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शुक्रवार, 12 जून 2020

अंतहीन यात्रा

अंतहीन यात्रा : नेता, जनता और क्रेता


नेता-राजनीति का अभिन्न अंग होता है । वह लोकतंत्र की मजबूत कड़ी होता है । लेकिन भारतीय संविधान ऐसे नेताओं को राजनीति का योद्धा नहीं स्वीकार करता, जो न ही लपक सकता है और न ही झपक सकता है अपितु वह उसे अधिक तरजीह देता है, जो जनता को बदल सकता है ।

परन्तु कुछेक कथित नेता गण (जो कमोबेश चापलूसों के सरदार ही होते हैं ) स्वयं को संविधान के संरक्षक तथा प्रबंधक मान बैठने की भूल कर बैठते हैं । उनके ऊपर ब्रह्मराक्षस (मुक्तिबोध की कविता) का प्रभाव हावी हो जाता है । वह स्वयं को जनता का भगवान घोषित कर देते हैं । यह स्थिति गाँव से लेकर संस्थाओं और देश के बड़े-मझले-छोटके-भटके सभी नेताओं पर अक्षरशः लागू होती है ।

वर्तमान समय में देश का अबोध बालक भी लोकजनमानस का हिमायती समझता है । वह समय से बहुत आगे की हस्ती होते हैं ।  यदि आप उसे उथला ज्ञान देने का प्रयास करेंगे तो वह ऐसी शिक्षा देगा कि आप स्वयं को अधूरा महसूस करने लगेंगे । ऐसी मनोदशा सर्वत्र हावी रहती है । इसमें संदेह नहीं कि यदि इस अबोध बालक में इतनी ऊर्जा है तो शिक्षा देने वाले शिक्षकों की क्या स्थिति होगी । यह सोचनीय है ।

प्रसंगतः उपर्युक्त खाँचे में किसी संस्था के नेताओं को फिट करने का प्रयास करना न केवल हास्यास्प्रद है अपितु वह चम्मचों की कतार में खड़ा होने से भी बदतर है । चूँकि इस धरती का हरेक  प्राणी स्वयं को ईमानदार की श्रेणी में शुमार करता है । इस कारण वह समझता है कि हमारे कार्यों के पीछे छिपे कारणों की जानकारी किसी और को नहीं । परन्तु वह असहाय अवस्था में जाकर खुद अकेलापन झेलने को अभिशप्त होता है ।

भारतीय शिक्षा व्यवस्था के वर्तमान स्वरूप में सेंध लगाये तथाकथित नेताओं की चपलता पर मन खिन्न नहीं होता अपितु ग्लानिग्रस्त हो जाता है । इन नेताओं का विभाजन भी लोग अलग-अलग तरीके से कर लेते हैं । इस कारण हमने भी एक प्रयास किया है, जिसका ढाँचा संविधान से इतर है-कुल मिलाकर सहूलियत के लिए इन्हें निम्न तरीके से विभाजित कर सकते हैं -आप इसे केवल व्यंग्यात्मक लहजे में स्वीकार करें -इसे वास्तविक मानने की भूल करना बेमानी है-

पहला-विषय विशेषज्ञ राजनेता-इनका रूप उत्तरोत्तर परिवर्तित होता रहता है । इस प्रकार के नेता गण स्वयं को ज्ञानरूपी सागर के रूप में अभिसिंचित करते हुए समस्त नदियों का मिलन स्थल अपने मस्तिष्क को ही मानने की भूल करते हैं । लेकिन इनकी सबसे बड़ी कमी यही होती है कि ये दिन प्रतिदिन अपने विषय से इतर होकर अन्य विषयों में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास करने लगते हैं । शनैः शनैः जिस विषय के बल पर उन्हें नेता से राजनेता की पदवी हासिल हुई होती है, उसका असर कमतर होते होते एक दूसरे को जोड़ने वाले तार टूट जाते हैं । ऐसी परिस्थिति में वह कहीं नहीं ठहरते । अंततः इनका अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है । कभी-कभी इसका सकारात्मक परिणाम भी दिखाई देता है क्योंकि कुछेक राजनेता एक अलग लकीर खींचकर अलग तरह के टूटे-फूटे राजमार्ग पर चलने लगते हैं लेकिन इनका अंत भी हमें विचलित कर जाता है । क्योंकि एक ऐसा आचार आधार बनता, जिनका सम्बन्ध कहीं न कहीं धन से होता है ।

