(नोट- भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रसिद्ध भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के
अंतर्गत उत्तर प्रदेश के समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की उच्च शिक्षा
के नए एकीकृत सामान्य पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष-(तृतीय
सेमेस्टर) में हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। इसका मूल पाठ प्रस्तुत
हैं।–सम्पादक)
मूल पाठ
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ? : भारतेंदु हरिश्चंद्र
1. भारतेन्दु द्वारा बलिया के
प्रसिद्द ददरी मेले में 1884 ई. में दिए
गये दिये गये भाषण का
अंश है।
2. उस समय रोर्बट साहब बहादुर
बलिया जिले के कलेक्टर थे।
3. इसमें भारतेंदु ने भारतीयों
के आलसी होने पर व्यंग्य किया है |
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साभार |
मूल पाठ : भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है ?
आज बड़े आनन्द का दिन है कि छोटे से नगर बलिया
में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देखते हैं। इस अभागे आलसी
देश में जो कुछ हो जाय वही बहुत है। हमारे हिन्दुस्तानी लोग तो रेल की गाड़ी हैं।
यद्यपि फर्स्ट क्लास, सेकेण्ड क्लास आदि गाड़ी बहुत
अच्छी-अच्छी और बड़े-बड़े महसूल की इस ट्रेन में लगी हैं पर बिना इंजन सब नहीं चल
सकतीं,
वैसे ही
हिन्दुस्तानी लोगों को कोई चलानेवाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते। इनसे इतना कह
दीजिए ‘का चुप
साधि रहा बलवाना’ फिर देखिए
हनुमान जी को अपना बल कैसे याद आता है। सो बल कौन याद दिलावे। या हिन्दुस्तानी
राजेमहाराजे, नवाब,
रईस या
हाकिम। राजे-महाराजों को अपनी पूजा, भोजन,
झूठी गप से
छुट्टी नहीं। हाकिमों को कुछ तो सरकारी काम घेरे रहता है,
कुछ बाल
घुड़दौड़ थियेटर में समय लगा। कुछ समय बचा भी तो उनको क्या गरज है कि हम गरीब गन्दे
काले आदमियों से मिलकर अपना अनमोल समय खोवें। बस वही मसल रही। “तुम्हें
गैरों से कब फुरसत हम अपने गम से कब खाली। चलो बस हो चुका मिलना न हम खाली न तुम
खाली।”
पहले भी जब
आर्य लोग हिन्दुस्तान में आकर बसे थे राजा और ब्राह्मणों के जिम्मे यह काम था कि
देश में नाना प्रकार की विद्या और नीति फैलावें और अब भी ये लोग चाहें तो
हिन्दुस्तान प्रतिदिन क्या प्रतिछिन बढ़े। पर इन्हीं लोगों को निकम्मेपन ने घेर रखा
है।
हम नहीं
समझते कि इनको लाज भी क्यों नहीं आती कि उस समय में जबकि इनके पुरखों के पास कोई
भी सामान नहीं था तब उन लोगों ने जंगल में पत्ते और मिट्टी की कुटियों में बैठ
करके बाँस की नालियों से जो ताराग्रह आदि बेध करके उनकी गति लिखी है वह ऐसी ठीक है
कि सोलह लाख रुपये के लागत की विलायत में जो दूरबीन बनी है उनसे उन ग्रहों को बेध
करने में भी वही गति ठीक आती है और जब आज इस काल में हम लोगों को अंगरेजी विद्या
के और जनता की उन्नति से लाखों पुस्तकें और हजारों यंत्र तैयार हैं तब हम लोग निरी
चुंगी के कतवार फेंकने की गाड़ी बन रहे हैं। यह समय ऐसा है कि उन्नति की मानो
घुड़दौड़ हो रही है। अमेरिकन अंगरेज फरासीस आदि तुरकी ताजी सब सरपट्ट दौड़े जाते हैं।
सबके जी में यही है कि पाला हमी पहले छू लें। उस समय हिन्दू काठियावाड़ी खाली
खड़े-खड़े टाप से मिट्टी खोदते हैं। इनको औरों को जाने दीजिए जापानी टट्टुओं को
हाँफते हुए दौड़ते देख करके भी लाज नहीं आती। यह समय ऐसा है कि जो पीछे रह जायेगा
फिर कोटि उपाय किये भी आगे न बढ़ सकेगा। इस लूट में इस बरसात में भी जिसके सिर पर
कम्बख्ती का छाता और आँखों में मूर्खता की पट्टी बँधी रहे उन पर ईश्वर का कोप ही
कहना चाहिए। मुझको मेरे मित्रों ने कहा था कि तुम इस विषय पर कुछ कहो कि
हिन्दुस्तान की कैसे उन्नति हो सकती है। भला इस विषय पर मैं और क्या कहूँ? भागवत में एक श्लोक है, ‘नृदेहमाद्यं
सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारं मयाSनुकूलेन
नभः स्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा।” भगवान्
