बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

 भारतीय इतिहास एवं संस्कृति का पुनरूत्थान : एक विश्लेषण


(शशि थरूर की पुस्तक 'मैं हिन्दू क्यों हूँ' के संदर्भ में)


इतिहास स्वयं सिद्ध होता है । वह हर काल एवं परिवेश में नवीनता की माँग करता है । यही कारण है कि इतिहास लेखन की परंपरा का पुनर्मूल्यांकन समय के अनुरूप आवश्यक हो जाता है ।  ऐसा ही लेखन मूलतः अंग्रेजी में शशि थरूर ने अपनी पुस्तक "why I am a Hindu" अर्थात "मैं हिन्दू क्यों हूँ" मै किया है । 2018 में प्रकाशित इस बहुचर्चित पुस्तक का हिंदी अनुवाद युगांक धीर ने किया है । यह पुस्तक मूलतः आत्मकथात्मक शैली में विचारों को समाहित करते हुए नवीन परिपाटी पर लिखी गयी है ।




उम्र की इस दहलीज पर किताबों को सुनकर आत्मसात करने का अलग एवं दोहरा सुख है । पहला निःसंदेह भौतिक स्तर पर स्वास्थ्य से संबंधित है तो दूसरा मानसिक स्तर पर समय के सदुपयोग के परिप्रेक्ष्य में सहज ही देखा जा सकता है । इस माध्यम के प्रति आसक्ति के लिए जनपद के बौद्धिक जमात का आभारी हूँ, जिनके उत्साहवर्धन सानिध्य में दो किताबों से दो चार होने को प्रवृत्त किया । इसमें दूसरी रवीश कुमार की इश्क में शहर होना ।


बहरहाल सर्वप्रथम पहली किताब पर चर्चा करना लाजमी है, जिसकी सांस्कृतिक गहराई को दृष्टिगत करते हुए प्रसिद्ध कवि-आलोचक रामजी तिवारी ने इसे संस्कृत के चार अध्याय की परंपरा से जोड़कर देखते हैं । यह बहुत उचित है । क्योंकि यह कई दृष्टियों से विशिष्ट है, जिनका क्रमवार वर्णन निम्नवत है-


लेखक ने हिंदुत्व की अवधारणा के बहाने परत दर परत इतिहास का पुनर्लेखन किया है । वास्तव में इतिहास के अध्येता के लिए सबसे बड़ी शर्त यही है कि वह पूरब एवं पश्चिम में संतुलन स्थापित करते हुए तथ्यों की प्रासंगिकता वर्तमान परिवेश में सिद्ध करे । इस कला में लेखक पूर्णतः खरा उतरते हैं |


लेकिन इस बात को वह बखूबी जानते हैं कि इस 

आत्मकथात्मक शैली में विचारों को रूप प्रदान करने के कई खतरे होते हैं, जिनका उल्लेख प्रसंगवश करना लाजमी है । यथा-


1. इसमें कल्पना की जगह यथार्थ को अवकाश मिलता है । इस कारण चौतरफा हमले की आशंका बनी रहती है ।

2. इनमें तथ्यों को तोड़ना-मडोड़ाना आसान रहता है लेकिन इससे इसकी प्रासंगिकता बोझिल हो जाती है ।

3. पाठक इसे पढ़ने और विमर्श करने से कतराते हैं ।..इत्यादि।


लेकिन शशि थरूर इतिहास के कुशल अध्येता एवं सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत के कुशल उन्नायक कहे जा सकते हैं । क्योंकि उन्होंने इस पुस्तक में उपरिवत वर्णित समस्त खतरों से खेलकर एक ऐसी विचारवान व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, जिससे भारतीय जनमानस को नई ऊर्जा मिलती है । यदि इसे समीक्षा की दृष्टि से परखा जाय तो वे इसे सात अध्यायों एवं उप विभागों में विभाजित करते हुए हिंदुत्व की अवधारणा तथा भारतीय धर्म साधना को सप्रमाण व्यक्त करते हैं । वह कमोबेश हरेक तथ्यों के लिए मजबूत पृष्ठभूमि तैयार करते हैं और नई विचारधारात्मक आधार निर्मित करते हैं । इस समय वह इस बात का ध्यान जरूर रखते हैं कि कोई भी वैश्विक धर्म आहत न होने पाये ।


इस प्रकार यह पुस्तक ऐतिहासिक साक्ष्यों को आधार बनाकर अपनी यात्रा प्रारम्भ करती है तथा वेद, उपनिषद, सूत्र, महाकाव्य से उत्स ग्रहण करके भारतीय संस्कृति की व्याख्या करती है एवं धर्म की पुरातन परंपराओं को वर्तमानकालिक संबंधित घटनाओं से तादात्म्य स्थापित करती है । इसके हरेक नये-पुराने विचार किसी न किसी पौराणिक आख्यान से सिद्ध करने में लेखक सिद्धहस्त है । उदाहरणस्वरूप इसी पुस्तक के अध्याय सात में सत्य की खोज की प्रामाणिकता संबंधी वर्णन दृष्टव्य है । उनका कहना है कि-


एक राज्य में एक राजा की अत्यंत सुंदर कन्या पर एक राजकुमार मोहित हो जाता है । वह हृष्ट-पुष्ट शरीर का स्वामी रहता है । परंतु राजा एक शर्त रखते हैं कि आप सत्य की खोज करो तो विवाह का प्रस्ताव स्वीकार किया जायेगा । इस तरह वह वन-उपवन से पर्वत-पहाड़ पर घूमते-घूमते थक जाता है लेकिन सत्य की खोज में वह असफल ही रहता है । तब अचानक बहुत तेज आंधी तूफान आने लगता है और उसे एक गुफा दिखाई देती है । उस गुफा में वह जाता है तो उसे एक बुढ़िया मिलती है । वह डायन रहती है । उसके चेहरे की झुर्रियां लटक रही होती है । वह उससे बातें करने लगता है और उसे अच्छा लगता है । धीरे-धीरे रात बीतती जाती है । रात भर वह उससे बातें करता है । जब सुबह होती है तो उसे यकीन हो जाता है कि उसने सत्य को जान लिया । जब वह चलने को होता है तो उस बुढ़िया से वह कहता है कि मैं आपके बारे में राजा से क्या कहूँगा ? तब राजा कहता है कि वह कहे कि मैं युवा एवं सुन्दर हूँ । इस तरह के पौराणिक एवं कुछेक काल्पनिक तथा लौकिक आख्यान इतिहास की नई दिशा प्रदान करते हैं । लेखक ने न केवल भारतीय अपितु प्रसंगानुकूल पाश्चात्य विद्वानों के विचारों को भी प्रमाण सहित प्रस्तुत करके एक ऐसा दस्तावेज तैयार करते हैं, जो धरोहर के रूप में हमारे सामने उपस्थित होकर नयी बनकर निश्चित स्वरूप में प्राप्त होती है । 


इस क्रम में उन समस्त घटनाओं को क्रमवार उठाते हैं, जिनसे होकर हिन्दू धर्म गुजरा है । इस समय सबसे दिलचस्प तथ्य उस समय उपस्थित करते हैं जब वे वैदिक काल के साथ आदिवासी समुदाय को अनार्य से जोड़कर समन्वय एवं बहुलतावादी चेष्टा को रूप प्रदान करते हैं । इसे पढ़ते हुए हमें उस आलेख के उप भाग का स्मरण आता है, जिसे मैंने लगभग एक दशक पूर्व लिखा था । वह प्रसिद्ध प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तक का अंश था । उसका शीर्षक था-इण्डो ट्राइबल सभ्यता की रूपरेखा । यदि उस प्रसंग से इसे जोड़कर पढ़ा जाय तो विमर्श में निःसंदेह एक नया अध्याय जुड़ जाता है ।


