शनिवार, 13 अप्रैल 2013

ट्रेन में वसूली


व्यंग्य

ट्रेन में वसूली

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भारतीय रेल और उसके उधार्कों का क्या कहना, दोनों एकमेक होकर आम-खास जनता को स्वर्ग तक का सफर बड़े सलीके से कराते हैं | अभी कितने दिन हुए रेल बजट पास हुए ? मंत्री महोदय ने इतना दंभ संसद में भरा था-अगले वित्त वर्ष में रेल यात्री सुरक्षित यात्रा करेंगे| हरेक देशवासियों को ट्रेन में हरेक सुविधाएं प्रदान की जायेगी | तभी तो किराया बढ़ाया गया | शायद मंत्री महोदय यह कहना भूल गए कि- टी.टी. ई. की वसूली दुगुनी करने के लिए भरसक प्रयास किये जायेंगे | यही तो दोहरा व्यवहार मंत्रियों को शोभा नहीं देता | अरे भाई ! जब आम जनता के किराए से इतनी सुविधाएं देने में कोई कसार नहीं छोड़ रहें हैं तो रेल कर्मचारियों के साथ दोयम व्यवहार शोभा नहीं देता | जो भी हो | इधर-उधर करके हमारे टी.टी. ई. अपनी आमदनी को बढ़ाकर सुविधाओ को देने में कोई कसर नहीं छोड़ते | अब क्या बताएँ हाल ही की बात है | टी.टी. ई. टिकट चेक करते-करते अचानक एक ऐसे डिब्बे में पहुंच गया, जहाँ नियमित कर्मचारी यात्रा कर रहे थे | अब डेली पैसेंजर एम्.एस.टी. जेब में लिए, मुहँ में पान दबाये, आपस में आफिस में बीते अच्छे अनुभवों को साझा कर ही रहे थे कि टी.टी. ई. साहब आकर विग्न दाल दिए | यह तो वैसे ही है-जैसे शादी की सारी तैयारी हो चुकी हो और बीच में प्रेमी आकार बाधा पहुंचा दे |
      टी.टी. ई. का पहनावा ही बेटिकट के लिए भयावह होता है | काला कोट, लाल टाई, काली पैंट के साथ ही हाथ में कार्बन सहित रसीद देखकर उन यात्रियों में हडकंप मच गया, जो वैध यात्रियों की सीट को बपौती मानकर सरकार की खिल्लियां उड़ा रहे थे | सबसे बड़ी बात तो यही है कि ऐसे यात्री ट्रेन खडी होने के बाद एक चक्कर उसके सर से पूँछ तक चक्कर लगाते है और देखते हैं कि किस शयनयान डिब्बे (वातानुकूलित डिब्बे में तो उच्च स्तर के सरकारी लोग ही रहते हैं, वहाँ तो ऊंचे किस्म के ही लोग चक्कर लगायेगे ) में लड़कियाँ बैठी हैं और कौन सुन्दर हैं | स्थान का चुनाव, बैठने-उठने, रहने-पहनने का चुनाव तो ये भी अपना मूल अधिकार मानते हैं | इसी अधिकार के तहत ये बैठते हैं, वह भी हक के साथ | यदि उस लड़की का अभिभावक, माता-पिता, भाई, पति, पुत्र उन्हें मन करते हैं तो संविधान का हवाला देकर कहते है-ई ट्रेन सरकार के ह, तोहार बपौती नईखे ( यह ट्रेन सरकार की है तुम्हारे बाप के नहीं हैं | खैर बेचारे वैध यात्री अपनी ही सीट के एक कोने में ऐसे सुबक कर बैठ गया जैसे जनरल डिब्बे का यात्री | बेचारा मन मसोसकर रह गया | अपनी मान-पत्नी-बेटी-बहू-भाभी-साली-सलहज से अंदर ही अंदर यही कह रहा था-कैसे-कैसे लोग है ? सीट हमारी और बैठा कोई और ? किस अधिकार से बैठे हैं जैसे यह सीट नहीं उनके घर का बेड हो ?
      बेटिकट की महिमा कम नहीं होती | सीट मिलने के बाद इनकी चर्च तो ऐसी होती जैसे कि ये ही बिल गेट्स और सायरस मिस्त्री के उत्तारधिकारी हो |
एक ने अकडकर कहा-
जानते हो हमारे घर में बावन बीघा में पुदीना की खेती होती है | दूसरा इसके क्यों अपनी बेईज्ज्ज्ती कराता |