कहते हैं कि पहले तो मनुष्य-जन्म ही बड़ा दुर्लभ है सो मिला और उस पर गुरु की कृपा
और उस पर मेरी अनुकूलता इतना सामान पाकर भी जो मनुष्य इस संसार सागर के पार न जाय
उसको आत्महत्यारा कहना चाहिए। वही दशा इस समय हिन्दुस्तान की है।
बहुत लोग यह
कहेंगे कि हमको पेट के धंधे के मारे छुट्टी ही नहीं रहती है बाबा हम क्या उन्नति
करें। तुम्हारा पेट भरा है तुमको दून की सूझती है। यह कहना उनकी बहुत भूल है।
इंग्लैण्ड का पेट भी कभी यों ही खाली था। उसने एक हाथ से अपना पेट भरा दूसरे हाथ
से उन्नति के काँटों को साफ किया, क्या इंग्लैण्ड में किसान खेतवाले, गाड़ीवाले, गाड़ीवान, मजदूर, कोचवान आदि नहीं हैं? किसी भी देश में सभी पेट भरे हुए
नहीं होते। किन्तु वे लोग जहाँ खेत जोते-बोते हैं वहीं उसके साथ यह भी सोचते हैं
कि ऐसी कौन नयी कल या मसाला बनावें जिसमें इस खेत में आगे से दून अन्न उपजे। विलायत
में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढ़ते हैं। जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहाँ गया उसी
समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहाँ उतनी देर कोचवान हुक्का पियेगा
व गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी। ‘वहाँ के लोग गप्प में ही देश के प्रबन्ध
छाँटते हैं।’
सिद्धान्त
यह है कि वहाँ के लोगों का यह सिद्धान्त है कि एक छिन भी व्यर्थ न जाये। उसके बदले यहाँ के
लोगों को जितना निकम्मापन हो उतना ही वह बड़ा अमीर समझा जाता है, आलस यहाँ इतनी बढ़ गयी है कि मलूकदास ने दोहा ही
बना डाला- “अजगर करे न
चाकरी पंछी करै न काम। दास मलूका कहि गये सबके दाता राम।” चारों ओर
आँख उठाकर देखिए तो बिना काम करनेवालों की ही चारों ओर बढ़ती है, रोजगार कहीं कुछ भी नहीं। चारों
ओर दरिद्रता की आग लगी हुई है। किसी ने बहुत ठीक कहा है कि दरिद्र कुटुम्बी इस तरह
अपनी इज्जत को बचाता फिरता है जैसे लाजवती बहू फटे कपड़ों में अपने अंग को छिपाये
जाती है। वही दशा हिन्दुस्तान की है। मर्दुमशुमारी की रिपोर्ट देखने से स्पष्ट
होता है कि मनुष्य दिन-दिन यहाँ बढ़ते जाते हैं और रुपया दिन-दिन कमती होता जाता
है। सो अब बिना ऐसा उपाय किये काम नहीं चलेगा कि रुपया भी बढ़े। और वह रुपया बिना
बुद्धि बढ़े न बढ़ेगा। भाइयों राजा-महाराजाओं का मुँह मत देखो, मत यह आशा रखो कि पंडित जी कथा
में ऐसा उपाय बतलावेंगे कि देश का रुपया और बुद्धि बढ़े। तुम आप कमर कसो, आलस छोड़ो, कब तक अपने को जंगली हूस मूर्ख
बोदे डरपोकने पुकरवाओगे। दौड़ों इस घुड़दौड़ में जो पीछे पड़े तो फिर कहीं ठिकाना
नहीं। ‘फिर कब राम
जनकपुर ऐहैं’
अबकि पीछे
पड़े तो फिर रसातल ही पहुँचोगे।
अब भी तुम
लोग अपने को न सुधारो तो तुम्हीं रहो। और वह सुधारना ऐसा भी होना चाहिए कि सब बात
में उन्नति हो। धर्म में,
घर के काम
में,
बाहर के
काम में,
रोजगार में, शिष्टाचार में, चालचलन में, शरीर में, बल में, समाज में, युवा में, वृद्ध में, स्त्री में, पुरुष में, अमीर में, गरीब में, भारतवर्ष की सब अवस्था, सब जाति, सब देश में उन्नति करो। सब ऐसी
बातों को छोड़ो जो तुम्हारे इस पथ के कंटक हों। चाहे तुम्हें लोग निकम्मा कहें या
नंगा कहें,
कृस्तान
कहें या भ्रष्ट कहें,
तुम केवल
अपने देश की दीन दशा को देखो और उनकी बात मत सुनो।
“अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठतः
स्वकार्यं साधयेत् धीमान् कार्यध्वंसो हि मूर्खता।” जो लोग
अपने को देश हितैषी लगाते हों वह अपने सुख को होम करके धन और मान का बलिदान करके
कमर कसके उठो। देखा-देखी थोड़े दिन में सब हो जायेगा। अपनी खराबियों के मूल कारणों
को खोजो। कोई धर्म की आड़ में, कोई देश की चाल की आड़ में, कोई सुख की आड़ में छिपे हैं। उन
चोरों को वहाँ से पकड़कर लाओ। उनको बांधकर कैद करो। इस समय जो जो बातें तुम्हारी
उन्नति पथ की काँटा हों उनकी जड़ खोदकर फेंक दो।
अब यह प्रश्न होगा कि भाई हम तो जानते ही नहीं कि उन्नति और
सुधारना किस चिड़िया का नाम है? किसको अच्छा समझें। क्या लें क्या
छोड़ें?
