दलित विमर्श
विगत
वर्ष एक सेमिनार के दौरान एक मैडम ने पति-पत्नी सम्बन्ध पर व्यंग्य किया
और तुरंत तुलसी के ढोल गंवार को कुछ इस प्रकार कह डाला-
ढोल, गंवार, शूद्र, पति, घोड़ा, जितने मारो उतने थोडा |
(वैसे मैं भी हरिजन सदृश्य लोगों को शूद्र नहीं मानता, वास्तव में समाज का
वह प्रत्येक व्यक्ति शूद्र है, जो गरीब हो-हरि नारायण ठाकुर)
गरीबी
की न कोई जाति होती है और न ही किसी धर्म के अधीन यह संचालित होता है,
अपितु इससे सभी प्रभावित है.........क्या सवर्ण-अवर्ण-नारी-पुरूष-साधु-भिखारी,
सब इससे त्रस्त हैं | आज हमने अपनी कोरी आँखों से देखा कि-एक तथाकथित
सवर्ण कहा जाने वाला खेतिहर किसान धन के अभाव में अपने रोग का निदान नहीं
कर सका और मजबूरन काल की और अग्रसरित होने लगा | गाँव के जाने-माने लोगों
ने वाचिक सहयोग भी किया लेकिन यह अपर्याप्त
रहा ...! धन्य है भारत देश...! धन्य हैं यहाँ की जनता ...!...धन्य है भारत
सरकार...! यदि सरकारी अस्पताल में सुविधापरस्त डाक्टर अपने कार्य को
ईमानदारी से करें तो शायद सरकार के प्रयास और उसके कारिंदे प्रशंसा के
पात्र भी होंगे..परन्तु वः तो अपनी दुकान चलाने में व्यस्त हैं..ऐसे में
उनसे सेवा और स्वास्थ्य की कामना करना घोड़े को चने खिलाने जैसा है क्योंकि
जिस प्रकार घोड़ा चना खाने के बाद भी पैर मारता है ठीक वैसे ही ये नौकर(सेवक
कहने में शर्म आती है..सरकारी डाक्टर) मोटी-तगड़ी तनख्वाह और कर हजम करने
बाद रोगियों को पैर ही मारते हैं....काश ये व्यावहारिक होते...?
भारत
के गाँव अंधविश्वास के कारण तीव्र विकास की गति में पीछे हैं....आज भी यह
चौतरफा वर्चस्व स्थापित किया है। कुछ पढ़े लिखे-लिखे लोग भी जंतर-मंतर
पहनते हैं ,झाड़-फूँक करवाते हैं और विरोध करने पर अथर्वेद का हवाला देकर
प्रतिवाद करते हैं ....�हाय रे जमाना .....?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें