बुधवार, 9 नवंबर 2022

परदा : यशपाल की कहानी

 

(नोट- यशपाल की प्रसिद्ध कहानी परदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अंतर्गत उत्तर प्रदेश के समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की उच्च शिक्षा के नए एकीकृत सामान्य पाठ्यक्रम में कक्षा बी ए द्वितीय वर्ष-(तृतीय सेमेस्टर) में हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए रखी गयी है। इसका मूल पाठ प्रस्तुत हैं।–सम्पादक)




 कहानी का मूल पाठ 

परदा : यशपाल

चौधरी पीरबख़्श के दादा चुंगी के महकमे में दारोग़ा थे। आमदनी अच्छी थी। एक छोटापर पक्का मकान भी उन्होंने बनवा लिया। लड़कों को पूरी तालीम दी। दोनों लड़के एंट्रेंस पास कर रेलवे में और डाकख़ाने में बाबू हो गए। चौधरी साहब की ज़िंदगी में लड़कों के ब्याह और बाल-बच्चे भी हुएलेकिन ओहदे में ख़ास तरक़्क़ी न हुईवही तीस और चालीस रुपए माहवार का दर्जा।

अपने ज़माने की याद कर चौधरी साहब कहतेवो भी क्या वक़्त थे! लोग मिडिल पास कर डिप्टी कलट्टरी करते थे और आजकल की तालीम है कि एंट्रेंस तक अँग्रेज़ी पढ़कर लड़के तीस-चालीस से आगे नहीं बढ़ पाते। बेटों को ऊँचे ओहदों पर देखने का अरमान लिए ही उन्होंने आँखें मूँद लीं।

इंशाअल्लाचौधरी साहब के कुनबे में बरकत हुई। चौधरी फ़ज़ल-क़ुरबान रेलवे में काम करते थे। अल्लाह ने उन्हें चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। चौधरी इलाहीबख़्श डाकख़ाने में थे। उन्हें भी अल्लाह ने चार बेटे और दो लड़कियाँ बख़्शीं।

चौधरी-ख़ानदान अपने मकान को हवेली पुकारता था। नाम बड़ा देने पर भी जगह तंग ही रही। दारोग़ा साहब के ज़माने में जनाना भीतर था और बाहर बैठक में वे मोढ़े पर बैठ नैचा गुड़गुड़ाया करते। जगह की तंगी की वजह से उनके बाद बैठक भी ज़नाने में शामिल हो गई और घर की ड्योढ़ी पर पर्दा लटक गया। बैठक न रहने पर भी घर की इज़्ज़त का ख़याल थाइसलिए पर्दा बोरी के टाट का नहींबढ़िया क़िस्म का रहता।

ज़ाहिरा दोनों भाइयों के बाल-बच्चे एक ही मकान में रहने पर भी भीतर सब अलग-अलग था। ड्योढ़ी का पर्दा कौन भाई लाएइस समस्या का हल इस तरह हुआ कि दारोग़ा साहब के ज़माने की पलंग की रंगीन दरियाँ एक के बाद एक ड्योढ़ी में लटकाई जाने लगीं।

तीसरी पीढ़ी के ब्याह-शादी होने लगे। आख़िर चौघरी-ख़ानदान की औलाद को हवेली छोड़ दूसरी जगहें तलाश करनी पड़ी। चौधरी इलाहीबख़्श के बड़े साहबज़ादे एंट्रेंस पास कर डाकख़ाने में बीस रुपए की क्लर्की पा गए। दूसरे साहबज़ादे मिडिल पास कर अस्पताल में कम्पाउंडर बन गए। ज्यों-ज्यों ज़माना गुज़रता जातातालीम और नौकरी दोनों मुश्किल होती जाती। तीसरे बेटे होनहार थे। उन्होंने वज़ीफ़ा पाया। जैसे-तैसे मिडिल कर स्कूल में मुदर्रिस हो देहात चले गए।

चौथे लड़के पीरबख़्श प्राइमरी से आगे न बढ़ सके। आजकल की तालीम माँ-बाप पर ख़र्च के बोझ के सिवा और है क्यास्कूल की फ़ीस हर महीनेऔर किताबोंकापियों और नक़्शों के लिए रुपए-ही-रुपए!