तो कुछ
बातें जो इस शीघ्रता से मेरे ध्यान में आती हैं उनको मैं कहता हूँ, सुनो…
.सब उन्नतियों का मूल धर्म है। इससे
सबसे पहले धर्म की ही उन्नति करनी उचित है। देखो अंगरेजों की धर्मनीति राजनीति
परस्पर मिली हैं इससे उनकी दिन दिन कैसी उन्नति है। उनको जाने दो, अपने ही यहाँ देखो। तुम्हारे यहाँ
धर्म की आड़ में नाना प्रकार की नीति समाज-गठन वैद्यक आदि भरे हुए हैं। दो एक मिसाल
सुनो। यहीं तुम्हारा बलिया का मेला और यहाँ स्थान क्यों बनाया गया है। जिसमें जो
लोग कभी आपस में नहीं मिलते दस-दस पाँच-पाँच कोस से वे लोग एक जगह एकत्र होकर आपस
में मिलें। एक दूसरे का दुःख-सुख जानें। गृहस्थी के काम की वह चीजें जो गाँव में
नहीं मिलतीं यहाँ से ले जायँ। एकादशी का व्रत क्यों रखा है? जिसमें महीने में दो उपवास से
शरीर शुद्ध हो जाय। गंगा जी नहाने जाते हैं तो पहले पानी सिर पर चढ़ाकर तब पैर पर
डालने का विधान क्यों है?
जिसमें
तलुए से गरमी सिर में चढ़ाकर विकार न उत्पन्न करे। दीवाली इस हेतु है कि इसी बहाने
साल भर में एक बेर तो सफाई हो जाये। होली इसी हेतु है कि वसंत की बिगड़ी हवा
स्थान-स्थान पर अग्नि जलने से स्वच्छ हो जाय। यही तिहवार ही तुम्हारी
म्युनिसिपालिटी है। ऐसे सब पर्व सब तीर्थव्रत आदि में कोई हिकमत है। उन लोगों ने
धर्मनीति और समाजनीति को दूध पानी की भाँति मिला दिया है। खराबी जो बीच में भई है
वह यह है कि उन लोगों ने यह धर्म क्यों मान लिए थे इसका लोगों ने मतलब नहीं समझा
और इन बातों को वास्तविक धर्म मान लिया। भाइयों, वास्तविक धर्म तो केवल परमेश्वर के चरण कमल
का भजन है।
ये सब तो
समाज धर्म हैं। जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं। दूसरी खराबी यह
हुई है कि उन्हीं महात्मा बुद्धिमान ऋषियों के वंश के लोगों ने अपने बाप दादों का
मतलब न समझकर बहुत से नये-नये धर्म बनाकर शास्त्रों में धर दिये। बस सभी तिथि व्रत
और सभी स्थान तीर्थ हो गये। सो इन बातों को अब एक बेर आँख खोलकर देख और समझ लीजिए
कि फलानी बात उन बुद्धिमान ऋषियों ने क्यों बनायी और उनमें जो देश और काल के
अनुकूल और उपकारी हों उनको ग्रहण कीजिए। बहुत सी बातें जो समाज विरुद्ध मानी जाती
हैं किन्तु धर्मशास्त्रों में जिनका विधान है उनको चलाइए। जैसे जहाज का सफर विधवा
विवाह आदि। लड़कों को छोटेपन में ही ब्याह करके उनका बल, बीरज, आयुष्य सब मत घटाइए। आप उनके माँ
बाप हैं या शत्रु हैं। वीर्य उनके शरीर में पुष्ट होने दीजिए। नोन तेल लकड़ी की
फिक्र करने की बुद्धि सीख लेने दीजिए। तब उनका पैर काठ में डालिए। कुलीन प्रथा बहु
विवाह आदि को दूर कीजिए। लड़कियों को भी पढ़ाइये किन्तु इस चाल से नहीं जैसे आजकल
पढ़ायी जाती हैं,
जिससे
उपकार के बदले बुराई होती है। ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल
धर्म सीखें,
पति की
भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें। नाना प्रकार के मत के लोग आपस में बैर