दूसरे नेता हैं-प्रशासनिक दक्ष राजनेता-वर्तमान समय में ऐसे व्यक्ति जिनके अंदर जन्मजात हिटलरशाही-प्रवृत्ति नहीं होती अपितु वह कहीं न कहीं ठोकर खाकर गिरने की बजाय संभलते हुए प्रशासन की ए बी सी से वाकिफ़ होकर ज़ेड श्रेणी के शहंशाह बन बैठते हैं । जिनकी सबसे बड़ी विशेषता है-ओछी नैतिकता के सहारे नीत्से बनने की भूल कर बैठना । इसी के आधार पर वह खुद को अतिमानव की श्रेणी में मानकर शासन करते चलते हैं । आप सोच सकते हैं-यदि कोई व्यक्ति खुद में ईश्वर को आरोपित करने में सिद्धहस्त होगा तो भक्ति का चरम पद उसे ही प्राप्त होगा । इसके परम पद के प्रतिभागी भक्त कौन हो सकते हैं ? यह स्वयं-सिद्ध है । यह तो उनके सकारात्मक पहलू है । आईए कुछ नकारात्मक पहलू पर भी चर्चा कर लेते हैं । इनके अंदर सबसे निषेधात्मक पहलू हैं-इनका मुखौटा । यह मुखौटा अस्थायी होता है । क्योंकि परिवार में वह उन्हें ही कोने से चिढ़ाने लगता है क्योंकि उनकी विरासत एक ऐसे परजीवी के हाथ में जाती रही है, जिसका भान उन्हें अंतिम चरण में होता है ।

नेता जी की तीसरी श्रेणी है-सामाजिक-धार्मिक राजनेता । यह रूप अभी बहुत चलन में है । ऐसे नेता खुद को समाज की छोटी इकाई तक सीमित मानते हैं । ये चरणबद्ध तरीके से परिवार-पड़ोस-गाँव-चट्टी-तहसील से लेकर जिले में अपनी पहचान बनाने का अगणित प्रयास करते हैं और सफल नहीं होते हैं । जैसे एक भूखा शेर लोमड़ी को पकड़ने में असफल होता है तो उसकी स्थिति देखने लायक होती है । ठीक यही स्थिति उस कथित नेता की होती है । वह तो त्रिशंकु भी नहीं बन पाते । और अपनी असफलता का ठीकरा समाज के उन लोगों पर फोड़ते हैं, जिनका उनके जीवन से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा है। दूसरे शब्दों में वह सहज ही चौर्य-वृत्ति का सरदार बन बैठते हैं । यह कब और किस रूप में होता है । इसकी जानकारी उन्हें बहुत बाद में होती है ।  यही उनका सकारात्मक पहलू है । नकारात्मक पक्ष को दूसरे चरण से जोड़कर सहज ही निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है ।

©डॉ.मनजीत सिंह

#अंतहीन यात्रा अगली कड़ी में

रविवार, 29 दिसंबर 2019

आह से निकला गान !

आह से निकला गान !


बेटी की तेज धड़कन
सुनने के बाद भावविभोर होकर
मन के सागर में गोता लगाता
हैरान-परेशान ग़मों को पीकर
चल निकला ईश्वर के घर-द्वार |

दिल की गहराई को
बार-बार  मापने के बाद  ही
आह निकली ! पीड़ा के बरक्स
आवाज को सुनने वाले बहुत हैं ।

लेकिन

आँगन के दायरे के भीतर से
असह्य वेदना के इस  मर्म को
समझने-समझने वाला शायद कोई
जीवन की अक्षुण्ण बहती नदी के
निर्मल जल  की शोभा बढ़ाने में
सहयोग की गुंजाईश से आगे आये |

