बाबा साहब अम्बेडकर जन्मदिन विशेष-१४ अप्रैल २०१३
दलित साहित्य के सूर्य- बाबा साहब अम्बेडकर
बाबा साहब भीमराव आंबेडकर दलित साहित्य के
सूर्य थे | उनकी प्रखर प्रतिभा का आकलन इसी बात से लगाया
जा सकता है कि उन्होंने दलित साहित्य में आत्मसम्मान और आत्म गौरव का भाव जगाया |
हरिनारायण
ठाकुर ने 'दलित साहित्य का समाजशास्त्र' ( पृष्ठ १७५ )
में "दलित आंदोलन पर विस्तृत काम
करने वाले इ. जिलियट के लेख 'गौरव का लोकगीत : समकालीन दलित विश्वास
के तीन घटक' का उल्लेख करते हैं, जिसकी शुरूआत
अंबेडकर की मराठी कविता से हुआ है | इसके साथ ही वे उसका हिन्दी अनुवाद भी
किये-यथा-
हिन्दुओ को
चाहिए थे वेद,
इसलीए
उन्होंने व्यास को बुलाया, जो सवर्ण नहीं थे |
हिन्दुओ को
चाहिए थे महाकाव्य ,
इसलिए
उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया, जो खुद अछूत थे |
हिन्दुओ को
चाहिए था एक संविधान ,
इसलिए
उन्होंने मुझे (अम्बेडकर) को बुलाया |
इस प्रकार अम्बेडकर ने महसूस किया उस पीड़ा को
जो दाग दिया सच(रमणिका गुप्ता) में महावीर और मालती ने झेला था, जीवन
साथी (प्रेम कपाडिया) बनकर रेखा ने झेले, चंदर ने अपनी अस्मिता को लहूलुहान
(बुद्धशरण हंश ) करके वैश्यालय में माँ का दर्शन किया था और उस वैश्य में ही
दुर्गा एवं सहक्ति का सानिध्य पाया | इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश वाल्मीकि का तो
यहाँ तक कहना है कि, " डा. अम्बेडकर ने गाँव को भारतीय
गणतंत्र की अवधारणा का शत्रु माना | उनके अनुसार-हिंदुओं की ब्राम्हणवादी
और पूंजी वादी व्यस्था का जन्म भारतीय गाँव में होता है |(दलित साहित्य का
सौंदर्य शास्त्र-ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ-३१) कुल मिलाकर अदम गोंडवी ने जिस ताप को निम्न गजल
में महसूस किया, कमोबेश अम्बेडकर ने भी महसूस किया-
आइए, महसूस
करिये जिंदगी के ताप को |
मैं चमारों की
गली तक ले चलूँगा आपको |
जिस गली में
भुखमरी की यातना से ऊबकर |
मर गयी फुलिया
बिचारी कल कुएँ में डूबकर |
है सधी सिर पर
बिनौले-कंडियों की टोकरी |
आ रही है सामने
से हरखुआ की छोकरी |
चल रही है छंद
के आयाम को देती दिशा |
मैं इसे कहता
हूँ सरयू पार के मोनालिसा |
कैसी ये भयभीत
है हिरनी -सी घबराई हुई |
लग रही जैसे कली
बेला के कुम्हलाई हुई |
कल को ये वाचाल
थी पर आज कैसी मौन है |
जानते हो इसकी
खामोशी का कारण कौन है |
थे यही सावन के
दिन हरखू गया था हाट को |
सो रही बूढ़ी
ओसारे में बिछाए खाट को |
डूबते सूरज की
किरने खेल रही थी रेट से |
घास का गठ्ठर
लिए ये आ रही थी खेत से |
आ रही थी वो चली
खोयी हुई जज्बात में |
क्या पता उसको
कोई भेदिया है घात में |
होनी से अनभिज्ञ
कृष्ना बेखबर राहों में थी |
मोड़ पर घूमी तो
देखा अजनबी बाँहों में थी |
चीख निकली भी तो
होठों में ही घुटकर रह गयी |
छटपटायी पहले,
फिर
ढीली पडी, फिर ढह गयी |
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और
अंत में कहते हैं-
मैं निमंत्रण दे
रहा हूँ आयें मेरे गाँव में |
तट पे नदियों के
घनी अमराईयों की छावं में |
गाँव जिसमें आज
पांचाली उघारी जा रही |
या अहिंसा की
जहाँ पर नथ उतारी जा रही |
हैं तरसते कितने
ही मंगल लँगोटी के लिए |
बेचती है जिस्म
कितनी कृष्ना रोटी के लिए |
अदम साहब ने जिन-जिन पात्रों को अपने गाँव में
चमारों की गली (पृष्ठ-८४) तक ले जाने की बात करते हुए हरखू, मंगल, फुलिया,कृष्ना
जैसे पात्रों को व्यक्त किया हैं ठीक वैसी पात्र अम्बेडकर को महाराष्ट्र में मिले,
कर्णाटक
सहित दक्षिण में मिले और उन्होंने ऐसे पात्रों को बहुजन हिताय दृष्टिकोण से
सामाजिक स्वतंत्रता का ऐसा स्वाद चखाया, जिसके बल पर आज उनका साहित्य समकालीन
साहित्य में मील के पत्थर की तरह स्थापित होकर विकास के पथ पर अग्रसर कराने को
तत्पर है | इस सन्दर्भ में मैं अपने गाँव के तथाकथित हरिजन
कहे जाने वाले कुनबे की ओर अपनी विहंगम दृष्टि डालता हूँ तो ऐसा दृश्य उपस्थित
होता है , जिन्हें दलित कहने में मुझे शर्म महसूस होता है |(क्योंकि
हरी नारायण ठाकुर जी ने भी कुछ इस तरह से माना है कि-समाज का वह प्रत्येक व्यक्ति
दलित है, वह चाहे किसी भी जाति, वर्ग या समुदाय का हो, भूख
की पीड़ा से त्रस्त हो ) अतः हमारा गाँव इस मायने में बहुत आगे है | गाँव
की शुरूआत ही इनकी बस्ती से होती थी | लेकिन एक अनजान व्यक्ति आज जब गाँव में
प्रवेश करता है तो वह भ्रम में पद जाता है कि ये माकन किन रईसों के हैं | उनके
घरों में शायद ही कोई घर होगा जहाँ कोई सरकारी सेवा में न हो | दो-चार
घर अभी भी तंग हैं जैसे-अमरीका, पतरू, भरत आदि लेकिन
इनकी भी स्थिति इतनी पतली नहीं कि वे दो जून का के भोजन को मोहताज हों | कहने
का अर्थ है कि-अब स्थिति परिवर्तित हो चुकी है |
डा0. नमजीत सिंह
१४ अप्रैल २०१३
सार्थक सर्जन की बधाई और शुभकामनायें
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