गुरुवार, 28 सितंबर 2023

जामुन का पेड़ : पीड़ित जन की व्यथा (व्यंग्य एवं यथार्थ का अद्भुत मेल)

 जामुन का पेड़ :  पीड़ित जन की व्यथा


(व्यंग्य एवं यथार्थ का अद्भुत मेल)




कृश्न चंदर की व्यंग्य कहानी जामुन का पेड़ बहुत प्रसिद्ध कहानी है, जिसे एन सी आर टी ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल भी किया है । परन्तु इस कहानी की वास्तविक प्रासंगिकता आज नुक्कड़ नाट्य शैली में संकल्प साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था बलिया के कलाकारों ने प्रस्तुत करके स्वतः सिद्ध कर दी । इसके लिए कला की जीवंत परंपरा के पारखी आशीष त्रिवेदी जी को इस मंचन के लिए खूब बधाई ।


इससे पूर्व आज के कार्यक्रम में "पठनीयता का संकट"  विषयक गंभीर विचार गोष्ठी सम्पन्न हुई । अक्सर यह देखा जाता है कि हम समय के साथ सवालों से घिरते चले जाते हैं और यह सवाल जब घाव बन नासूर  का रूप लेता है तो शल्य-चिकित्सको का सहारा लेते हैं । लेकिन हम जब जगते हैं उस समय तक बहुत देर हो चुकी होती है । कमोबेश यही स्थिति पठनीयता के संदर्भ में बनी हुई है । विशेषतः मुद्रित माध्यमों के संदर्भ में आज की गोष्ठी में बहुत सारे विचार छनकर आये, जिनका जिक्र जरूरी है । इनमें महर्षि अशोक , डॉ. अमलदार नीहार  , Ajay Pandey , श्री अजय पाण्डेय, श्री रामजी तिवारी, श्री शिवजी मिश्र रसराज, श्री Shwetank Singh  एवं डॉ. मनजीत सिंह  इत्यादि के विचारों के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकाल सकते हैं ।यथा-प्रिंट बनाम डिजिटल संस्करण, संवेदनशीलता का अभाव, पाठकों के भीतर आंदोलन के द्वारा प्रवेश, यह संकट नहीं अपितु दिशाहीन है इत्यादि विचार उल्लेखनीय है । इसके अतिरिक्त प्रखर आलोचक श्री Ramji Tiwari   द्वारा दिया श्री  Mahesh Punetha  जी का उदाहरण बहुत महत्वपूर्ण रहा 

। इनमें प्रत्येक गाँव में पुस्तकालय की परिकल्पना विशिष्ट है । 


परन्तु आज के कार्यक्रम के केंद्र में नाट्य प्रस्तुति ही रही । हरेक कलाकार अभिनेयता की कसौटी पर खरे उतरे । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये कलाकार हरेक पात्रों को अपने भीतर समाहित करके प्रस्तुति दे रहे हों । 


यह व्यंग्य कथा भले ही आज से लगभग पचास वर्ष पहले लिखी गयी हो लेकिन इसकी प्रासंगिकता सार्वकालिक एवं स्वयंसिद्ध है । अक्सर जामुन के पेड़ को सबसे कमजोर माना जाता है । ऐसा माना जाता है कि यह पेड़ अनायास ही गिर जाता है । परन्तु जब इस पेड़ को वैदेशिक संबंधों की प्रगाढ़ता का पर्याय मानकर लगाया गया हो तो इनकी व्यंजना की कल्पना सहजतापूर्ण किया जा सकता है । रही बात लेखक की तो लेखक ने भारतीय व्यवस्था के अस्थिपंजर की तरह खंडित हुए ढाँचे को अलग-अलग तरीकों से देखा-परखा एवं व्यक्त किया । यहाँ हम अन्य व्यंग्यात्मक रचनाओं से इसकी विशिष्टता का सहज ही आकलन कर सकते हैं । बहरहाल यह तो लेखकीय कौशल की बात रही ।


लेकिन आशीष त्रिवेदी के निर्देशन में अभिनीत इस कहानी के नाट्य रूपांतरण ने नायाब ढंग से अपनी पहचान कायम रखी । सबसे बड़ी बात इसके हरेक कलाकारों ने आधुनिकता एवं उत्तराधुनिक अवयवों को फेंटकर एक ऐसा भाव रस तैयार किया जिसे दर्शक एकमेक होकर पीते चले गये और एक समय ऐसा भी आया जब वे पूर्णतः रसमग्न हो गये । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि-भारत का हरेक विभाग उस जामुन के पेड़ के इर्द-गिर्द घूम रहा है । हरेक कर्मचारी अपना राग अलाप रहा है । अपने में व्यस्त, उन्मुक्त भाव से पेड़ तले दबे कवि महोदय की पीड़ा से अनजान होकर दिन काटते रहे और जैसे उसके मरने का इंतजार करते रहे । कभी जन्मदिन की पार्टी तो कभी आपसी वार्तालापों के माध्यम से पीड़ित जन की पोड़ा पर नमक छिड़कते रहे । इस बीच कुछ भले लोग भी  मिल जाते हैं, खाना भी खिलाते हैं और उसे अपने दोहरे चरित्र के माध्यम से शासन में अभिधा शैली से सीधे व्यंजना की रफ्तार पकड़ लेते हैं । 


यह कवि उस समस्त जनसमुदाय का प्रतिनिधित्व करता है, जो हर रोज अपनी फ़ाइलों के पीछे दौड़ लगाते हैं । जब शाम को पहुँचते हैं तो वह पुनः वही मेज की शोभा बढ़ा रही होती है । अंतर बस इतना है कि जामुन का पेड़ हर दिन एक नये अवतार में नये व्यक्ति को अपनी आगोश में लेता है ।


इस प्रकार आज एक समय तो ऐसा भी आया कि-दर्शक-अभिनय में अंतर करना मुश्किल हो गया । दर्शकों का हास्य कब करुणा में परिवर्तित हो गया और कब वह व्यंग्यात्मक हँसी के रूप में उभरकर सामने आ गया, इसका एहसास कर पाना बहुत मुश्किल रहा । अंत में लेखक कृश्न चंदर के शब्दों को उधार लेकर कहने की धृष्टता करता हूँ तो प्रासंगिकता पर प्रश्न कोई उठा ही नहीं सकता क्योंकि वही "आईने के सामने" खड़े होकर कहने का साहस कर सकते हैं कि-अफ़सोस इस बात का नहीं कि मौत बेरहम क्यों हैं ,

अफ़सोस इस बात का है कि अस्पताल बेरहम क्यों हैं ?


पुनः संकल्प साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्था, बलिया के सचिव सहित पूरी टीम को एक स्तरीय मंचन के लिए अनेकशः बधाई ।


डॉ. मनजीत सिंह

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