शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

समकालीन आलोचना : दशा एवं दिशा

समकालीन आलोचना : दशा एवं दिशा 

समकालीन आलोचना कमोबेश न ही गुण-दोष की परम्परा को पोषित करने में पूर्णतः समर्थ है और न ही कवि-लेखक की अन्तःवृत्तियों को उजागर करके पाठक को स्वस्थ साहित्य की झलक का दिग्दर्शन कराती है अपितु वह स्वार्थवश या मजबूरीवश गुरू-शिष्य के बहाने एक नयी जमात खड़ी करती है | शुक्ल जी ने भी आज से दशकों पहले यह चिंता की थी  और  वह चिंता आज के सन्दर्भ में वाजिब भी है  | बकौल शुक्ल जी-"किसी कवि की आलोचना कोई इसीलिए पढने बैठता है कि उस कवि  के लक्ष्य को, उसके भाव को ठीक-ठीक हृदयंगम करने में सहारा मिले, इसलिए नहीं कि आलोचना की भावभंगी और सजीले पदविन्यास द्वारा अपना मनोरंजन करे |" आज जब हम किसी आलोचनात्मक पुस्तकों को पढ़ते हैं तो सबसे पहले हमारी स्मृतियाँ उन सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों से टकराते हुए साहित्य की नवीन विचारधाराओं को आत्मसात करने के लिए मजबूर करती है लेकिन हम उसे कंठ के नीचे नहीं उतार पाते, हृदय में उतारने की बात तो दूर |
साहित्य सुख-दुःख की नियति का माध्यम है लेकिन वह सुखात्मक या दुखात्मक नजरिया अपनाने के लिए अपनाया जाने वाल हथियार नाकाफी है | कवि-लेखक बनना बाएँ हाथों का खेल है | प्रश्न उठना स्वाभाविक है की-आखिर किसी भी अनजान क्षितिज के सहारे जीवनयापन करने वाले विचारशून्य व्यक्तियों को कवि कौन घोषित करता है ?

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