शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

स्मृतियों के आईने में बाबूजी 💐💐

 स्मृतियों के आईने में बाबूजी 💐💐


🙏🌷विनम्र श्रद्धांजलि🌷🙏


अदनान कफील 'दरवेश' अपने प्रसिद्ध काव्य संग्रह में लिखते हैं कि-


रोना एक मजेदार काम है

और उसे छुपाना

उससे भी मजेदार

×   ×   ×     ×

एक आदमी बातें बदलकर

×     ×     ×

जो बोलता है

सब मैं उठता बैठता है

लेकिन अपने भीतर

पछाड़े खा खा के रोता है

सिर पीट-पीट कर विलाप करता है

बस कोई देख नहीं पाता

बस किसी को दिखाई नहीं देता।


समाज में व्यक्ति के जीवन में अनेक उतार-चढाव आता है। वह कभी सुख में रहता है तो अधिकांश समय वह दुखों के घेरे में स्वयं को घिरा हुआ पाता है। सुख-दुःख के बीच मनुष्य की अंतरात्मा से एक आवाज तब निकल कर विलाप का रुप ले लेती है, ज़ब सिर से पिता का साया अचानक गायब हो जाता है। उस समय दरवेश के उपर्युक्त शब्द झंकृत होने लगते हैं। ग्लानिग्रस्त इस आत्मा की आवाज भी लोग अनसुनी कर देते है। वह पीड़ित कभी चार्ली बनने को अभिशप्त होता है तो कभी सिर पीटकर पछाड़ खाकर रोते-बिलखते सबके भीतर अपने होने का एहसास दिलाने की जिद पर अड़ जाता है। लेकिन हद तो तब हो जाती है, ज़ब इस विपरीत स्थिति को जनता न तो भाँप पाती है और न ही उसकी पीड़ा को कमतर करने का प्रयास करती है।


मेरे बाबूजी 


इसी अपाधापी में 9 दिसंबर का दिन हमारे जीवन में एक काले अध्याय के रूप में जुड़ गया। किसे पता था कि-बाबूजी के अंतिम शब्द अचेत अवस्था में सुनने को नसीब होगा। मऊ के निजी अस्पताल में पहुँचने के बाद उन्होंने हमें देखकर बहुत सुकून भरे शब्द कहे थे कि-तू आ गईल बबुआ ¡ अब हम ठीक हो जाइम। (आप आ गये तो अब मैं ठीक हो जाऊँगा) उसके बाद न जाने वह किस तीसरी शक्ति के आगोश में चले गये। उसका एहसास ही नहीं हुआ। विक्रम संवत 2073, मार्ग-शीर्ष की दशमी-एकादशी को ही माघ जैसी कड़ाके की ठण्ड ने उस शक्ति को अधिक मजबूत कर दिया, जिसके भयावह परिणाम ने हम सबको झकझोर कर रख दिया।


बाबूजी के वे शब्द आज भी कानों में गूँजते है..बबुआ...पढ़ने-लिखने के लिए खाने में कोताही मत करना । याद आते हैं वे दिन तो मन में ग्लानि एवं पीड़ा का सम्मिश्रण स्वतः हो जाता है । उन्होंने कभी-भी प्रश्न नहीं पूछा ? कभी भी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि मैं क्या पढ़ रहा हूँ ? मैं कैसे पढ़ रहा हूँ ? उनकी यात्रा के सामने डाक विभाग भी शर्म से पानी पानी हो जाय । मनीआर्डर के पहले ही वह हर महीने की पहली तारीख को कलकत्ता से इलाहाबाद पहुँच जाते थे । वह भी केवल कुछ ही घंटों के लिए । उन्होंने कभी भी हमारी गलतियों को नासूर नहीं बनने दिया जबकि इसे वह मजबूती के लिए उत्साहित करने का हथियार बनाने की क्षमता रखते थे । आज ज़ब मैं स्वयं एक पिता की हैसियत से उनके समकक्ष रखता हूँ तो स्वयं को इतना असहाय पाता हूँ, जिसकी कल्पना करना व्यर्थ है। 


वह दिन कैसे भूल सकता हूँ ? अक्सर यह देखने में आता है कि जब लड़का बाहर (उस समय इलाहाबाद सामान्य-मध्यमवर्गीय परिवार के लिए विदेश से बढ़कर था।) जाता है तो आस-पड़ोस के लोग तरह-तरह की बाते करते थे। कटाक्ष करते रहे, उनमें कुछ अभी-भी जीवित हैं और आँखें लाल करके देखते हैं जैसे उनके यहाँ केवल-अंगार ही अंगार है । बहरहाल उस विषम परिस्थितियों में भी बाबूजी ने हार नहीं माना । उस समय बंगाल में नौकरी करना मुश्किल हुए जा रहा था । ईमानदारी का इनाम भी इसी दौरान उन्हें उनकी सेवा में मिला । यह इनाम पुरस्कार नहीं अपितु सेवा-हानि थी। कारण बहुत छोटा था-अस्वस्थ होना ।  वह दौर हम सभी के जीवन का क्रांतिकारी दौर रहा । उस समय भी बहुत कम पैसों में किस तरीके से घर-परिवार के साथ शिक्षा को उन्होंने प्रभावित नहीं होने दिया । हम सभी को इलाहाबाद में रहते हुए यह एहसास ही नहीं हुआ कि उनके साथ इतनी बड़ी घटना घटी है । हमें इसका पता तब लगा जब सब कुछ सामान्य हो गया था । इस कारण वह हमारे लिये नीलकण्ठ से भी बढ़कर थे । स्वयं विष पीकर हमें अमृत पान कराया और आज हम सपरिवार गृह जनपद में उनके न होते हुए भी उनके पदचाप को महसूस करके जीवन निर्वहन कर रहे हैं। यह उन लोगों के ऊपर बहुत बड़ा तमाचा है, जिन्होंने बचपन की स्मृतियों को जीवंत बनाये रखा।