चौधरी पीरबख़्श का भी ब्याह हो गया। मौला के करम से बीबी की गोद भी जल्दी ही भरी। पीरबख़्श ने रोज़गार के तौर पर ख़ानदान की इज़्ज़त के ख़याल से एक तेल की मिल में मुंशीगिरी कर ली। तालीम ज़ियादा नहीं तो क्यासफ़ेदपोश ख़ानदान की इज़्ज़त का पास तो था। मज़दूरी और दस्तकारी उनके करने की चीज़ें न थीं। चौकी पर बैठते। क़लम-दवात का काम था।

बारह रुपया महीना अधिक नहीं होता। चौधरी पीरबख़्श को मकान सितवा की कच्ची बस्ती में लेना पड़ा। मकान का किराया दो रुपया था। आसपास ग़रीब और कमीने लोगों की बस्ती थी। कच्ची गली के बीचों- बीचगली के मुहाने पर लगे कमेटी के नल से टपकते पानी की काली धार बहती रहतीजिसके किनारे घास उग आई थी। नाली पर मच्छरों और मक्खियों के बादल उमड़ते रहते। सामने रमज़ानी धोबी की भट्टी थीजिसमें से घुआँ और सज्जी मिले उबलते कपड़ों की गंध उड़ती रहती। दाईं ओर बीकानेरी मोचियों के घर थे। बाईं ओर वर्कशाप में काम करने वाले कुली रहते!

इस सारी बस्ती में चौधरी पीरबख़्श ही पढ़े-लिखे सफ़ेदपोश थे। सिर्फ़ उनके ही घर की ड्योढ़ी पर पर्दा था। सब लोग उन्हें चौधरीजीमुंशीजी कहकर सलाम करते। उनके घर की औरतों को कभी किसीने गली में नहीं देखा। लड़कियाँ चार-पाँच बरस तक किसी काम-काज से बाहर निकलती और फिर घर की आबरू के ख़याल से उनका बाहर निकलना मुनासिब न था। पीरबख़्श ख़ुद ही मुस्कुराते हुए सुबह-शाम कमेटी के नल से घड़े भर लाते।

चौधरी की तनख़्वाह पंद्रह बरस में बारह से अठारह हो गर्इ। ख़ुदा की बरकत होती हैतो रुपए-पैसे की शक्ल में नहींआल-औलाद की शक्ल में होती है। पद्रह बरस में पाँच बच्चे हुए। पहले तीन लड़कियाँ और बाद में दो लड़के।

दूसरी लड़की होने को थी तो पीरबख़्श की वाल्दा मदद के लिए आईं। वालिद साहब का इंतिक़ाल हो चुका था। दूसरा कोई भाई वाल्दा की फ़िक्र करने आया नहींवे छोटे लड़के के यहाँ ही रह्ने लगीं।

जहाँ बाल-बच्चे और घर-बार होता हैसौ क़िस्म की झंझटें होती ही हैं। कभी बच्चे को तकलीफ़ हैतो कभी जच्चा को। ऐसे वक़्त में क़र्ज़ की ज़रूरत कैसे न होघर-बार होतो क़र्ज़ भी होगा ही।

मिल की नौकरी का क़ायदा पक्का होता है। हर महीने की सात तारीख़ को गिनकर तनख़्वाह मिल जाती है। पेशगी से मालिक को चिढ़ है। कभी बहुत ज़रूरत पर ही मेहरबानी करते। ज़रूरत पड़ने पर चौबरी घर की कोई छोटी-मोटी चीज़ गिरवी रखकर उधार ले आते। गिरवी रखने से रुपए के बारह आने ही मिलते। ब्याज़ मिलाकर सोलह आने हो जाते और फिर चीज़ के घर लौट आने की संभावना न रहती।

