नया-पुराना
नववर्ष की पूर्व संध्या
सूरज की लालिमा को
छुपाने को तत्पर
आसमान किस तरह
उमंगें भर रहा,
इसे देखकर मन को
बड़ा सुकून मिलता |
कम से कम एक
भारी भरकम साल
बड़े ही आहिस्ते से,
गुजरता चला जा रहा
हौले-हौले चिढ़ाता चला
जोर-जोर से पुकारकर
यही कहता चला जा रहा,
याद कीजिए, दिमाग पर
जोर भी डालिएगा
आज का ही दिन था
जोश में भी थे, उत्साह में भी थे
यह तो जरूर प्रण किये थे
भूली-बिसरी यादों में
नयापन ही जोडेंगे
अफ़सोस होता है तब
जब हम तीन सौ पैंसठ दिन को
देखते तो यही पाते है
तुमने हमें कहीं का नहीं छोड़ा
याद करो वे सारे दिन
तुम जब हमको छेड़ रहे थे
यह क्रम रूकने की वजाय
चलता गया
आपसे तो बेहतर पश्चिम वाले थे
जिन्होंने प्रकृति से ही ईश्वर को याद किया|
लेकिन आपने तो कुछ भी नहीं किया औ
समाज पर भी बोझ बनते हुए
भरसक सताने में कोई भी
कोताही नहीं की |
दाद देते हैं-
प्रकृति प्रदत्त उन भाग्यशाली लोगों को-
प्रणाम करता हूँ उनके जूनून को
जिसके बल पर
भारीपन होते जीवन को भी,
हल्का करने का साहस रहा|
अपनी खुशियाँ बरकरार रखकर
यही कहते रहे कि-
भई ! जन्म लेकर धरती पर
तुमने भोगा, हमने पाया |
इसे पाने की ललक ने
भले ही हमें कुछ ऐसा-वैसा
करने को मजबूर होना पड़ा |
आखिर हमें जाने न जाने से क्या होता
जानना है तो जानो,
लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े
समाज के बहुरूपिए को
बजाते रहे और सुनते रहे
अपनी ही तान पर झूमते रहे |
जनता बेचारी समय की मारी
कहाँ जाए और किसे सुनाये
अपना कष्ट, अपना दुःख
संतोष करके बस रह जाती है
वह तो यह भी नहीं कह पाती है
नववर्ष की पूर्व संध्या मुबारक हो||
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