने दलित साहित्य को एक दर्जा ऊपर स्थान दिलाती हैं |
(यह मेरे अपने विचार है: इससे किसी समुदाय को ठेस पहुँचती है तो क्षमा सहित-डा.मनजीत सिंह )


दलित साहित्य और नारी


दलित साहित्य में नारी की क्रांतिकारी भूमिका का साक्षात् प्रतिरूप आज हमारे गाँव में दिखाई दिया | उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित परसिया नामक गाँव, जो कि बलिया शहर से १४ किमी पूरब(हजारी प्रसाद द्विवेदी के गाँव के पास) स्थित है | सुबह एक ऐसी घटना घटी जिसे सुनकर मैं दंग ही नहीं हुआ अपितु इनसे एक नयी आशा की किरण जगी | मै अपनी माता जी से बाते कर रहा था कि-सड़क पर एक मृत शरीर को दाह संस्कार के लिए ले जाती हुई जनता की आवाज सुनाई पडी |(राम नाम सत्य है ) | मेरी माँ ने बताया कि-श्यामलाल के घर में एक व्यक्ति की मृत्यु हो गयी है, जिसे कंधा पर ले जाने में पुरुषों के साथ औरतें भी थी | ऐसी बात नहीं कि उनके घर में चार पुरूष नहीं अपितु महिलाओं ने ही आगे आकर इसमें हिस्सेदारी की | क्या इस घटना में नयी सुबह और नयी किरण का एहसास नहीं होता प्रतीत हो रहा है ?

२३/०४/१३

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