रविवार, 16 सितंबर 2012

आधुनिक शिक्षा, राजनैतिक दबाव और भावी पीढ़ी की चुनौतियों को लेकर आज विश्व स्तर पर शोध जारी है लेकिन इसका वास्तविक टकराहट और इससे निकलती उर्जा से हम विगत कुछेक दिनों से संशय में हूँ कि-क्या मुझे व्यस्था को और दबाव को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना चाहिए? या हमें भावी पीढ़ी के भविष्य की सुरक्षा के प्रति अपनी लड़ाई को जारी रखना चाहिए? मैं तो यही मानता हूँ कि शिक्षा जैसे पवित्र मंदिर राजनीति या राजनेताओं का प्रवेश निषेध होना चाहिए और इसमें ऐसा दीप जालना चाहिए, जिससे भावी पीढ़ी का अंधकार मिट सके| १४-१५ सितम्बर २०१२ की घटना हमारे जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सहायक हो सकती है क्योंकि मैं ये नहीं सोचता हूँ कि अमुक राजनेता शक्तिशाली है या अमुक चमचा हमें अपने पथ से पीछे हटा सकता है| इसका पूरा विवरण अभी देना उचित नहीं समझता हूँ क्योंकि आज इसमें अंतिम अध्याय जुड़ने वाला है| बहरहाल राजनेता के दबाव और शिक्षा के इस मंदिर पर एक छोटी सी कविता का रूप दिया है-

शिक्षा के मंदिर में
राजनीति हो ग

या पुजारी
वह बड़े ही हौले से
आम जनता से कहने लगा,
हम तो लोकतंत्र के रक्षक हैं
क्योंकि
रक्षा करते हैं हम पीड़ित जन की
पूजा करते है गरीबों की
हवन करते हैं, अपनी आत्मा में
पीड़ा, दुःख औ कष्ट!
परन्तु
आम जन बड़ा ही विद्रोही था
उसका स्वर बड़ा ही स्नेही था
वह तपाक से बेबाक बोला-
बेचारे पुजारी
आप राजनेता हैं या जुआरी
हमें दाव पर लगाकर
मिटा ली अपनी खुमारी,
इतना तक तो ठीक था
आप तो इतने महान हैं कि
हमारी माँ(धरती ) को भी नहीं छोड़ा?
लज्जा आती है हमें
ऐसे लोकरक्षक पर
फिर भी मजबूर है हम
तभी नम होती है मेरी आँखे
यह कहते हुए गर्व करता हूँ
अपनी गरीबी पर,
(पुनश्च वह कहा)
आप तो बड़े साहब निकले
हमारी गरीबी और लाचारी का
मजाक उड़ाते चले,
हमारे नाम का वोट कमाते चले
अंत में तो आपने हद कर दी
आप आपही स्वार्थ के लिए
अर्थ के साथ ही समाज को भी
भ्रष्ट बनाते चले|
१५ सितम्बर २०१२

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विशिष्ट पोस्ट

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण

बीस साल की सेवा और सामाजिक-शैक्षणिक सरोकार : एक विश्लेषण बेहतरीन पल : चिंतन, चुनौतियाँ, लक्ष्य एवं समाधान  (सरकारी सेवा के बीस साल) मनुष्य अ...