मुहल्ले में चौधरी पीरबख़्श की इज़्ज़त थी। इज़्ज़त का आधार थाघर के दरवाज़े पर लटका पर्दा। भीतर जो होपर्दा सलामत रहता। कभी बच्चों की खींच-खाँच या बेदर्द हवा के झोंकों से उसमें छेद हो जातेतो पर्दे की आड़ से हाथ सुई-धागा ले उसकी मरम्मत कर देते।

दिनों का खेल! मकान की ड्योढ़ी के किवाड़ गलते-चलते बिलकुल गल गए। कई दफ़े कसे जाने से पेच टूट गए और सुराख ढीले पड़ गए। मकान मालिक सुरजू पाँडे को उसकी फ़िक्र न थी। चौधरी कभी जाकर कहते-सुनते तो उत्तर मिलता—“कौन बड़ी रक़म थमा देते होदो रुपल्ली किराया और वह भी छ:-छ: महीने का बक़ाया। जानते हो लकड़ी का क्या भाव है। न हो मकान छोड़ जाओ। आख़िर किवाड़ गिर गए। रात में चौधरी उन्हें जैसे-तैसे चौखट से टिका देते। रात-भर दहशत रहती कि कहीं कोई चोर न आ जाए।

मुहल्ले में सफ़ेदपोशी और इज़्ज़त होने पर भी चोर के लिए घर में कुछ न था। शायद एक भी साबित कपड़ा या बर्तन ले जाने के लिए चोर को न मिलतापर चोर तो चोर है। छिनने के लिए कुछ न होतो भी चोर का डर तो होता ही है। वह चोर जो ठहरा!

चोर से ज़ियादा फ़िक्र थी आबरू की। किवाड़ न रहने पर पर्दा ही आबरू का रखवारा था। वह पर्दा भी तार-तार होते-होते एक रात आँधी में किसी भी हालत में लटकने लायक़ न रह गया। दूसरे दिन घर की एकमात्र पुश्तैनी चीज़ दरी दरवाज़े पर लटक गई। मुहल्लेवालों ने देखा और चौधरी को सलाह दी—“अरे चौधरीइस ज़माने में दरी यूँ काहे ख़राब करोगेबाज़ार से ला टाट का टुकड़ा न लटका दो!” पीरबख़्श टाट की क़ीमत भी आते-जाते कई दफ़े पूछ चुके थे। दो गज़ टाट आठ आने से कम में न मिल सकता था। हँसकर बोलेहोने दो क्या हैहमारे यहाँ पक्की हवेली में भी ड्योढ़ी पर दरी का ही पर्दा रहता था।

कपड़े की महँगाई के इस ज़माने में घर की पाँचों औरतों के शरीर से कपड़े जीर्ण होकर यूँ गिर रहे थेजैसे पेड़ अपनी छाल बदलते हैंपर चौधरी साहब की आमदनी से दिन में एक दफ़े किसी तरह पेट भर सकने के लिए आटा के अलावा कपड़े की गुंजाइश कहाँख़ुद उन्हें नौकरी पर जाना होता। पायजामे में जब पैबंद संभालने की ताब न रहीमारकीन का एक कुर्ता-पायजामा ज़रूरी हो गयापर लाचार थे।

यशपाल 


गिरवी रखने के लिए घर में जब कुछ भी न होग़रीब का एकमात्र सहायक है पंजाबी खान। रहने की जगह भर देखकर वह रुपया उधार दे सकता है। दस महीने पहले गोद के लड़के बर्कत के जन्म के समय पीरबख़्श को रुपए की ज़रूरत आ पड़ी। कहीं और कोई प्रबंध न हो सकने के कारण उन्होंने पंजाबी खान बबर अलीख़ाँ से चार रुपए उधार ले लिये थे।