तपाक से बोला-बस इतना ही हमारे यहाँ तो एक सौ चार बीघा पार्टी रहता है | वहाँ सालों भर गाँव की गायें चरती हैं | कभी भी हमारे पिताजी बाहर नहीं गए परन्तु घर में सब कुछ अपने आप आ जाता है | पैदायशी रईस मालोम होता है | तीसरा मन ही मन सोचने लगा | क्या बोलूँ कि इन दोनों से एक बीघा आगे हो जाऊँ | लेकिन वह बोलता इसके पहले ही चौथा-शुरू कर दिया कहना | मजाक के मूड में भी लग रहा था | सामने वाली सीट पर लड़की हो तो वही मजाक सुजाक बन जाता है | यही सोचकर उसने डोरे डालने शुरू कर दिए | इतने में ट्रेन दो स्टेशन पार भी कर चुकी थी | अक्सर देखा जाता है कि-आधुनिक प्रेम के मार्ग में बाधाओं को तोड़ने के लिए जो हथकंडे इन लोगों के द्वारा अपनाएं जाते हैं, उनमे पहल यही हैं-ये अंगूठा पकड़कर ही पहुंचा तक पहुँच जाते है | अतः वह आशिक बनकर परिचय बढ़ाना शुरू किया | आप कहाँ तक जायेंगे | पूछ तो रहा था आदमी से लेकिन नजरें उस लड़की परा टिकी रही | वह बेचारी शर्म से सिर नहीं उठायी लेकिन मन ही मन खुश होकर यही सोच रही थी कि-कितने मूर्ख है या लोग , जैसे जानते ही नहीं कि-हाथी की दन्त खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और होते हैं | जो भी हो वह व्यवहार बनाने में सफल भी होने लगा | मन में गुदगुदी बढ़ने लगी | ख्याली पुलाव भी पकाने लगा | काश ! मैं उससे बात करता ! काश ! वह हमारी अर्धांगनी बन जाती | काश ऐसा होता कि-उनके पिताजी कहते कि-बेटे तुम बहुत  अच्छे हो | तुम्हारे व्यवहार से मैं प्रभावित होकर अपनी बेटी का हाथ तुम्हारे हाथों में देने के लिए तैयार हूँ | यही सोचते सोचते ट्रेन ने जोर की सीटी मारी और तीसरा स्टेशन भी पार हो गया, अब तो अगला स्टेशन आने ही वाला था-बनारस | वहाँ उतर जाऊँगा तो बात कैसे बनेगी | इतने में टी.टी. ई. को देखकर सन्न रह गया | टिकट-टिकट .............!
कहाँ जाना हैं ?
साहब हमें बनारस जाना है |
चलो टिकट दिखाओ | बड़े शान से दो दिन पुराना | वर्दी के रंग का टिकट, जिसके दिनांक को बड़े ही सलीके से मिटाया गया था –दिखाया |
टी.टी. ई. भले ही सूट-बूट में रहें | सरकारी नौकर तो होते ही हैं | वह तुरंत ही पहचान लिया | इतने में उसके मित्रगण, बावन बीघा और एक सौ चार बीघा वाले खिसकने लगे | ऐसा लगा जैसे कुरूक्षेत्र के मैदान में कौरवों की सेना पराजित होती देखकर कई वीर योद्धा अपने-अपने को छिपाने लगे | उन्हें तो पता होना चाहिए कि-युद्ध के मैदान में वीर पुरूष की नजर हर जगह रहती है | कारगिल में भी तो पाकिस्तानी सैनिक नजर बचाकर वार करते हैं लेकिन भारती सेना कम होशियार नहीं | उन्होंने तो प्राण कर लिया है कि जब तक सिर नहीं दे देंगे | तक तक पीछे नहीं हटेंगे | वैसे ही मित्र लोग सोच लिए थे कि-जब तक यात्रा पूरी नहीं कर लेते तब तक बाहर जनरल में नहीं जायेंगे | भले ही बाथ्रूप में ही क्यों नहीं शरण लेनी पड़े | बाथरूम उनके लिए एक ऐसा बनकर होता है, जिसमें छिपकर भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना पर हमला करती है | लेकिन सफल नहीं हो पाती | अब टी.टी. ई. समझ गया था कि बकरा मिल गया है | बस इसे हलाल भर करना है | आखित बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी आज नहीं तो कल काटना ही है | कई दिन से बचकर काटने के लिए तैयार वह बेटिकट यात्री बड़े ही गर्व के साथ बैठा उस लड़की को निहारे जा रहा था, जैसे उसने जंग ही जीत ली हो | 
क्रमशः 

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