सोमवार, 24 दिसंबर 2012

सबेरे सबेरे

जब कभी नींद खुल जाती है
सबेरे सबेरे
याद आने लगती है गीली जमीन-
जो ओस की बूंदों से तरबतर होकर
छोटे-बड़े पैरों को आश्रय देती रहती|
यही दूरी मिटाती है-गाँव का शहर से
शहर का मोहल्ले से, मोहल्ले का गली से
और इतना ही नहीं
विश्व विजयी बनकर जब वह घर आते
चाय की चुस्की में भूल जाते कि
हम वही है जो सुबह की सैर में
हरियाली का नजारा लेकर आये है|
दूसरी तरफ जब हम जाड़े की
सुबह में दुबके चेहरों को निहारते
धूप की किरणें लेने को बेताब
सुर्ख हुआ जाता|
सबेरे सबेरे आँगन को बहार रही
चमकते चेहरे को घूँघट में छिपाए
बहूरानी का उत्साह देखते ही बनता|
अब तो बस उसे काम ही काम दिखता
बीमार बुढिया की खाँसी से तंग सुबह में भी
वह चौका बर्तन करती
कभी इधर देखती कभी उधर
कहीं दूसरी बहू जीत न जाए
यह स्पर्धा भाव ही
सबेरे सबेरे बरबस
कहने को बेचैन करता-
भई वाह! बहू हो तो ऐसी |
यही एक शब्द सुबह से
शाम तक उसकी कानों में
गूंजकर लड़ने की शक्ति
प्रदान करता .....!
वह लड़ती तो नहीं लेकिन
आत्मग्लानि को कमतर करके
जीवन की नैया पार जरूर करती|

२४ दिसंबर २०१२

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