एकान्तवासी
द्वार से दूर
हटके बैठा वह
है मुसाफिर ।
ताड़ रहा है
दुनिया के लोगों के
असाध्य रोग ।
सुबह-सबेरे की
धूप काट खाने को
लालायित है।
रोज होता है
जीव अशांत मन
चंचल तन ।
आज विदाई
बेला शुभ संकेत
लेकर आई ।
हार्न बजाते
ड्राईवर संग ही
उड़ता मन ।
उड़ेल देना
चाहता तन गेह
स्नेह-प्रेम ।
बाल-सुलभ
बूढ़ा बरगद बन
कर यौवन ।।
( हाईकू लिखने की धृष्टता)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें