सोमवार, 14 फ़रवरी 2022

प्रेम न बाड़ी ऊपजै : रहस्य एवं यथार्थ

प्रेम को लेकर भारतीय समाज आज भी स्वतंत्र नहीं । आज भी समाज के अधिकांश लोगों के मन में इसे लेकर निम्न उद्धरण सहज ही उत्पन्न हो जाते हैं-यथा-"प्रेम विवाद की जड़ है ।"--"प्रेम घर तोड़ने की माया से अभिशप्त है ।"--"प्रेम समाज को गर्त में ले जाता है ।"-- "प्रेम से शिक्षा अधोगति को प्राप्त होती है ।"-----इत्यादि । ऐसे लोग संकुचित मानसिकता की उपज होते हैं । ये प्रेम के सार्वभौमिक स्वरूप की न तो कल्पना ही कर सकते हैं और न ही इसके प्रत्यक्ष प्रभाव को महसूस कर सकते हैं । वास्तव में प्रेम की चर्चा दो रूपों में की जा सकती है । पहला-भौतिक तथा दूसरा आध्यात्मिक ।

प्रेम शाश्वत है । जैसे प्रकाश की यात्रा के लिए किसी न किसी माध्यम की आवश्यकता होती है ठीक वैसे ही यह नायक-नायिका, राधा-कृष्ण, सीता-राम के साथ ही सामान्य जनजीवन में भी मजबूत कड़ी के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करते हुए हरेक देश-काल-परिवेश में प्रासंगिक है ।  कुल मिलाकर यह सर्वव्यापी होता है । कभी यह सर्वेश्वर के यहाँ भक्ति के रूप में विद्यमान होता है तो कभी सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर नये-नये मानदण्डों को स्थापित करते हुए समरस वातावरण कायम रखने में महती भूमिका निभाता है ।

इस प्रकार जब हम इसे पारिवारिक स्तर पर आत्मसात करते हैं तो निःसंदेह सामाजिक विकास की अनवरत धारा प्रवाहित होती है, जिसमें समस्त जन अपना जीवन सहजतापूर्वक व्यतीत करते हैं । यह कभी रंगहीन तो कभी चटक प्रकाश से स्वयं ऊर्जा प्राप्त करता है तो कभी उज्ज्वल से पीत और श्याम वर्ण के द्वारा अपनी आभा से लोगों को दीप्त करता है ।

यही कारण है कि अधिकांश चिंतकों ने इसके रहस्यवादी स्वरूप को कलात्मक सौन्दर्य के परिप्रेक्ष्य में वर्णित किया है । दरअसल यह ऐसा रहस्य है, जिसे आम आदमी वासनाजन्य अनुभूतियों के माध्यम से उसके प्रत्यक्ष स्वरूप को धूमिल करने का प्रयास भी करते हैं । लेकिन जैसे धूल-धूसरित देह कभी आत्मिक स्तर पर गंदी नहीं होती वैसे ही प्रेम निर्मल होता है । इसे बाहरी आवरण प्रभावित नहीं कर सकते हैं ।

सैद्धांतिक स्तर पर हम प्रेम की अवधारणा के निमित्त हम पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण के अनुरूप इसके स्वरूप का निर्धारण करते हैं । यह स्वरूप एक निश्चित वातावरण एवं परिवेश के अनुसार अपना रूप ग्रहण करता है तथा अपने प्रभाव से जन-जन में एक नयी चेतना को संचरित करता है । इसके साथ ही इस तथ्य से भी नकारा नहीं जा सकता कि-प्रेम एक साधना है, जिसकी नियताप्ति सुख और आनन्द में है । दूसरे शब्दों में सुखकर जीवन आनन्द के अधीन होता है । कुछ लोग इसे सुख-आनन्द-प्रेम की क्रमागत धारा के रूप में ग्रहण करते है। तात्पर्य है कि-यदि जीवन सुखी होगा तो आनन्द का आगमन स्वतः होगा, जिसका फलागम प्रेम के रूप में होना निश्चित है ।

दूसरी धारा प्रेम के द्वारा आनन्द की प्राप्ति पर जोर देता है । इनका मानना है कि-हम प्रेम के द्वारा जीवन को सहज बनाकर आनंद आनन्द के नजदीक पहुँचने की शक्ति अर्जित करेंगे और ऐसा जीवन सी सुखकर होगा । परन्तु जमीनी स्तर पर वर्तमान संस्कृति पहले को अधिक तरजीह दे रही है । दूसरी धारा वाले लोगों की वास्तविक पहचान लगभग नामुमकिन है । क्योंकि भारत में अधिकांश लोगों के स्वभाव को बदलना सूरज को दीप दिखाने से भी कठिन है ।

आज प्रेम दिवस है । कुछेक विद्वत जन इसका पुरजोर विरोध करते हैं । उनका रूढ़िवादी मत वर्तमान सामाजिक खाँचे में फिट नहीं बैठता । यदि कभी-कभार लोग इसमें पेंच कसने की भूल करते हैं तो चूड़ी टूटना लाजमी है । सबसे बड़ी बात है कि ऐसे कथित जन का दोमुँहा चेहरा समयानुसार अवश्य दिख जाता है । यदि हम इसके वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात करें तो तमाम अंतर्विरोध स्वतः समाप्त हो जाते हैं । भारतीय संदर्भ में इसे समाज एवं परिवार के सम्पूर्ण घटकों एवं अवयवों के निमित्त प्रेम की अनिवार्यता से हम मुँह नहीं मोड़ सकते हैं ।

वस्तुतः प्रेम तो अपने दुश्मनों को भी भावनाओं में बाँधकर रूमानियत के नए रस में सराबोर करता है । कभी-कभार विरोधी प्रकृति के लोग पश्चिम के बहाने चिल्लपों मचाते हैं परन्तु अधिकांश का असली रूप बहुत जल्द ही दिख जाता है ।

आज इस अघोषित देशी बनाम घोषित प्रेम दिवस के अवसर पर बेलेन्टाइन बाबा को अनेक बधाईयाँ । क्योंकि इन्होंने हमें हर साल नये उत्साह से लबालब रस भरने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं । भारत जैसे विकासशील देश में ऐसे त्याहारों की जरूरत है, जिसमे परिवार को  मजबूत आधार मिलता है । इनकी अनुपस्थिति में आये दिन सामाजिक आतंकवाद की ध्वनियाँ प्रतिध्वनित होती है ।

अतः इस आतंक से मुक्ति का एक ही सहारा है-प्रेम, जिसके बिना इस देह की कल्पना व्यर्थ है । इस रूह की कल्पना व्यर्थ है । परिवार-समाज-संस्कृति को भी एक संस्कृत प्रेम की जरूरत है, जिससे जन-जन को शक्ति मिले । अपार शक्ति । अन्याय से विरूद्ध लड़ने की शक्ति ।

अंततः यही कामना है कि-बेलेंटाईन बाबा का प्रभाव हम दोनों के जीवन में भी बना रहे ।

हम साथ साथ

पुराने शब्दों का संस्कार पुनः एक बार

©डॉ. मनजीत सिंह

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