शनिवार, 13 अप्रैल 2013

हर्ष और उल्लास का त्यौहार सरहुल

हर्ष और उल्लास का त्यौहार सरहुल 

                  भारत के  आदिवासी जनसमुदाय में मनाया जाने वाला यह त्योहार कई मायनों में विशेष है | सबसे बड़ी बात तो यही है कि-आज जिस समस्या से विश्व जूझ रहा है (ग्लोबल वार्मिंग ), उससे मुक्ति इस त्योहार के माध्यम से  मिल सकती है |  आज से ही विशेषतः झारखंड के छोटा नाग्पुए में निवास करने वाली जनजातियों में हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाएगा | इसके साथ ही छतीसगढ़ के सरगुजा सहित अनेक अंचलों में एक विशेष नृत्य के रूप में मनाया जाता है | ग्लोबल गाँव के देवता में रणेन्द्र जी ने प्रारंभ में ही एक असुर मन्त्र के माध्यम से इसी ओर संकेत करते प्रतीत होते हैं-

 मैं  हवा  बाँधता हूँ, पानी बाँधता हूँ,
धरती बाँधता हूँ
आकाश बाँधता हूँ
नौ जंगल
 दस दिशा बाँधता हूँ,
लाख पशु-परेवा,
सवा जड़ी बूटी  बांधता हूँ |
हवा-पानी कई साथ आकाश बाँधने की बात आते ही आदिवासियों की जड़, जंगल और जमीन की समस्या मुख्य बन जाती है | इस सन्दर्भ में सरहुल विशेष महत्त्व रखता है | यह आदिवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार है, और बसंत ऋतू में सखुआ फूल के फूलने के साथ ही आरम्भ हो जाता है। इस समय पेंड़-पौधों पर नई पत्तियाँ आ जाती हैं; और उनकी डाँलियाँ लाल, पीले, हरे और सफेद फूलों से सुसज्जित हो जाते हैं। सरहुल का त्यौहार प्रारम्भ हो चुका है, और विभिन्न जगहों में अलग-अलग तिथियों में गृष्मकाल तक मनाये जाने की परम्परा है, जब तक की सखुवे फूल का खिलना समाप्त नहीं हो जाता। सरहुल त्यौहार को "ख़ेंख़ेल बेंजा" भी कहा जाता है। इस अवसर पर पृथ्वी को कन्या और सूर्य को दुल्हे के रूप में देखा जाता है; और उनकी शादी पारम्पारिक तरीकों से की जाती है। यह त्यौहार नये जीवन को प्रदर्शित करता है। सूर्य की किरणें पृथ्वी पर पड़ती है, जिसके प्रभाव से जमीन पर पड़ी बीजों में स्फूर्ति आ जाती है और अँकुरण होता है; पेड़-पौधों में नई पत्तियाँ व रंग-बिरंगे फूल नजर आने लगते हैं। पृथ्वी को एक युवा-कन्या के रूप में देखा जाता है, अतः उसके विवाह के पूर्व उसके फलों अथवा अनाजों को खाना अशुभ माना जाता है। इस अवसर पर गाँव के सरना(सखुआ वृक्ष-समूह) में निवास करने वाली बूढ़ी देवी अर्थात "चाला पच्चो" जिसे गाँव का रक्षक माना जाता है; की पूजा सखुए के फूल से की जाती है। नैगस या पाहन के द्वारा पूजा के माध्यम से गाँव की रक्षा और समृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती है। उसके पश्चात पाहन को सूर्य और पाहन की पत्नी को प़ृथ्वी मानकर उनकी शादी की जाती है।
                             इस त्यौहार को मनाने के पारंपरिक तरीके भी कम आकर्षक नहीं है | इस समय लाल पाड़ साड़ी, गालों पर रंग-बिरंगे अबीर गुलाल, बालों में सरई फूल सजाकर महिलाएं पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ खूब नृत्य भी करती हैं ।(उराव जनजाति ) क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान सभी सरहुल के आनंद में सराबोर हो जाते हैं बच्चे एवं नवयुवक भी सफेद गंजी, धोती माथे पर हरे, पीले और गुलाबी रंगों के फीते बांधे जमकर नृत्य करते हैं । इस समय का नजारा ऐसा होता है  मानों लोक संस्कृति स्वर्ग लोक में परियों की भांति भगवन इंद्र के दरबार में देशज रंग में रंगकर नृत्य कर रहीं हों  और स्वर्ग से पृथ्वी तक बनी स्वर्ण सड़कों पर स्वागत में खड़े आदिवासी जन समुदाय में सरहुल की खुशियां बांट रही हो। साथ इस अवसर पर  अधिकतर सरना समिति लोग  सरहुल गीतों और पारंपरिक वाद्य यंत्रों तथा वेशभूषा के साथ नृत्यकरते हैं सबसे बड़ी बात तो यही है कि-एक तरफ हम देखते हैं कि लोक नृत्य को वालिवुडिया जामा पहनाकर लोग आनंद लेते हैं लेकिन सरहुल में खुद गाये-बजाये जाने से इसका महत्त्व और बढ़ जाता है | कभी-कभी वहीं कुछेक  समूह आधुनिक नागपुरी गीतों एवं बैण्ड बाजे की धुन पर नृत्य किया करते हैं ।  साथ ही इस समय निकाली जाने वाली शोभायात्रा में आकर्षक झांकियां मन मोह लेती हैं | प्रसंसगतः कथाक्रम(अक्टूबर-दिसंबर २०११, पृष्ठ-१८८) में प्रकाशित अलोका की कविता "सरहुल" का स्मरण प्रासंगिक है | यथा-

