गुरुवार, 24 जून 2021

लोक के आलोक में कबीर की प्रासंगिकता


वैश्विक महामारी ने भारतीय जनता पर करारा प्रहार किया है । ऐसे समय में हम सब आशा की एक किरण के लिए लालायित रहते हैं । जब यह ऊर्जा प्रदान करने लगे तो यह समझ जाना चाहिए कि हम धीरे-धीरे ही सही उस महामारी से मुक्त हो रहे हैं । ऐसी असंख्य किरणें आज हमें कबीर जयंती पर केंद्रित गोष्ठी में अन्दर से उद्वेलित की । आज बलिया जनपद की एकमात्र सक्रिय साहित्यिक संस्था संकल्प ने कबीर को नये तरीके से पढ़ने-सोचने और समझकर शोध को गति देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया । 

इस गोष्ठी की अध्यक्षता जनपद के सहज-सरल एवं बौद्धिक प्रतिमूर्ति के साक्षात हस्ताक्षर प्रसिद्ध साहित्यकार डॉ. जनार्दन राय ने की । इनके साथ बौद्धिक एवं आध्यात्मिक खुराक प्रदान करने में कबीर साहित्य के मर्मज्ञ विद्वानों ने भरपूर सहयोग किया । इनमें ब्रजकिशोर जी की वाणी से निर्बाध रूप में कबीर-वाणी की धारा ने वातावरण को न केवल भक्तिमय बना दिया अपितु लोक से जुड़कर कबीर को परखने की असीमित शक्ति भी प्रदान की ।


कार्यक्रम का सफल संचालन कर रहे संकल्प साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था के संयोजक आशीष त्रिवेदी ने बड़े ही संतुलित नजरिये से गीत-संगीत  के साथ भक्ति का समन्वित रूप प्रस्तुत करते हुए कबीर की प्रासंगिकता पर केंद्रित गोष्ठी को गति प्रदान की और सूत्र वाक्य-सबके कबीर-दिया ।


कहते हैं-जब किसी कार्यक्रम में संगीत की धारा प्रवाहित होती है तो उसकी उपादेयता स्वतः सिद्ध हो जाती है । इस क्रम में श्री भगवान तिवारी जी द्वारा प्रस्तुत भजन-कबीर

कवना मति मारेसि तोरी रमदसिया...-ने नये कलेवर में भक्ति को महसूस करने की शक्ति प्रदान की ।


वरिष्ठ पत्रकार अशोक जी ने बड़े ही सधे लहजे में कबीर का उल्लेख ऐतिहासिक  परिप्रेक्ष्य में किया । उनका स्पष्ट मत था कि-कबीर को पढ़कर हम अनायास समाधिस्थ नहीं हो सकते क्योंकि इसमें बाहरी आडम्बर अपना आवरण रूपी केचुल उतार नहीं पाता । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि-कबीर ने अपने काव्य में मुख्यतः चार बिम्बों का प्रयोग किये हैं-चींटी, मछली, मरकट एवं  चिड़िया । जब वह भक्ति के मार्ग पर चलने की बात करते हैं तो ये बिम्ब ही मार्ग का  प्रतीक बनते हैं। इस क्रम में उन्होंने माया को भी सहजतापूर्वक व्याख्यायित किया । उनका कहना था कि- माया अर्थात...मा (नहीं) एवं या (दिखे), जो नहीं है, वह दिखायी दे । वही माया है । इस प्रकार कबीर आज भी 

भेदमूलक प्रवृत्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए प्रासंगिक हैं और बने भविष्य में भी बने  रहेंगे। इस अवसर पर अबोध बालक दिव्य त्रिपाठी-सुघर भोजपुरी कविता की प्रस्तुति ने निःसंदेह  संगोष्ठी में नयी चेतना का प्रवाह किया । इस कड़ी को अधिक मजबूत करने में संगीत के धुरंधर शिक्षक श्री विजय प्रकाश पाण्डेय  की सानी नहीं । उन्होंने कबीर भजन-लगन बिनु..--के माध्यम से अजस्र भावधारा प्रवाहित किया ।

डॉ. मनजीत सिंह ने कहा कि-यह हमारा सबसे बड़ा सौभाग्य है कि-मुझे कबीर एवं आधुनिक युग के कबीर बाबा नागार्जुन अर्थात दोनों विभूतियों को समझने-परखने एवं शोध करने का अवकाश मिला है । रही बात कबीर की तो यह हमारे अध्ययन के केंद्र में रहे तो नागार्जुन हमारे शोध के केंद्र में रहे ।

आज की यह संगोष्ठी बहुत विशिष्ट है क्योंकि इसमें कबीर को नये सिरे से सोचने-समझने एवं मूल्यांकित करने का अवकाश मिला है । हमें यह देखना है कि-वर्तमान समय में आखिर कौन-कौन परिस्थितियाँ हैं, जहाँ कबीर के शब्द फिट बैठते हैं । उनके विचार कारगर होते हैं । उनके दर्शन प्रभावी होते हैं । और अंत में उनकी संवेदनाएँ जनमानस को प्रभावित करती हैं । इसके लिए सबसे जरूरी है-कबीर का पुनर्मूल्यांकन । यह शुक्ल-द्विवेदी एवं आधुनिक दलित विमर्श चेतना संबंधी कबीर के संबंध में किये गये विचारो को फेंटकर निर्मित की गयी समन्वयकारी प्रवृत्तियों से परिपूर्ण होगी । इसे पढ़ने से वर्तमान भारतीय लोकतंत्र के सभी स्तंभ प्रभावित होंगे । इसी कारण हमें कबीर को मनोवैज्ञानिक एवं  वैज्ञानिक कसौटी पर कसकर उनके विचारों को एक नैतिक धरातल प्रदान करने की जरूरत है ।


इस विचार गोष्ठी में श्री शिवजी पाण्डेय "रसराज" ने कबीर के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि-आज कबीर जैसा शिष्य होना सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है ।लेकिन कबीर  ने स्वयं संघर्ष करके अपना सद्गुरु खोज लिया एवं रामानंद ने उन्हें अपना शिष्य स्वीकार किया । आपने बड़े ही सटीक लहजे में सिद्ध किया कि-कबीर को अनपढ़ कहना उचित नहीं अपितु वह पढ़े लिखे थे । वह एक लोहार थे । जैसे वह लोहे को पीट पीटकर कुरूप लौह को सुघर एवं सुन्दर मूर्ति निर्मित कर देता है । ठीक वैसे ही कबीर ने अपने शिष्यों के माध्यम से समाज में एक नयी धारा प्रवाहित की, जिसमें अवगाहन करके बौद्धिकता चरम पर पहुँची ।

रसराज जी वास्तव में अपने नाम के अनुरूप रसों का संचार करते हैं । उन्होंने कबीर केंद्रित कविता-रोज जगावे सन्त कबीरा तथा बुद्ध गीत-भंते गीत गात...शीर्षक काव्य गीत के द्वारा उक्त तथ्यों को अक्षरशः सिद्ध किया । 

श्री विवेक कुमार सिंह ने अपनी बेबाकी से अपनी बात रखी । आज जब हम कबीर को याद करते हैं तो वह विश्व की तमाम विकृतियों में से होकर आते हैं । उनके अन्दर का ज्ञान ही उन्हें इन विपरीत स्थितियों में भी मजबूत करता है क्योंकि आत्मज्ञानी में समाज की चोट करने की शक्ति होती है । यह कर्म की महानता से निर्मित होकर इनसान को विशिष्ट बनाती है । मिश्रा जी ने कहा कि-हमें कबीर को निःस्वार्थ भाव से याद करना जरूरी है । यह सर्वविदित है कि- महान विभूतियों ने कभी कभी जन्म लिया । कबीर भी उन विरले व्यक्तित्व के धनी थे, जो भले ही एक निश्चित समय में अवतरित हुए हों, परन्तु उनकी प्रासंगिकता हर काल की परिस्थितियों में सिद्ध है । साथ ही टिवंकल ने गुरु-शिष्य की चरमराती साख पर न केवल चिंता जाहिर की अपितु इसे कबीर के विचारों को प्रासंगिक बनाने में सबसे अधिक बाधक भी माना कि-अब यह परम्परा खत्म हो रही है । इसे आगे बढ़ाना बहुत जरूरी है । 

विजय प्रकाश पाण्डेय एवं श्री भगवान तिवारी की बीच-बीच में वापसी ने वास्तव में कार्यक्रम में प्राण वायु का संचार करने की तरह था । पाण्डेय जी ने- मेरी गठरी में लागा....-तथा तिवारी जी तो जैसे गाते-गाते सुध-बुध खोकर कहते चले-

कबीर कौन थे ? गुरू, सद्गुरु, साहब  थे या कौन थे ?

चारो धाम घूमना व्यर्थ है । ऐसे प्रश्नों की झड़ी के बीच कबीर वाणी का गायन ने मन मोह लिया । यहाँ तक उन्होंने वर्तमान नयी पतोहू एवं पेंशन की ललक को बड़े ही सहज लहजे में सत्ताईस से सात के बीच में बुजुर्ग की ख़ातिरदारी को भी उसी वाणी से सिंचित करके प्रासंगिकता को पूर्णतया सिद्ध कर दिया । इसके लिए उन्हें साधुवाद । इस क्रम में युवा पीढ़ी के ओजस्वी स्वर को 

अचिन्त्य त्रिपाठी ने वैचारिक गति प्रदान करते हुए सरल शब्दों में कबीर के जीवन पर आधारित कार्यक्रमों की उपादेयता को-सड़क पर प्रायोगिकता- के रूप में सिद्ध किया और कार्यक्रम में उपस्थिति सज्जनों को युगीन कबीर, युगीन सूर, युगीन तुलसी की तरह आत्मसात करने की सलाह दी ।

मुख्य वक्ता संत साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान ब्रजकिशोर जी ने सिद्ध किया कि कबीर मूलतः विहंगम मार्ग के थे । इसके साथ ही विद्या-अविद्या से लेकर पंचगंगा घाट तक आये समस्त बिंदुओं पर विशद चर्चा की 

और कहा कि-कबीर को रामानन्द ने बावन अक्षर छाड़ि के निः अक्षर का भेद बता दिये । अध्यक्षीय सम्बोधन में डॉ. जनार्दन राय ने कहा कि-कबीर को समझना सृष्टि को समझने के बराबर है । आपने कबीर वचनावली के आधार पर कहा कि-तुलसी को छोड़ कबीर महान है एवं गीतांजलि में कबीर के भावों का अनुवाद है ।


इस प्रकार आज एक सुखद गुरूवार के लिए कार्यक्रम संचालक मंडल को पुनः बधाई ।


डॉ. मनजीत सिंह

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...