बुधवार, 15 सितंबर 2021

ऑनलाइन दुश्मनी

 ऑनलाइन दुश्मनी


(सबसे खतरनाक होती है ।)


जैसे-जैसे दुनिया डिजिटल युग को आत्मसात कर रही है वैसे ही मनुष्य के अन्दर शत्रुता के नये-नये अवयव स्वतःस्फूर्त होकर कोलाहल करते रहते है । भारतीय समाज के इस भाग को शायद ही कोई समाजशास्त्री महसूस कर रहा हो क्योंकि सामान्यतः दुश्मनी को अधिकांशतः लोग सीधे खून-खराबे से जोड़ते हैं । उनके मन में एक ऐसा प्रतिबिम्ब बन जाता है, जिसमें केवल हिंसा एवं हिंसक जीव ही दिखायी देते रहते हैं । उनकी सोच का स्तर भी धीरे-धीरे गिरता जाता है । वह अपनी सीमा का अतिक्रमण भी नहीं कर सकते हैं । भले ही वह इसके अनेक रूप उजागर करके स्वयं संतुष्ट हो जाय परन्तु इसका अंत बहुत भयावह होता है । यहाँ तक आते-आते पति-पत्नी, बाप-बेटे, भाई-भाई एवं यहाँ तक मित्र-मित्र भी बहुत दूर जाते रहे और एक स्थिति ऐसी आती है कि सब कुछ होते हुए भी वह कहीं का नहीं महसूस करता । वह कभी इस बावड़ी में तो कभी उस बावड़ी में जाकर प्रायश्चित के लिए अनवरत प्रयास करता है । 


भारतीय समाज में परिवर्तित यह प्रवृत्ति सचमुच बहुत ही खतरनाक होती है । प्रसंगतः अवतार सिंह संधू का स्मरण लाजमी है । जब वह अपनी कविता में खतरनाक होते प्राणी की वर्तमान स्थिति की पड़ताल करते हैं और कहते हैं-


सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

तड़प का न होना

सब कुछ सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है

आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो

आपकी नज़र में रुकी होती है..


यहाँ मुर्दा शांति से भरकर तड़पना और विषपान करके समय की धारा में बहते हुए भी  समय का मोहताज होना ही वर्तमान संदर्भ में उसी सामाजिक यथार्थ का प्रतीक है । यह स्थिति अब इलिट वर्ग से मध्य वर्ग की ओर पाँव पसार रहा । इसका एहसास अब कोई भी राहगीरों के चेहरे की मद्धिम होती आभा को देखकर महसूस कर सकता है ।  यहाँ तक हम चाय की दुकानों से लेकर समारोहों एवं सरकारी कार्यालयों के मनहूस चेहरे को पढ़कर सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं ।


इसके कारणों की समीक्षा करते हैं तो कमोबेश दो ही स्थितियाँ स्पष्तः दिख जाती है । इनमें पहली ईर्ष्या-द्वेष से लिपटी देह तथा दूसरी थोथी स्पर्द्धा से आच्छादित व्यक्तित्व । इनमें साम्य अधिक वैषम्य कम होता है । क्योंकि ये दोनों एक दूसरे से इस कदर जुड़ी होती है कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता है ।


इस प्रकार जब हम आज के परिवेश में दुश्मनी के लहलहाते पौधों को देखते हैं तो वह बिना खाद-पानी के ही बाँस की तरह स्थायी कोपल छोड़कर ही मुक्त होता है । कभी-कभार जब पारिवारिक अकाल पड़ता है तो ये पौधे मुरझाने लगते हैं । ऐसी परिस्थिति में बाहरी शक्तियाँ हावी होने लगती हैं । ये शक्तियाँ उसे संजीवनी भी प्रदान करती हैं । इसके लिए न ही उन्हें हिमालय की यात्रा करनी पड़ती है और न ही किसी राक्षसों का विनाश जरूरी होता है ।


समाज में इनको विभिन्न तरीकों से जीवित रखा जाता रहा है । सबसे पहला स्तर परिवार के रूप में ही सामने आता है । पहले परिवार में दुश्मनी का कारण जमीन-जायदाद होता था । कालांतर में यह सीमित होकर न्यूक्लियर बनाम अन्य संयुक्त वादों में सिमटकर न्यायालय की दहलीज पर जनता को ले जाने के लिए उकसाने लगा । बाद में इसकी विकसित परम्परा कथित उत्तर आधुनिक ढाँचे में सहजतापूर्वक देखी जा सकती है । यह स्वरूप भी अधिक दिन तक टिक नहीं पाया । क्योंकि इनमें जनकपुर बनाम अयोध्या क्षेत्र का सहज ही समावेश हो गया ।


प्रश्न स्वाभाविक है कि प्रत्यक्षदर्शियों की कठोर व्यंजना कब से ऑनलाइन दुश्मनी के रूप में सामने दिखने लगी ?  इसके लिए हमें इतिहास के साथ ही कुछ गल्प एवं थोड़ी मात्रा में संकल्पनाओं को फेंटना जरूरी हो जाता है । इसके आधार पर आभासी दुनिया की दुश्मनी वास्तविक की तरह दिखायी देने लगती है । 


क्रमशः


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