रविवार, 28 अप्रैल 2013

फेसबुक

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फेसबुक का नशा बहुत तेजी से चढता है लेकिन उतरने का नाम नहीं लेता | कल हमारे एक मित्र ने कहा कि-अरे यार-तुम तो फेस्बुकिया बाबा हो गये हो | जब देखो तब खुमारी चढी ही रहती है | हमने कहा-मित्र आपसे अपना दर्द कैसे बताएँ ! जब मैं कुछ लिखने का प्रयास करता था तो प्रिंट मीडिया के आर्थिक बोझ तले यह ऐसे दब जाता थ कि दुबारा साँस लेने के काबिल नहीं रहता |जब तक अर्थ ने साथ दिया तब तक सत्य को खरीदता रहा अब तो अर्थ जवाब दे रह है क्योंकि आलेख का रेट भी मुद्रा स्फीति से ही निर्धारित होता है | अब जबकि महंगाई भत्ता ८० फीसदी हो गया तो उसका भाव बढ़ना स्वाभाविक है | हमने मित्र को सांत्वना दी और कहा कि- मित्र इसी कारण हम इसमें लगे रहते हैं | यह तो गनीमत है कि-अब भी कुछ ऐसे शुभचिन्तक हैं जो अर्थाचिंतको पर भारी पड रहें है, जिनकी कृपा दृष्टि कभे-कभी पद जाती है और हम भी मुद्रण में भागीदार बन जाते हैं | शायद मित्र ने बात समझ ली और मोबाइल में अर्थ के भार को देखते हुए फोन काट दिया |

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