बबर अलीख़ाँ का रोज़गार सितवा के उस कच्चे मुहल्ले में अच्छा-ख़ासा चलता था। बीकानेरी मोचीवर्कशाप के मज़दूर और कभी-कभी रमज़ानी घोबी सभी बबर मियाँ से क़र्ज़ लेते रहते। कई दफ़े चौधरी पीरबख़्श ने बबर अली को क़र्ज़ और सूद की क़िश्त न मिलने पर अपने हाथ के डंडे से ऋणी का दरवाज़ा पीटते देखा था। उन्हें साहूकार और ऋणी में बीच-बचावल भी करना पड़ा था। ख़ान को वे शैतान समझते थेलेकिन लाचार हो जाने पर उसी की शरण लेनी पड़ी। चार आना रुपया महीने पर चार रुपया क़र्ज़ लिया। शरीफ़ ख़ानदानीमुसलमान भाई का ख़याल कर बबर अली ने एक रुपया माहवार की क़िश्त मान ली। आठ महीने में क़र्ज़ अदा होना तय हुआ।

ख़ान की क़िश्त न दे सकने की हालत में अपने घर के दरवाज़े पर फ़जीहत हो जाने की बात का ख़याल कर चौधरी के रोएँ खड़े हो जाते। सात महीने फ़ाक़ा करके भी वे किसी तरह से क़िश्त देते चले गएलेकिन जब सावन में बरसात पिछड़ गर्इ और बाजरा भी रुपए का तीन सेर मिलने लगाक़िश्त देना संभव न रहा। ख़ान सात तारीख़ की शाम को ही आया। चौधरी पीरबख़्श ने ख़ान की दाढ़ी छू और अल्ला की क़सम खा एक महीने की भुआफ़ी चाही। अगले महीने एक का सदा देने का वायदा किया! ख़ान टल गया।

भादों में हालत और भी परेशानी की हो गर्इ। बच्चों की माँ की तबीअत रोज़-रोज़ गिरती जा रही थी। खाया-पिया उसके पेट में न ठहरता। पथ्य के लिए उसको गेहूँ की रोटी देना ज़रूरी हो गया। गेहूँ मुश्किल से रुपए का सिर्फ़ ढाई सेर मिलता। बीमार का जी ठहराकभी प्याज़ के टुकड़े या धनिये की ख़ुश्बू के लिए ही मचल जाता। कभी पैसे की सौंफ़अजवायनकाले नमक की ही ज़रूरत होतो पैसे की कोई चीज़ मिलती ही नहीं। बाज़ार में ताँब का नाम ही नहीं रह गया! नाहक़ इकन्नी निकल जाती है। चौधरी को दो रुपए महँगाई-भत्ते के मिलेपर पेशगी लेते लेते तनख़्वाह के दिन केवल चार ही रुपए हिसाब में निकले।

बच्चे पिछले हफ़्ते लगभग फ़ाक़े से थे। चौधरी कभी गली से दो पैसे की चौराई ख़रीद लातेकभी बाज़रा उबाल सब लोग कटोरा-कटोरा-भर पी लेते। बड़ी कठिनता से मिले चार रुपयों में से सवा रुपया ख़ान के हाथ में घर देने की हिम्मत चौधरी को न हुई।

मिल से घर लौटते समय वे मंडी की ओर टहल गए। दो घंटे बाद जब समझाख़ान टल गया होगा और अनाज की गठरी ले वे घर पहुँचे। ख़ान के भय से दिल डूब रहा थालेकिन दूसरी ओर चार भूखे बच्चोंउनकी माँदूध न उतर सकने के कारण सूखकर काँटा हो रहे गोद के बच्चे और चलने-फिरने से लाचार अपनी ज़ईफ़ माँ की भूख से बिलबिलाती सूरतें आँखों के सामने नाच जाती। धड़कते हुए हृदय से वे कहते जातेमौला सब देखता हैख़ैर करेगा।

