मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

श्रीमती जी कहिन् .........

जब कभी जुड़ता हूँ
फेसबुकिए मित्रों से
गाहे-बेगाहे कह उठता हूँ-
वाह ! क्या जीवन है-
गाँव में रहकर भी
शहर का अहसास है-
परन्तु इस अनुभूति पर
अक्सर पडता रहता है-
तुषारापात, कुठाराघात "औ" वज्रपात !
जब श्रीमती जी के बोल इसे
देते रहते है-जबान |
वह  जुड़ते ही बोल उठती है-
क्या करते रहते हो दिन-रात
जब देखो तब तुम
चिपके रहते हो ऐसे,
जैसे घर में नहीं अपितु
विचरण कर रहे हो
ऊदकमंडलम की चोटियों पर |
इतना तो याद रखते कम से कम,
शादी तो हुई थी हमारी
बहुत धू+ म+ धा+ म से लेकिन
अब उसे धूमिल क्यों करते हो?
क्या  रखा है ऐसे संसार में  ?
जिसमें हमारे समय का
आहिस्ते से हो रहा संहार है|
बस इतने से संतोष हो जाय
तो ठीक हो.....!
हम तो देखते रहते हैं-
सांझ-सबेरे, अँधेरे औ उजाले में  भी
सोचते-सोचते बेहाल रहते हो |
मैं तो जोर देकर कहूंगी कि-
तुम मान  जाओ नहीं तो
वह दिन दूर नहीं कि
हम स्वयं ही फेंक देंगे एक दिन
इस बांसुरी सरीखे बाजे को |
इतना  सुनकर मैं  तो सशंकित रहता हूँ
समझाने का काफी प्रयास भी करता हूँ|
बड़े प्रेम से कहता रहता हूँ-
सुनो जी ऐसा नहीं है
ज़रा यह तो सोचो
हम तो उसी विश्वग्राम में ही रहते हैं
यह तो इन्टरनेटीया युग का ही तो
धमाल है ! धमाल है ! कमाल है !
यह जाल इतना बारीक है कि
इसमें फँसते चले जाते हैं हम
परिणाम भले न निकले
कार्य-कारण तो जरूर है इसमें
यही वह प्रतिफल है जो
महासागर से भी गहरा है |
सबके बस की बात नहीं
उस मोती को पा ले आसानी से
जब हम जूझते तो कुछ पा ही जाते हैं|
हारे हुए जुआरी की तरह पुनः कहा-
आप तो जानती हैं कि
कुछ के लिए बहुत गवाना जरूरी है |
लेकिन वह तो अड़ी रही
अर्धरात्रि तक यही उलाहने देती रही
ठीक है आप लगे रहो-
जब आप अपनी वाली ही करेंगे
मैं भी वही करूँगी जो आपको गवांरा नहीं|
हारकर मैं बंद कर दिया
कल को चिंतन में कैद जो कर लिया
आगे के सपने को परसों तक,
शब्दों को परसों के लिए कविता
में आने के लिए स्वन्त्र कर दिया||

२४ दिसंबर २०१२

डा. मनजीत सिंह



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