बीते पल की नुमाइश करके
बह चली एक धारा इस धरा पर
दुःख की छाया अब मद्धिम हो
अधखिले सूरजमुखी संग होकर
यौवन के संगम पर बालू की रेत में
बुढ़ापा का एहसाह तरबतर होकर
एक नयी परिभाषा गढ़ता-जाता ।।

क्रमशः

©डॉ. मनजीत सिंह

बुधवार, 5 जून 2019

काली अंधेरी रात

काली अंधेरी रात


काली अंधेरी रात
प्रकृति के आईने में
आम का पेड़
मौन होकर
याद दिलाता रहता
बार-बार
उस सामाजिक परिवर्तन को
जो हो रहा है
हर पल, क्षण-क्षण
एहसास कराता मैदान में
रेगिस्तान सरीखे
कैक्टस का...
काँटे चूभते रहने पर भी
अनजान दुनिया बेखबर
राग अलापती..अपना

......5-6 जून19.......

पर्यावरण 2

5 जून विशेष-पर्यावरण दिवस

आग लगी है जंगल में
दावानल..बडवानल...हावी हैं ...!
जठराग्नि को अपने आगोश में लेकर
आमदा है मिटाने को
यहाँ न कोई बामन
राजपूत, बनिया ..शूद्र
धुँआ देख काँपता हैं देह
नर्तक बन दौड़ते हैं बचाने
भूल जाते हैं जातीय संघर्ष |

प्रकृति की लीला देख
कभी मन बैचैन  होता
जाने-अनजाने तड़प उठता
धरती के भीतर हलुवा(मैग्मा) खाने को
दोड़ता..खींचता...चला जाता
सीता माता की याद दिलाता
हिलती-डोलती धरा के गर्भ में
लपट बनकर बुझ जाता ||

ग्लोबल-ग्लोबल-ग्लोबल
वार्मिंग-वार्मिंग-वार्मिंग
विश्व-भारत-वारत की गरिमा
हिमालय के दिल को टुकडा करते
एक्सप्रेस-वे का सपना दिखाते
भावी गाड़ियों को तीव्र गति से दौडाते
धुल-धूसरित होते पहाड़
आज नहीं तो कल
कल नहीं तो परसों
परसों नहीं लेकिन बरसों
डूबते थल को बचाने के प्रयास
पोल्डरिंग से भी विफल होने में
देर नहीं लगती ....!!
(हालेंड में समुद्र के किनारे मिट्टी भरकर जमीन तैयार करने को पोल्डरिंग कहा जाता है )

५ जून १३

पर्यावरण

पर्यावरण 


गोधूलि बेला में
दरख्त की रूदन
हरे-हरे पत्तों पर
कृत्रिम आँसूओं की धारा
धरती की बनावटी गर्मी को
अनकहे बयाँ करती है..... !

आम, नीम, पीपल,बबूल,ताड़
साल,सागौन,चीड़ औ देवदार
एक साथ वही रोना रोते....?

नदी-घाटी, पहाड़-पठार
अपने ओछेपन से तंग होकर
काल की ग्रास बनती बसुंधरा पर
मुसकाते और चिढ़ाते हुए
आह्वान करते.........!!!

सीमित होकर भी छेड़ो-काटो
फल का स्वाद भी चखा करो..?

