शुक्रवार, 12 अप्रैल 2013

सृजन सामर्थ्य और भावी पीढ़ी : समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ

सृजन सामर्थ्य और भावी पीढ़ी : समकालीन साहित्य का स्याह यथार्थ


 जब मैं उपन्यास या कहानी  को पढ़ता हूँ, तो तो मुझे तीन तरह से आनंद मिलते है | क्षणिक आनंद, चर्तुर्दिक आनंद एवं गौण आनंद | पहले में कहानी कला के सभी तत्व विद्यमान होते हैं, जिसे पढ़ते समय आत्मानुभूति होती है क्योंकि इसे पूरा पढ़ना एक आकर्षक होता है | ऐसी रचनाएँ बहुत कम देखने-पढ़ने को मिलती है, आज के दौर में तो इसका अकाल है | जब कभे ऐसी रचनाएँ हाथ लग जाती है तो चिंतनशील प्रवृत्तियाँ पुनः नयी ऊर्जा के साथ सक्रिय होकर नए विचारों को जन्म देने पर विवश होती है |
           चतुर्दिक आनंद की प्राप्ति कभी कभार उपन्यासों में मिल जाता है क्योंकि इसे पढते समय हम अपने चारों ओर अपना अस्तित्व खोजते हैं | परन्तु सबसे हैरानी वाली बात यह है कि-वालीवुड फिल्मों की भांति हमारे साहित्य में भी कमोबेश रोज ही उपन्यास निकलते हैं लेकिन चर्चा बहुत कम की होती है | इसका कारण तो शहर-गाँव के साहित्यकारों में बनी विभाजक रेखा पर खड़ा होकर ही खोजा जा सकता है | कुछेक अपवादों को केन्द्र में रखें तो परिधि पर युद्ध और शान्ति के नए हथियार इन्हीं के बीच से निर्मित होता है | आखिर क्या कारण है कि-आज दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता जैसे महानगर हिन्दी साहित्य के केन्द्र में हैं जबकि छोटे-छोटे गाँव हासिये पर नजर आ रहे हैं | जुगाड़ बनाम प्रकाशन का शिकार भी ऐसे ही साहित्यकार हो रहे हैं | कहीं हमने पढ़ा थ कि-आधुनिक साहित्यकारों की फ़ौज का कप्तान राजधानी में रहता है और तथाकथित लिखे जाने और छपे जाने वाले साहित्य की स्याही का पेटेंट भी उन्हीं के नाम है | अतः यह जाहिर सी बात है कि जहाँ स्याही होगी वही मुद्रित माध्यम होगा एवं जहाँ मुद्रित माध्यम होगा वहीं आधुनिकता अहं का गुलाम बनकर शोषण के नए तरीके ईजाद करेगी |
          गौण आनंद की अनुभूति तब होती है जब कहानी या उपन्यास का पहला परिच्छेद ही बोझिल लगने लगे और दूसरे, तीसरे, चौथे तक आते-आते मानसिक नेटवर्क वायरस से ग्रसित होकर अवसादग्रस्त हो जाय | ऐसी परिस्थितियों में यदि पुस्तक का आर्थिक भार स्वयं उठाया गया हो तो ग्लानि भी होती है | सबसे बड़ी बात यही है कि-अक्सर किसी पुस्तक का बाजार भी अर्थशास्त्रीय मांग-पूर्ति के नियमों पर ही निर्मित होता है | अंतर इतना ही है कि-वहाँ के उत्पादों को विज्ञापनों के माध्यम सी ही उपभोक्ताओं को मूर्ख बनाया जाता है जबकि यहाँ बौद्धिक विज्ञापन द्वारा अनुप्राणित आलोचना को मानदंड के रूप में अपनाया जाता है क्योंकि यहाँ विज्ञापन का आर्थिक तरीका कारगर नहीं होता | इस तरह नामी-गिरामी लेखकों के नाम को ही आधार बनाकर समीक्षा गढ़कर सामान्य पाठक को आकर्षित करने का प्रयास किया जाता है | बेचारा यह सामान्य पाठक आगे नाथ न पीछे पगहा वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए इस मकडजाल में फंसकर जन, मन तथा धन को गवांकर अपना सा मुहँ लेकर रह जाता है | इस प्रकार साहित्य में कहानी या उपन्यास(नया) का चुनाव करना एक चुनौती से कम नहीं |
             अक्सर यह देखने में आता है कि-(पुराने को छोड़कर) किसी कहानी संग्रह में १५ या बीस कहानियाँ संकलित रहती हैं लेकिन ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि उसमें सभी स्तरीय या ज्ञानवर्द्धक हो अपितु संपादक मिर्च मशाला के तौर पर अश्लीलत्व दोष से नहीं बच पाता | ऐसे में पाठक को बौद्धिक टानिक की बजाय वासनात्मक अस्त्र की प्राप्ति ही होती है , जिसका दुष्परिणाम भावी पीढ़ी को ही भुगतना पड़ता है | आये दिन देश में लूट, हत्याएँ, बलात्कार और आत्महत्याएँ होती रहती हैं, जिसका वास्तविक आंकड़ा डरावना लगता है | इसके मूल में सर्वाधिक लोग केवल सामाजिकता के नए ढाँचे को दोष देकर पल्ला झाड देते हैं | कुछ सिनेमा को तो कुछ नशाखोरी को दोष देकर शांत हो जाते हैं | परन्तु मैं तो जोर देकर कहने का साहस करता हूँ तो हमें साहित्य का गिरता स्तर भी कम जिम्मेदार नहीं ठहरता है | अतः हमारी सबसे पहली और अंतिम प्राथमिकता यही होनी चाहिए-कि आधुकिनता-उत्तरआधुनिकता और भूमंडलीकरण से आप्लावित  विश्वग्राम को लोकग्राम की नजर से देखकर ही साहित्य की रचना किया जाय, वह उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो या नाटक| तभी साहित्य का सहचर सम्बन्ध निर्धारित होगा एवं अध्येताओं को इसका लाभ मिल पायेगा |
(यह मेरे स्वयं के विचार हैं, यदि इससे किसी को ठेस पहुँचती हो तो क्षमा सहित-डा.मंजीत सिंह) 

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