अनछुए पल
आज
का दिन हमारे लिए शुभ रहा | आज मूर्धन्य साहित्यकार डा. सुधाकर अदीब जी ने
अपना दो उपन्यास "अथ मूषक उवाच" एवं "चींटे के पर " डाक द्वारा भेंट किया |
यह हमारे जीवन का ऐसा अनमोल क्षण रहा, जिसे आप लोगों के समक्ष प्रस्तुत
करना चाहता हूँ | सर ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करने की बात भी पत्र
के माध्यम से की | प्रथम दृष्टया डा. सत्य प्रकाश मिश्र की नजर से जब मैंने
इसे देखा तो एक बात विशेष लगी -जैसा कि मिश्रा सर हम लोगों को समकालीन
साहित्य पढ़ाते समय अक्सर कहा करते थे कि-जब भी कोई किताब पढ़ना और सोचना
शुरू करो तो उसकी शुरूआत आवरण पृष्ठ से ही होनी चाहोए | इस तरह "अथ मूषक
उवाच" का आवरण पृष्ठ एक कोलाज की तरह सम्पूर्ण ब्राम्हांड को समाहित किया
हुआ है, जिसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि अद्वैत से जुड़ती हुई प्रतीत होती है |
क्योंकि इसमें परमात्मा-आत्मा (लेखक-आम आदमी) के अंतर्संबंधों को आधुनिक
स्वरूप देने का प्रयास किया गया है | लेकिन जब लेखक आम आदमी के रूप में
उपस्थित होकर वैचारिक धरातल निर्मित करता है तो व्यक्ति मन के अन्तर्विरोधो
का शमन स्वतः कर देता है |
लेकिन उपन्यास को पूरा पढ़ने के बाद कुछ लिखना उचित है | बहरहाल पत्र सहित सर की दोनों किताबे साझा कर रहा हूँ......
लेकिन उपन्यास को पूरा पढ़ने के बाद कुछ लिखना उचित है | बहरहाल पत्र सहित सर की दोनों किताबे साझा कर रहा हूँ......
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