डॉ. मनजीत सिंह
5जून2013

मंगलवार, 28 मई 2019

अपनी बात

अपनी बात :: गाँव के साथ


हम लोगों के लिए गाँव-शहर की विभाजक रेखा क्षीण है । यही कारण है कि हमउम्र-हमजोली-यारी एवं मद्धिम लोग भी कभी-कभी वाक्  युद्ध को मजबूर भी करते हैं ।परन्तु हम तो ठहरे शुद्ध गवईं। हो सकता है यहाँ की आबोहवा कुछेक तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों को सुगम न लगे क्योंकि वह तुलनात्मक सामाजिक विकास के नकली उद्धारक बनकर नवयुग की नयी विचारधारा हमारे ऊपर थोपते हैं । ये मजबूर करते है लेकिन महसूस नहीं करते ।
परिणामस्वरूप वर्तमान समय "मिलावट युग"  के रूप में अभिहित किया जा सकता है । हरेक वर्ग-वस्त्र-मिट्टी से लेकर आचार-विचार-व्यवहार-देह-मन-महल-बाग-बगीचा और पर्वत-पठार-वन-प्रान्तर जैसे कृत्रिम और प्राकृतिक स्वरूपों में मिलावट ही मिलावट दिखाई देता है । हमारे सम्बन्ध मिलावटी है। हमारे भाव मिलावटी है । प्रभाव मिलावटी है । स्वभाव मिलावटी है । कुल मिलाकर यह मिश्रण नीर-क्षीर विवेकी को भी संशय में डाल देता है ।
उपर्युक्त मिश्रण को सामाजिक स्तर पर हम हरेक परिवार में देख सकते हैं । जैसे हरेक सब्जी, हरेक मिठाई सहित छप्पन भोग की शुद्धता संदेहास्पद है वैसे ही भारत के परिवारों के वर्तमान स्वरूप को आत्मसात किया जा सकता है । एक तरफ शहर का आदमी गाँव के लोगों को कमोबेश मन से तो अछूत ही मानता है परन्तु दूसरी तरफ तंग जीवन व्यतीत करने को मजबूर है । जमीनी हकीकत से दूर दो×दो या तीन×दो के वर्गाकार-आयताकार आधे ईंट की दीवार में भास्कर-प्रभाव सहने को अभिशप्त है । यहाँ न कोई संस्कार है । न नूतन विचार है । न व्यवहार है । न संस्कृति है । एकल परिवार के इन दुष्परिणामो को सहजतापूर्वक गगनचुम्बी इमारतों में बिना ताकझाँक किये भी देखा जा सकता है ।
यही कारण है कि-हमें गाँव पसन्द है लेकिन यहाँ के लोगों में बढ़ते कुसंस्कार घृणा भी पैदा करते हैं । 

बुधवार, 24 अप्रैल 2013

अनछुए पल

 अनछुए पल

 
आज का दिन हमारे लिए शुभ रहा | आज मूर्धन्य साहित्यकार डा. सुधाकर अदीब जी ने अपना दो उपन्यास "अथ मूषक उवाच" एवं "चींटे के पर " डाक द्वारा भेंट किया | यह हमारे जीवन का ऐसा अनमोल क्षण रहा, जिसे आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ | सर ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की बात भी पत्र के माध्यम से की | प्रथम दृष्टया डा. सत्य प्रकाश मिश्र की नजर से जब मैंने इसे देखा तो एक बात विशेष लगी -जैसा कि मिश्रा सर हम लोगों को समकालीन साहित्य पढ़ाते समय अक्सर कहा करते थे कि-जब भी कोई किताब पढ़ना और सोचना शुरू करो तो उसकी शुरूआत आवरण पृष्ठ से ही होनी चाहोए | इस तरह "अथ मूषक उवाच" का आवरण पृष्ठ एक कोलाज की तरह सम्पूर्ण ब्राम्हांड को समाहित किया हुआ है, जिसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि अद्वैत से जुड़ती हुई प्रतीत होती है | क्योंकि इसमें परमात्मा-आत्मा (लेखक-आम आदमी) के अंतर्संबंधों को आधुनिक स्वरूप देने का प्रयास किया गया है | लेकिन जब लेखक आम आदमी के रूप में उपस्थित होकर वैचारिक धरातल निर्मित करता है तो व्यक्ति मन के अन्तर्विरोधो का शमन स्वतः कर देता है |
लेकिन उपन्यास को पूरा पढ़ने के बाद कुछ लिखना उचित है | बहरहाल पत्र सहित सर की दोनों किताबे साझा कर रहा हूँ......
उचित है | बहरहाल पत्र सहित सर की दोनों किताबे साझा कर रहा हूँ......

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