ज़ब बचपन की ओर झाँकते हुए गाँव से पातुलिया, बैरकपुर होते हुए इलाहाबाद, हासन, बिलासपुर, ज्ञानपुर और पुनः बलिया तक हुए अपने जैविक यात्रा पर एक नजर फेरता हूँ तो बाबूजी के शब्द हमें हर कदम पर मजबूत बनाते रहे। 


हमें इलाहाबाद की अनेक घटनाएँ क्रमवार एक के बाद एक आती रहती है । इनमें मिश्र बंधुओं सहित अन्य अनेक अभिभावकों को दहशत का माहौल बनाते और अपने बच्चों को अनाप-शनाप, गाली-गलौज करते देखा सुना हैं । महीने में एक दिन उनके लिए वह दिन काले विवर की तरह था । जब कभी उन लोगों के आने का एहसास होता था तो वे अल्लसुबह स्नान-ध्यान के बाद कुर्सी पर बैठ किताब आगे रख चिल्लपों की आवाज सुनते थे । लेकिन मेरे बाबूजी ने कभी भी अपशब्द नहीं बोला । हम लोग अक्सर कहते थे कि आप थोड़ा गंभीर रहिये । वहाँ उस समय भी बच्चों में दो तरह की प्रवृत्तियों को सहजतापूर्वक देखा जा सकता था । शहर के छात्र दो वर्गों में बंटे थे-यथा-हॉस्टल और डेलीगेसी ।  निःसंदेह पहला वर्ग कुछ इलिट, कुछ अमीर, कुछ जमीर, कुछ पढ़ा-लिखा, कुछ ज्ञानी, कुछ जुगाडू,  कुछ नेता, कुछ माफिया, कुछ शूटर, कुछ उत्तराधिकारी के लिए प्रचलित था, जिनके मन के किसी न किसी कोने में डेलीगेसी उनके लिए दोयम भी प्रतीत होता था । बाद में स्थिति सुधरी और 21वीं शताब्दी में प्रवेश के उपरांत और सुखद हो गयी ।


कुल मिलाकर इलाहाबाद के जीवन की एक-एक कहानियों के केंद्र में बाबूजी की भावनाओं की प्रधानता है । इसकी चर्चा पुनः करने को अभिशप्त हूँ क्योंकि मुझे पता है कि मैं स्वयं उनके जैसा पिता नहीं हो सकता परन्तु उनकी जिजीविषा एवं कर्त्तव्य पथ पर चलने तथा राह दिखाने का काम यदि मुझमें कुछ है तो यह बाबूजी की ही देन है । 


भले ही हम बाबा नागार्जुन की तरह ‘बाबूजी अभाव का आसव ठेठ बचपन से पीता आ रहे थे परन्तु उनके यहाँ अभाव में भी भावों  की गगरी में अमृत रस कम नहीं पड़ता था । उनकी एक कमजोरी हमारी सबसे बड़ी संपत्ति थी । वह कहीं भी कभी भी अपने मन की तमाम परतों को खोलकर किसी अनजान राही-मित्र-कुमित्र के सामने अपनी कहानी कहने लगते थे । कभी-कभी यह स्थिति उस दौरान हम सबको असहज भी कर देती थी । लेकिन यही साफ़गोई उन्हें एक दरजा ऊपर स्थापित करती है । उनके चैतन्य अवस्था में हमारी अंतिम बात चार दिसम्बर 2016 को हुई । हमारे यहाँ वार्षिकोत्सव का कार्यक्रम था । उस दिन के  अंतिम शब्द आज भी गूँजते हैं । जैसे वह आज भी हमारे आस-पास मौजूद हों और पूछ रहे हों-हमारा हाल ।


आज छः वर्ष हुए, 09.12.2016 को मझधार में छोड़ निकल गये अंतिम यात्रा पर...! 


हे तात !


वह काली 

अँधेरी अंतिम रात

घाम के इंतजार में

नहीं मिली आपको

जीवन की सौगात ।


बिछड़ने के भय से

काँपने लगा था हाथ 

कहाँ कमी रह गयी

यह बूझते-जानते ही

डागडर ने कर दिया 

शरीर की अधूरी बात ।


एक वर्ष बीत जाने पर

मन भ्रमित होता रहा

ढूढते मन को सहारा दे

शरीर भी दिया जवाब ।


दूसरे बरिस में अनजान 

भय बड़े होने की मजबूरी 

जीवन से बहुत दूर तक 

भगाता जाता-पछताता।।


तीन-चार और पाँच 

समय जब खींच लाया

स्मृतियों के पास और पास

जड़ता जीवन की सौगात ।


आज छः साल बीतते ही

बहुत कुछ बदलने लगा

काफूर बने लोग भी अब

धीरे-धीरे कहने ही लगे।


बहुत करीब थी प्रशंसा

किसे पता था कि तीर

बिना प्रत्यंचा खींचे ही

बहुत दूर तलक जायेगा। 🙏


🌷🙏विनम्र श्रद्धांजलि ।🌷🙏


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