बुधवार, 28 मार्च 2012

आदिवासी साहित्य की परख

आदिवासी विमर्श वर्तमान  समय में युग की मांग हैं क्योंकि दलित और नारी विमर्श से भी आगे का यथार्थ हैं. यह विमर्श न केवल हासिए के साहित्य में नया मोड़ निर्धारित करता है अपितु लोकतंत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन की मांग भी करता हैं.इस सन्दर्भ में पेसिफिक पब्लिकेशन नई दिल्ली से प्रकाशित एवं डा. वीरेंद्र सिंह यादव तथा डा, रावेंद्र कुमार साहू के कुशल सम्पादकीय में 2012  में आयी पुस्तक "आदिवासी विमर्श :स्वस्थ जनतांत्रिक मूल्यों की तलाश " विमर्श को नया आयाम प्रदान करती हैं.494 पृष्ठ और सम्पूर्ण भारत के 29 विद्वानों के लेखों को संगृहीत करके संपादक महोदय ने आदिवासी ग्रन्थ को मानस के समकक्ष ला खड़ा कर दिया हैं.यह पुस्तक पांच भागों में विभक्त हैं - संयोग से इसमें हमारा भी एक लेख है, जो अध्याय १ में
वैश्विक सभ्यता में विलुप्त होते आदिवासी समुदायों की त्रासद गाथा" शीर्षक से प्रकाशित है | 

हमारे  लेख का कुछ भाग .

 वैश्विक सभ्यता में विलुप्त होते आदिवासी समुदायों की त्रासद गाथा

 -डॉ0 मनजीत सिंह
जवाहर नवोदय विद्यालय,
 मल्हार, बिलासपुर (छ0ग0)-495551                                                                           

   
    धरती के इस छोर से उस छोर तक
    मुठ्ठी भर सवाल लिये मैं,
    दौड़ती-हाँफती-भागती
    तलाश रही हूँ, सदियों से निरन्तर
    अपनी जमीन, अपना घर
    अपने होने का अर्थ!!
                       नगाड़े की तरह बजते शब्द-निर्मला पुतुल1
    निर्मला पुतुल के उद्गार आदिवासी समुदायों की व्यथा कथा को पूर्णतः व्यंजित करती है। भारत में यह समुदाय संकटग्रस्त स्थिति को प्राप्त है, क्योंकि ये इस वैश्विक सभ्यता में स्वयं को उपेक्षित और उत्पीडि़त महसूस करते हैं। राज्यों के द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का दोहन और शोषण के नवीन आयाम इसमें उत्तरदायी है। इसे यदि ’ग्लोबल गाँव के देवता’ के संदर्भ में देखें तब सहज ही जल, जंगल और जमीन पर आदिवासी समुदायों की समाप्ति को आत्मसात् किया जा सकता है। विमर्श के इस नये आयाम को इनकी उत्पत्ति से जोड़कर, सामाजिक-धार्मिक, नारी-अस्मिता का प्रश्न, विकास में बाधक विस्थापन और माओवाद (नक्सलवाद) का यथार्थ जैसी अवधारणाओं का विश्लेषण करके पुनर्मूल्यांकन करने पर सटीक निष्कर्ष की प्राप्ति हो सकती है।
ऐतिहासिक उत्पत्ति एवं विस्तार:-
    इक्कीसवीं सदी में आदिवासी उत्पत्ति को लेकर तमाम विमर्श सामने आये हैं। वैसे यह शब्द सामान्यतः उन लोगों के जीवनयापन की शैली के लिए रूढ़ हो गया, जो वैदिक काल में ’अनार्य’ या ’दस्यु’ कहलाते थें। इन्हें ही विकसित लोगों ने आदिवासी, जनजाति, आदिमजाति, वन्यजाति, वनवासी इत्यादि नाम दिया। संस्कृत ग्रन्थों में भी ’अत्विका’ या ’वनवासी’ कहा गया है। जबकि गाँधी जी इन्हें ’गिरिजन’ कहा करते थे। प्राचीन ग्रन्थों मंे इन्हें ही भील, कोल, किरात, निषाद इत्यादि नामों से जाना जाता है। भारतीय इतिहास में व्रितानी सल्तनत ने जहाँ-जहाँ प्रवेश किया, वहाँ के निवासियों  को अपने से अलग करने हेतु उन्हे ’’नेटिव’’ या ’’ट्राइब’’ की संज्ञा दे दी। इसी ’दूसरे लोगों’ं को जनजाति या ज्त्प्ठम् के रूप में मान्यता मिली है। शाब्दिक अर्थ में आदिवासी शब्द दो शब्दों ’आदि’ और ’वासी’ से मिलकर बना है, जिसका मूल अर्थ है-निवासी। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इसे भारत और समीपवर्ती देश में निवास करने वाले ’प्रथम देशी निवासियों’ के रूप में स्मरण किया जाता है, जिनकी व्याप्ति ’इण्डो-आर्यन इमिग्रेशन्स’ से होती है। सभ्यता निर्माताओं ने अंग्रेजी शब्द ’ट्राइब’ के मूल लैटिन शब्द ’ट्राइबस’ के रूप में व्यक्त किया है, जिसका प्रयोग रोमन राज्य में मूल त्रिपक्षीय विभाजन के लिए होता है। अनेक नृ-वैज्ञानिकों ने इसका प्रयोग ’कुटुंब’ के रूप में किया है।
    आदिवासी उत्पत्ति के प्रश्न को रंजीत साउ ने ग्रीस से जोड़कर इनकी ऐतिहासिकता सिद्ध करने का प्रयास किया है। क्योंकि दुनिया में लोकतंत्र का पहला फूल सैन्य आविष्कारों के साये में ग्रीस में खिला। हथियारों का विनिर्माण काफी आधुनिक हो चला था। अब राज्यों के पास छोटी फौजी टुकडि़यों की जगह बड़ी सेनाओं को हथियारों से लैस करने की तकनीक आ चुकी थी। एक बार में हमला करने वाले पुराने जमाने के लड़ाकुओं की जगह राज्यों ने अब भारी-भरकम हथियारों से सम्पन्न सैन्य बलों को तैनात करना शुरू कर दिया था। कोई भी व्यक्ति, चाहे वह भू-स्वामी हो या किसान, जो खुद को इन हथियारों (होपला) से लैस करने की क्षमता रखता था। इस नई सेना ने एक नए किस्म की समानता को जन्म दिया। होपला से लड़े जाने वाले युद्ध की खासियत कंधे से कंधा मिलाकर एवं सटकर खड़े होने वाले आठ फौजियों की एक कतार थी, जिसे ’फैलेंक्स’ कहते थे। यह जन सेना थी, जिसमें नागरिक ही सैनिक बन चुके थे। होपला ने ग्रीस का रूपांतरण कर डाला और एक सुनियोजित तरीके से गढ़े हुए लोकतंत्र की बुनियाद रखी। एक किसान, जो अब फैलंेक्स की कतार में राजपरिवार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होता था। अब राजशाही को देखने का नजरिया  बदल चुका था। 

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