छोड़ दें,
यह समय इन
झगड़ों का नहीं,
हिन्दू, जैन, मुसलमान सब आपस में मिलिए, जाति में कोई चाहे ऊँचा हो, चाहे नीचा हो सबका आदर कीजिए, जो जिस योग्य हो उसे वैसा मानिए।
छोटी जाति के लोगों का तिरस्कार करके उनका जी मत तोड़िए। सब लोग आपस में मिलिए।
अपने लड़कों
को अच्छी से अच्छी तालीम दो। पिनशिन
और वजीफा या नौकरी का भरोसा छोड़ो। लड़कों को रोजगार सिखलाओ। विलायत भेजो। छोटेपन से
मेहनत करने की आदत दिलाओ। बंगाली, मरट्ठा, पंजाबी, मदरासी, वैदिक, जैन, ब्राह्मण, मुसलमान सब एक का हाथ एक पकड़ो। कारीगरी
जिसमें तुम्हारे यहाँ बढ़े तुम्हारा रुपया तुम्हारे ही देश में रहे वह करो। देखो
जैसे हजार धारा होकर गंगा समुद्र में मिली है वैसे ही तुम्हारी लक्ष्मी हजार तरह
से इंग्लैण्ड,
फरासीस, जर्मनी, अमेरिका को जाती है। दियासलाई ऐसी
तुच्छ वस्तु भी वहीं से आती है। जरा अपने को देखों। तुम जिस मारकीन की धोती पहने
हो वह अमेरिका की बनी है। जिस लंकलाट का
तुम्हारा अंगा है वह इंग्लैण्ड का है। फरासीस की बनी कंघी से तुम सिर झारते हो। और
जर्मनी की बनी चरखी की बत्ती तुम्हारे सामने जल रही है। यह तो वही मसल हुई एक
बेफीकरे मंगनी का कपड़ा पहनकर किसी महफिल में गये। कपड़े को पहचान कर एक ने कहा अजी
अंगा तो फलाने का है। दूसरा बोला अजी टोपी भी फलाने की है तो उन्होंने हँसकर जवाब
दिया कि घर की तो मूंछैं ही मूंछ हैं। हाय, अफसोस, तुम ऐसे हो गये कि अपने निज की काम की वस्तु
भी नहीं बना सकते। भाइयों,
अब तो नींद
से चौकों,
अपने देश
की सब प्रकार से उन्नति करो। जिसमें तुम्हारी भलाई हो वैसी ही किताब पढ़ो, वैसे ही खेल खेलो, वैसी ही बातचीत करो।
परदेशी वस्तु और परदेशी भाषा का
भरोसा मत रखो। अपने देश में अपनी भाषा में उन्नति करो।
(नोट- भारतेन्दु हरिश्चंद्र की निबंध शैली, साहित्यिक अवदान एवं प्रस्तुत निबंध की विश्लेषणात्मक व्याख्या शीघ्र ही इस ब्लॉग एवं प्रोफेसर एकेडमी बलिया के यू-ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत किया जायेगा, जिसका लिंक निम्नवत है-
प्रोफेसर एकेडमी बलिया, https://www.youtube.com/@ProfessorAcademyBallia सम्पादक
पाठ्यक्रम में शामिल अन्य निबंधों को पढ़ने के लिए नीचे दिये
गये लिंक को क्लिक करें –
1. तुम चन्दन हम पानी :विद्यानिवास मिश्र
3. 3. अशोक के फूल : हजारी प्रसाद द्विवेद
4. उत्तराफाल्गुनी के आसपास : कुबेरनाथ राय
(पाठ्यक्रम में शामिल कहानियों को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक को क्लिक करें -डॉ. मनजीत सिंह )
1. प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर
2. जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब
3. तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम-रेणु की कहानी
1. 6. गैंग्रीन (रोज) -अज्ञेय की कहानी
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