मांदर की थाप
हडिया 
झूमर और सरई फूल 
आया प्रकृति परब सरहुल 
सरई का सुगंध
जंगल-जंगल
बोने-बोने
और  खेत खलिहान 
सब मस्ती में मग्न 
उल्लास
भक्ति
और प्रेम 
आस्था के कई रंग 
प्रकृति के संग
शुद्ध हवा के झोखे 
रंग-बिरंगे फूल
आया प्रकृति परब सरहुल ||
इस प्रकार सरहुल का त्यौहार आदिवासियों में मनाया जाता है, जिसे देखकर यह कहा जा सकता है कि-इसे सम्पूर्ण विश्व में मनाया जाना चाहिए | संभवतः इसके माध्यम से वैश्विक शान्ति के साथ ही पर्यावरणीय शान्ति की आयाम स्वतः विकसित होकर अनेक समस्याओं से मानव सभ्यता को सुरक्षित रख सके | अंततः दुष्यंत कुमार का यह गजल महत्वपूर्ण बन जाता है-

एक कबूतर, चिठ्ठी लेकर, पहली-पहली बार उड़ा,
मौसम एक गुलेल लिए था पट से नीचे आन गिरा |

बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे कांटे, तेज हवा,
हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंजर देख लिया |

चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गयी पांवों की,
सोचो कितना बोझ उठाकर मैं इन राहों से गुजरा  |
बहुत  संभव है जिस प्रकार कबूतर पहली-पहली बार चिठ्ठी लेकर उड़ता है और मौसम की मार से तुरंत गिर जाता है | इस मंजर को वह घर बैठे-बैठे ही देख भी लेते हैं | ठीक उसी प्रकार ग्लोबल वार्मिंग से आप्लावित मौसम से त्रस्त वैश्विक जनसमुदाय प्रथमतः गिर भी सकती है, लेकिन अंततः सफलता ही मिलेगी, जिसका श्रेय उन्हीं आदिवासियों को दिया जा सकता है, जो अपनी पहचान की अमित छाप अभी-भी सभ्यता पर छोडकर दिन-प्रतिदिन प्रकृति को बचाने में कोई कसार नहीं छोड़ते हैं |
डा.मनजीत सिंह 




१३ अप्रैल २०१३





 

 


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