इस तरह लेखक का सफलतम प्रयोग तब अधिक सिध्द होता है जब वह धार्मिक सहिष्णुता के लिए कभी डेनमार्क में बुत के नीचे हिंदुइज्म का दर्शन कराते हैं तो कभी सिख, ईसाई, इस्लाम सहित समस्त अल्पसंख्यको के धार्मिक अवयवों में हिन्दू धर्म के प्रभाव को आत्मसात करते हैं । वे इतिहास को वर्तमानकालीक वैश्विक परिदृश्य से जोड़ कर पाठकों का न केवल ज्ञान वर्द्धन करते हैं अपितु नयी समझ विकसित करने में भरपूर सहयोग भी करते हैं । प्रसंगतः वे ईसामसीह, मुहम्मद साहब से ज़रथुष्ट्र इत्यादि की चर्चा करते समय कभी पश्चिम के देशों की सैर कराते हैं तो कभी मक्का-मदीना पहुँचकर "इण्डो-इस्लामिक" सभ्यता की नवीनतम व्याख्या प्रस्तुत करते हैं तो तत्क्षण भारत पहुँचकर पौराणिक लघु कथाओं से विचारों की विराटता की पुष्टि करते हैं । यह लेखक की अपनी विद्वता है ।


यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि शंकराचार्य का अद्वैत-वेदांत तथा विवेकानंद के दार्शनिक विचार लेखक को अधिक प्रिय हैं । इसी कारण पुस्तक के पार्श्व भाग में ये दर्शन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । जब कभी उन्हें ऐसा महसूस होता है कि वर्तमानकालीक घटनाएँ कमजोर या विवादित पक्ष को पोषित करती है तो वे उपरिवत दर्शन का प्रत्यक्ष सहारा भी लेते हैं । इसके लिए गांधी, टैगोर,  नेहरू से लेकर गोवलकर-सावरकर के साथ प दीन दयाल उपाध्याय ही नहीं बल्कि प्रसंगवश मोदी-योगी तक का वर्णन धड़ल्ले से करते हैं । परंतु वह हमेशा एक सचेत इतिहासकार की भाँति सावधान की मुद्रा में दिखाई देते हैं । उदाहरणस्वरूप जब वे प दीन दयाल उपाध्याय की चर्चा करते समय उनके संविधान के प्रति नजरिए को स्प्ष्ट करते हैं तो तुरंत उनके एकात्म मानववाद एवं समावेशी स्वरूप से पाठक को रूबरू कराते हैं ताकि सामान्य से सामान्य पाठक के मन में एकरसता न पनप सके ।


इस प्रकार लेखक शशि थरूर ने हिन्दूवाद को सभी मान्यताओं में वैध, परिवर्तनशील एवं लचीला माना है, जो लगभग चार हजार वर्षों से कायम है । यही कारण है कि-तमाम अवरोधों के बीच यह सार्वभौमिक तथा प्रासंगिक है । इतना ही नहीं वे बहुलतावादी दृष्टिकोण मो स्पष्ट करने के लिए प्रकृति एवं पर्यावरण का भी वर्णन करते हैं । इस तरह वह कर्ण सिंह द्वारा प्रदत्त हिंदू धर्म के पाँच अवदानों का वर्णन करके उद्देश्य को सिद्ध करते हैं । इसे हम वसुधैव कुटुम्बकम, समरसता, ईश्वरीय सत्ता का वास, पूजा पाठ में समनव्यव एवं खगोलशास्त्रीय दृष्टि से परख सकते हैं । प्रसंगतः वह हमेशा आगाह करते हैं कि-मेरे संस्कार विरासत में मिले थे । अंततः वह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि-हिन्दूवाद धर्मांतरण में विश्वास नहीं करता । अतः इसका पुनरुत्थान जरूरी है और वह वृहदारण्यक उपनिषद के कथन को उद्घृत करते हुए असतो मा सदगमय...से,समापन करते हैं ।


वस्तुतः लेखक के विचारों में हकलाहट का न आना शुभ संकेत हैं लेकिन जब वह विचारों के बहाने सांकेतिक या प्रत्यक्ष चरित्रों की तुलना करते हैं तो कुछेक स्थलों पर दुहराव के दोषों से वंचित नहीं रह पाते । दूसरी तरह धार्मिक सहिष्णुता के समय कभी-कभी एकपक्षीय होते प्रतीत होते हैं तो स्वार्थपरता झलकने लगती है । परंतु भाषा एवं सृजन के स्तर पर वे बेजोड़ हैं । यही उनकी वास्तविक पूँजी है, जिसके अनुरूप वे न्याय करने में सक्षम हुए हैं ।


नोट-ये मेरे व्यक्तिगत विचार है ।


क्रमशः

©डॉ. मनजीत सिंह

23/02/2022



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...