शुक्रवार, 8 मई 2020

दलित अस्मिता की तलाश

दलित अस्मिता की तलाश


आज भी भारत के गाँव में रहने वाले कुछ लोगों के मन में जातिवाद वाला वायरस विद्यमान है | कल हमने यह महसूस किया | अभी भी ग्रामीण समाज में तीन  तरह के लोग दिख जाते हैं |पहले जातिवाद को जहर की तरह घूँट-घूँट कर पीते रहते हैं | दूसरे इसमें अमृत घोलने का प्रयास करते है लेकिन तीसरा व्यक्ति न ही इसे विष और न ही अमृत मानता है अपितु तटस्थ भाव से मेलजोल बनाए रखते हैं | इसका एहसास मुझे कल हुआ-तिलक, शादी और खान-पान का संयोग तथा एक सज्जन का दोहरा चरित्र ऐसे उजागर हुआ , जिसका वर्णन लाजमी नहीं | उनका कहना था कि-(का कही अब त देहतियो में इ चमरा सब शहर बना देले बाड़े स, का जमाना आई गईल अब त कहीं खाए जाईल मुश्किल हो गईल बा, अब देख एक ही कुर्सी पर उहो खात  रहल हा अऊर ओही पर हमनी के बईठे के पडल हा, हमर त मन रहे कि उठी के चली जाई} अब तो देहात और शहर में कोई अंतर ही नहीं | क्या जमान आ गया एक ही साथ सब लोग खाना खा रहें हैं | ऐसी संकीर्ण मानसिकता उस व्यक्ति के मन में आयी थी, जिसके घर में खाने को लाले पड़े हैं | इस सन्दर्भ में दलित साहित्य के विस्तार की आवश्यकता है क्योंकि शहर में लिखना और शहर में उस लेखन को भुनाना उचित नहीं | जब तक भारत के हर गाँव से इसे वास्तविक रूप मे नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इस विमर्श का आभासी चेहरा ही दिखाई देगा, जिस पर गुमान भर कर सकते हैं | सामाजिक परिवर्तन के लिए लोगों की भावनाओं में ऐसा संचार अपेक्षित है, जिसकी जरूरत भी है |

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