रविवार, 23 दिसंबर 2012

आलोचना

साहित्य  के बदलते रूप

आजकल साहित्य का नजारा थोडा बदल गया है | इस सम्बन्ध में आज की दो घटनाएं महत्वपूर्ण है, जो हमसे जुडी है| पहले घटना में हमारे मित्रगण हमसे रोज ही पूछते हैं कि-अरे भाई मनजीत इस समय तुम बड़ा शांत-शांत रहते हो| आखिर क्या कारण है ? हमने तो अपनी तरफ से उत्तर दे दिया है कि-सर अभी हमारा सीजन चल रहा है, इस समय की शान्ति साल भर के लिए मुनाफा दे जाती है|(यह मुनाफा साहित्यिक है) दूसरी घटना तुलसी तिवारी जी(१९५४ में जन्मी) से जुडी है| वह आज हमसे दूसरी बार मिली, अपनी किताबों (कहानी संग्रह, उपन्यास एओया कविता संग्रह के साथ) के साथ आज पुनः आयी| पुस्तकें तो हमारे यहाँ खरीद ली गयीं लेकिन उनका कहना था कि- सर आप मेरी दो किताबों की समीक्षा लिखें| हमने किताब तो ले ली, जो अनुभव प्रकाशन गाजियावाद से छपी है| मुझे सुखद आश्चर्य हुआ परन्तु हमने यह तो जरूर पूछा कि आप कहें तो यहाँ की पत्रिकाओं में मैं समीक्षा लिखकर भेज दूं| उनका कहना था कि आप उसे कहीं बाहर भेज दीजिए| क्या आज के युग में दबंग किस्म का लेखक होना ही जरूरी है? क्योंकि उसे प्रचार भी करना है और प्रकाशक से दंबंगई भी दिखानी है| अन्यथा मंटो की तरह भटकते रहना है........

हाल-फिलहाल मंटो जी को पढ़ने में आनंद आ रहा है| अभी तक उनकी जो कहानियाँ पढ़ पाया हूँ उसमें एक बात है, जिससे उनकी प्रासंगिता ही सिद्ध होती है| एक बात हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि - उन पर जिन पाँच कहानियों (काली सलवार, बू,ठंडा गोस्त, धुँआ, ऊपर-नीचे, दरमियान ) में आये कटु यथार्थ को अश्लीलता की हद मानकर जिस तरह से मुक़दमा चला, वह आज के सन्दर्भ में उचित नहीं| यदि आज की कहानियों (चर्चित कहानीकारों का नाम लेना उचित नहीं समझता) से जोडकर देंखे तो आज कई नामी-गिरामी कहानीकारों को जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए| जबकि ऐसा नहीं हो रहा है| आज तो नाम और पैसा कमाने की होड में अश्लील सामग्री परोसने में तथाकथित बड़े माने जाने वाले लोग पीछे नहीं| इस तरह क्या मंटो का उद्देश्य न तो पैसा कमाना रहा और न ही नाम कमाना परन्तु फिर भी उन्हें एक बदनाम लेखक क्यों माना जाता है ? कम से कम इस बदनामी को मिटाने में सरकारी महकमें को पहल करनी चाहिए| यदि उनकी मृत्यु (१८ जनवरी १९५५) के लगभग सैतालीस सालों के बाद भी बदनामी न मिटे तो साहित्य के मर्मज्ञों पर इससे बड़ा प्रहार क्या हो सकता है ? यहाँ तक विनोद भट्ट जी ने तो अपनी पुस्तक का शीर्षक ही रखा था-मंटो : एक बदनाम लेखक| इतने बड़े लेखक के प्रति कुछ लिखने का साहस जुटाने की धृष्टता करता हूँ तो यही बात मेरे जेहन में आती है कि- इसे तो मंटों की बदनामी का खुला व्यापार ही कहा जा सकता है| पुस्तक पुरानी है लेखक भी पुराने हैं| हम तो यही कहेंगे कि यदि इस पुस्तक को यह शीर्षक दिया जाता-मंटो : एक क्रांतिकारी लेखक, तो शायद उनके प्रति सच्ची श्रंद्धाजलि होती| आप इस सन्दर्भ में क्या सोचते है?......

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