सात तारीख़ की शाम को असफल हो ख़ान आठ की सुबह ख़ूब तड़के चौधरी के मिल चले जाने से पहले ही अपना हंडा हाथ में लिए दरवाज़े पर मौजूद हुआ।

रात-भर सोच-सोचकर चौधरी ने ख़ान के लिए बयान तैयार किया। मिल के मालिक लालाजी चार रोज़ के लिए बाहर गए हैं। उनके दस्तख़त के बिना किसी को भी तनख़्वाह नहीं मिल सकी। तनख़्वाह मिलते ही वह सवा रुपया हाज़िर करेगा। माक़ूल वजह बताने पर भी ख़ान बहुत देर तक ग़ुर्राता रहा—“अम वतन चोड़के परदेस में पड़ा हैऐसे रुपिया चोड़ देने के वास्ते अम यहाँ नहीं आया हैअमारा भी बाल-बच्चा है। चार रोज़ में रुपिया नई देगातो अम तुमारा...कर देगा।

पाँचवें दिन रुपया कहाँ से आ जाता! तनख़्वाह मिले अभी हफ़्त भा नहीं हुआ। मालिक ने पेशगी देने से साफ़ इनकार कर दिया। छठे दिन क़िस्मत से इतवार था। मिल में छुट्टी रहने पर भी चौधरी ख़ान के डर से सुबह ही बाहर निकल गए। जान-पहचान के कई आदमियों के यहाँ गए। इधर-उधर की बातचीत कर वे कहतेअरे भाईहो तो बीस आने पैसे तो दो-एक रोज़ के लिए देना। ऐसे ही ज़रूरत आ पड़ी है।

उत्तर मिलामियाँपैसे कहाँ इस ज़माने में! पैसे का मोल कौड़ी नहीं रह गया। हाथ में आने से पहले ही उधार में उठ गया तमा!

दोपहर हो गई। ख़ान आया भी होगातो इस वक़्त तक बैठा नहीं रहेगाचौधरी ने सोचाऔर घर की तरफ़ चल दिए। घर पहुँचने पर सुना ख़ान आया था और घंटे-भर तक ड्योढ़ी पर लटके दरी के पर्दे को डंडे से ठेल-ठेलकर गाली देता रहा है! पर्दे की आड़ से बड़ी बीबी के बार-बार ख़ुदा की क़सम खा यक़ीन दिलाने पर कि चौधरी बाहर गए हैंरुपया लेने गए हैंख़ान गाली देकर कहतानईबदज़ात चोर बीतर में चिपा है! अम चार घंटे में पिर आता है। रुपिया लेकर जाएगा। रुपिया नई देगातो उसका खाल उतारकर बाज़ार में बेच देगा।… हमारा रुपिया क्या अराम का है?

चार घंटे से पहले ही ख़ान की पुकार सुनाई दीचौदरी! पीरबख़्श के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई और ये बिलकुल निस्सत्त्व हो गएहाथ-पैर सुन और गला ख़ुश्क। गाली दे पर्दे को ठेलकर ख़ान के दुबारा पुकारने पर चौधरी का शरीर निर्जीवप्राय होने पर भी निश्चेष्ट न रह सका। वे उठकर बाहर आ गए। ख़ान आग-बबूला हो रहा थापैसा नहीं देने का वास्ते चिपता है!...

एक-से-एक बढ़ती हुई तीन गालियाँ एक-साथ ख़ान के मुँह से पीरबख़्श के पुरखों-पीरों के नाम निकल गईं। इस भयंकर आघात से पीरबख़्श का ख़ानदानी रक्त भड़क उठने के बजाय और भी निर्जीव हो गया। ख़ान के घुटने छूअपनी मुसीबत बता वे मुआफ़ी के लिए ख़ुशामद करने लगे।

