फेसबुक
फेसबुक व्यक्तित्व विकास में कारगर है क्योंकि इसमें हम खुलकर एक दूसरे की बातों से अपनी असहमति भी जाहिर कर सकते है और सहमत होकर हौसलाअफजाई भी कर सकते हैं | मन की बाते सार्वजनिक करने का साहस बहुत कम लोगों में दिखाई देता है | मैं तो खुले तौर पर कहता हूँ कि-जब से हमने इस विद्युत संचालित त्वरित माध्यम का दामन थामा है, उस समय से हमारे अंदर एक नयी स्फूर्ति का संचार हुआ है क्योंकि यहाँ विद्वानों के विचारों से अवगत होना तथा उस पर अपनी बातों को खुलकर रखने का अवसर मिलता है | जो काम हम आमने-सामने नहीं कर सकते वह काम यहाँ अपने विचारों से कर सकते हैं | हो सकता है कि इसका दुष्प्रभाव भी हो लेकिन जहाँ तक मेरी सोच है-इसे दूर करना भी हमारे हाथ में हैं |फेसबुक ने मित्रता की नयी परिभाषा ईजाद की है | इतना तो कह सकते हैं कि इससे मित्रों का दायरा संकुचित न रहकर बढ़ा है | अजब फेसबुक की गजब कहानी, किसी ने जानी किसी ने न जानी |
यह मंच भी "धीरे चलें सुरक्षित रहे" वाले तर्ज पर यही सलाह देता है-छोटा लिखें फेमस बने | बिहारी याद आ गये-सतसैया के दोहरे..........बेंधे सकल शरीर | जो भी हो साहित्य में शार्ट कट की संभावना नहीं रहती लेकिन यह फंडा सर्वत्र व्याप्त हो रहा है | हम तो यही कहेंगे-शार्ट कट साहित्य में लगने वाला ऐसा वायरस है, जिसके लिए एंटी वायरस का आविष्कार अभी तक नहीं हुआ है | यदि हो जाएगा तो साहित्य की नयी परिभाषा ईजाद करना साहित्यकारों को देना मुश्किल होगा | फेसबुक में जब कोई श्रद्धेय-आदरणीय, मित्र, स्नेही-भद्रजन एवं संबंधी व्यक्ति पसंद करने वाला बटन दबाते है, तो मन गदगद हो जाता है | आखिर १२१ करोड़ की आबादी में पसंद किये जाने की प्रायिकता यहीं निर्धारित होती है, लेकिन बात अटक जाती है कि-इसे किस स्तर पर पसंद किया जा रहा है | यदि वैचारीक हो तो ठीक अन्यथा संदेहास्पद!!
फेसबुक पर साहित्य के अथाह सागर का एह्साह होता है, यदि ऐसे ही नदियाँ सागर से मिलकर कोलाज सरीखे वातावरण तैयार करती रही हो वह दिन दूर नहीं जब मुद्रित माध्यम केवल अंक बटोरने की मशीन भर रह जाय | यूं.जी. सी. को अपने मानकों में संशोधन जरूर करना चाहिए ताकि सोने के अंडे देने वाले माध्यमों का आर्थिक वर्चस्व समाप्त हो जाय |
मीडिया
मीडिया अर्थ की पिछलग्गू होकर चलती है तब इसकी तटस्थता पर संदेह करना लाजमी है | यह तो पेड का ऐसा शेड बनाने पर उतारू है, जिसका खामियाजा आम आदमी को ही भुगतना पड़ता है | मीडिया के विरोध में लिखना साँप को दूध पिलाने जैसा है लेकिन ऐसा क्यों होता है कि-एक नेता के आने पर मीडियाकर्मी की भीड़ लग जाती है जबकि जब आम आदमी सड़क के किनारे तड़प रहा होता है तो एक चिड़िया भी नहीं आती | जब मैं छोटा था तो मेरी दादी अक्सर कहा करती थी-बेटा हुआ तो तुम्हारा लेकिन बेटी हुई तो हमारी | यही भावना समाज को घुन की तरह खाए जा रहा है | हमें तो लगता है कि-यदि गाँधी को इस तरह का संचार मिला होता तो शायद आज हम भी गुलाम ही होते |
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