अत्याधुनिक विज्ञान पर हावी प्रकृति
(आदिवासियों में प्रचलित प्राकृतिक चिकित्सा के
संदर्भ में)
आधुनिक युग में लोग
एक तरफ विज्ञान के आविष्कारों के भरोसे न केवल अपनी परंपराओं को भूल रहें है अपितु प्रकृति आधारित रहस्यों से
मुक्त होकर स्वतन्त्र होने की बात करते हैं | शायद यही कारण हैं कि भारत सहित सम्पूर्ण विश्व
में एक नयी बहस शुरू हो चुकी है, जिसे लोग वैश्विक या ग्लोबल का नारा दे रहें हैं|
आज विश्व स्वास्थ्य संगठन सरीखे संस्था भी लोगों को चिकित्सा की नवीन पद्धतियों से
रूबरू करने में कोई कसर नहीं छोड़ती| लेकिन विश्व में ऐसे कई स्थान हैं जहाँ न ही
नवीनता का प्रचार हो पाता है और न ही इससे
वे प्रभावित ही होते हैं विशेषतः आदिवासी बाहुल्य इलाकों में | इसका सबसे बड़ा कारण
तो यही है कि यही ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ आधुनिकता हावी नहीं हो पायी है क्योंकि
यहाँ के लोगों में प्रकृति प्रेम और इसे ईश्वर मानने वाली अवधारणा अभी भी कायम है,
जिसे तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग अंधविश्वास कहकर पल्ला झाड़ लेता है | कभी इसी के
आधार पर उन्हें अन्त्यज, गिरिजन, अनार्य इत्यादि कहकर ताने मारे जाते हैं | इस
सन्दर्भ में हमें यह तो जरूर याद रखना चाहिए कि-अरस्तू ने प्रकृति के माध्यम से
पाश्चात्य दर्शन में ईश्वर के साथ अंतर्संबंधों की जो व्याख्या प्रस्तुत की है,
उसका सबंध वस्तुतः उपर्युक्त कथन से करने पर हासिये के लोगों को मुख्या धारा में
लाने में सहूलियत मिल सकती है |
२१वीं सदी को
विज्ञान का युग माना जाता है, हम सोते-जागते, सोचते-विचारते, आते-जाते, खाते-पीते,
घूमते-फिरते, विज्ञान का ही बखान करते हैं | कभी हम कहते हैं कि-अमुक रोग की दवा
को डब्ल्यू. टी. ओ. में अमेरिका ने अपनी तानाशाही दर्ज करते हुए पेटेंट करा लिया है, दूसरी ओर प्राकृतिक
औषधियों को कोई तरजीह नहीं देते क्योंकि यह सस्ती लोकप्रियता से ओत-प्रोत है | जब
एक आम आदमी इस सोच द्वारा शासित हो रहा है तो आदिवासियों की बाट ही अलग है |
परन्तु छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के कोंडागांव में प्रचलित पत्थर गरम करके किये जाने
वाले स्टीम बाथ की पद्धति विज्ञान पर भारी पड़ा रही है | एक प्रादेशिक समाचार चैनल बंशल द्वारा किये गये प्रसारण के
आधार पर हम कह सकते है कि यह पद्धति वास्तव में कारगर साबित हो रही है | यह एक
मनगढ़ंत कहानी नहीं अपितु एक वास्तविक घटना है | कोंडागाँव की आदिवासियों में
प्रचलित इस “स्टीम बाथ” से निमोनिया, टायफाइड और मलेरिया जैसे रोगों का इलाज किया
जाता है | इसका उदाहरण मोती लाल कोठी(वहाँ के नागरिक) के माध्यम से भी लिया जाता
है | यह बेचारे विगत दो सप्ताह से ज्वर से पीड़ित थे | महंगी अंग्रेजी दवा के सेवन
का सामर्थ्य न होने के कारण एक दिन वहाँ गये और उसी पद्धति पर इलाज कराये और तुरंत
असर दिखाई देने लगा | इस इलाज में सबसे पहले पत्थर के दो-तीन टुकड़े को इकठ्ठा करके
चारों तरफ से आग में गरम किया जाता है| इसके बाद उस पत्थर को बीक में रखकर उसी के
पास रोगी को बैठाया जाता है साथ ही उसे ठंडा पानी दिया जाता है | रोगी सहित पत्थर
के चारो ओर सबसे पहले चटाई से ढाका जाता है उसके ऊपर चादर रखा जाता है ताकि बाहर
और अंदर के तापमान मिश्रित न हो सके | इसके उपरान्त रोगी उस पत्थर पर ठंडा पानी
अपनी आवश्वकतानुसार डालते जाता है, जिससे भाप निकलकर उसके शरीर को तरबतर कर देती
है | यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक वह पसीने से पूरी तरह भीग न जाय |
यह भले ही एक
अजीबोगरीब प्रक्रिया हो लेकिन कोंडागाँव के वर्तमान से.एम्.ओ. डा. आर. एन. सिंह के
अनुसार-यह भाप पद्धति वास्तव में कारगर है क्योंकि भाप एंटीबायोटिक के रूप में
रोगी के शरीर में कार्य करता है, जिसका वैज्ञानिक कारण भी है | इस प्रकार विज्ञान
की दुहाई दें या प्रकृति की या वहाँ के आदिवासियों की, जो इसके माध्यम से अपने
स्वस्थ जीवन व्यतीत कर रहें हैं | हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस वेदों को आधार
बनाकर अपनी संस्कृति को बचाने की बात की जाती है, उसमें भी प्रकृति को अत्यधिक
महत्त्व दिया गया है | वहाँ भी देवताओं का विभाजन इसी प्रकृति के आधार पर किया
जाता है | इस सन्दर्भ में आदिवासियों में प्रचलित प्रकृति पूजा अंधविश्वास के
समकक्ष नहीं टिकता अपितु अंततः उनके माध्यम से जननी जनम भूमिश्च की रक्षा होती है
| इस कारण भारत के प्रत्येक नागरिकों का यह कर्तव्य है कि-उनके विकास के लिए अपना
योगदान दें, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लगभग आधे से ज्यादा प्रदेशों में जम्मू कश्मीर
सरीखे संविधान के माध्यम से इस लोकतान्त्रिक देश का गुजारा हो |
डा. मनजीत सिंह
बिलासपुर
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