ख़ान की तेज़ी बढ़ गई। उसके ऊँचे स्वर से पड़ोस के मोची और मज़दूर चौधरी के दरवाज़े के सामने इकट्ठे हो गए। ख़ान क्रोध में डंडा फटकार कर कह रहा थापैसा नहीं देना थालिया क्योंतनख़्वाह किदर में जाताअरामी अमारा पैसा मारेगा। अम तुमारा खाल खींच लेगा। पैसा नई हैतो घर पर पर्दा लटका के शरीफ़ज़ादा कैसे बनता?...तुम अनको बीबी का गैना दोबर्तन दोकुछ तो भी दोअम ऐसे नई जाएगा।

बिलकुल बेबस और लाचारी में दोनों हाथ उठा ख़ुदा से खान के लिए दुआ माँग पीरबख़्श ने क़सम खाईएक पैसा भी घर में नहींबर्तन भी नहींकपड़ा भी नहींख़ान चाहे तो बेशक उसकी खाल उतारकर बेच ले।

ख़ान और आग हो गयाअम तुमारा दुआ क्या करेगातुमारा खाल क्या करेगाउसका तो जूता भी नई बनेगा। तुमारा खाल से तो यह टाट अच्चा। खान ने ड्योढ़ी पर लटका दरी का पर्दा झटक लिया। ड्योढ़ी से पर्दा हटने के साथ हीजैसे चौधरी के जीवन को डोर टूट गई। वह डगमगाकर ज़मीन पर गिर पड़े।

इस दृश्य को देख सकने की ताब चौधरी में न थीपरंतु द्वार पर खड़ी भीड़ ने देखाघर की लड़कियाँ और औरते पर्दे के दूसरी ओर घटती घटना के आतंक से आँगन के बीचों-बीच इकट्ठी हो खड़ी काँप रही थीं। सहसा पर्दा हट जाने से औरतें ऐसे सिकुड़ गईजैसे उनके शरीर का वस्त्र खींच लिया गया हो। वह पर्दा ही तो घर-भर की औरतों के शरीर का वस्त्र था। उनके शरीर पर बचे चीथड़े उनके एक-तिहाई अंग ढंकने में भी असमर्थ थे!

जाहिल भीड़ ने घृणा और शरम से आँखें फेर ली। उस नग्नता की झलक से ख़ान की कठोरता भी पिघल गई। गलानि से थूकपर्दे को आँगन में वापिस फेंकक्रुद्ध निराशा में उसने लाहौल बिला...! कहा और असफल लौट गया।

भय से चीख़कर ओट में हो जाने के लिए भागती हुई औरतों पर दया कर भीड़ छँट गई। चौधरी बेसुध पड़े थे। जब उन्हें होश आयाड्योढ़ी पर का पर्दा आँगन में सामने पड़ा थापरंतु उसे उठाकर फिर से लटका देने का सामर्थ्य उनमें शेष न था। शायद अब इसकी आवश्यकता भी न रही थी। पर्दा जिस भावना का अवलम्ब थावह मर चुकी थी।


 -यशपाल

(नोट- यशपाल  की कहानी कला, शैली, साहित्यिक अवदान एवं प्रस्तुत निबंध की विश्लेषणात्मक व्याख्या शीघ्र ही इस ब्लॉग एवं प्रोफेसर एकेडमी बलिया के यू-ट्यूब चैनल पर प्रस्तुत किया जायेगा, जिसका लिंक निम्नवत है-

 प्रोफेसर एकेडमी बलिया, https://www.youtube.com/@ProfessorAcademyBallia

पाठ्यक्रम में शामिल अन्य कहानियों को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक को क्लिक करें -

1.    प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर

2. जैनेन्द्र कुमार की कहानी पाजेब

3. अज्ञेय की कहानी गैंग्रीन (रोज़)

  4.  फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी- तीसरी कसम उर्फ मारेगए गुलफाम

    5.  ज्ञानरंजन की कहानी पिता

बी ए तृतीय सेमेस्टर के पाठ्यक्रम में शामिल निबंधों को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक को क्लिक करें –


  1.     तुम चन्दन हम पानी :विद्यानिवास मिश्र

 


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