मंगलवार, 24 मार्च 2020

राष्ट्रहित सर्वोपरि

#जनहित_में_जारी 


भारत के लोग प्रेमभाव में अधिक विश्वास रखते हैं । उनका मानना है कि-प्रेम आपसी सद्भाव एवं भाईचारे का परिणाम होता है, जिसकी प्राप्ति सामुदायिक प्रयासों के फलस्वरूप होती है । जब तक समुदाय द्वारा यह सर्व स्वीकृत नहीं हो जाता तब तक इसका कोई औचित्य नहीं है । इसी आधार पर यहाँ की संस्कृति पाश्चात्य देशों से बिल्कुल भिन्न है। शायद यही कारण है कि लोग एक दूसरे का अभिवादन भी बहुत करीब से स्वीकार करते हैं । अन्यथा अधिकांश लोग या तो दुःखी हो जाते हैं या 'अहं' की चोट से चोटिल होकर बदले की भावना से ग्रसित हो जाते हैं । इसका परिणाम कभी-कभी सुखद हो सकता है । परंतु अधिकांश समय दुःख से ही संतोष करना पड़ता है ।

इस क्रम में कुछ लोगों को व्यंजना के तराजू में वजन करने का साहस जुटाता हूँ तो निःसंदेह कुछेक सभ्य मनुष्य स्तरीय सभ्य होते हैं । उनके स्वभाव से ही सभ्यता टपकती रहती है । इसे हम इस रूप में भी देख सकते हैं । जैसे-पान खाकर सड़क पर जहाँ मन करे गन्दा(थूकना) करना, बिना पान खाये गन्दा (थूकना), मामूली बातों के बीच में थूकना । ये क्रियाकलाप अधिकांशतः जानबूझकर ही होते है । आप भी कल्पना नहीं कर सकते । एक सामान्य व्यक्ति अपने घरों में केवल स्वयं के पैरों तले असंख्य जीवाणु-विषाणु मुफ्त में लाते हैं। इसका गंभीर परिणाम भले ही बाद में दिखाई देता हो लेकिन सामान्यतः प्रारम्भिक परिणाम तो मानसिक स्तर पर दिख ही जाता है ।

प्रसंगतः उत्तर-दक्षिण की विभाजक रेखा भी  खींच सकते हैं । क्योंकि यह स्थिति उत्तर भारत में भयावह परिणाम के लिए पूर्णरूपेण उत्तरदायी है । जब हम उत्तर भारत के किसी शहर की यथास्थिति की ओर विहंगम नजर डालते हैं तो उपर्युक्त कथन स्वतः सिद्ध हो जाता है । दक्षिण की स्थिति थोड़ी सहज हो सकती है । इससे हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि-आज दक्षिण से उत्तर की ओर लोगों का पलायन (केवल महाराष्ट्र का ही उदाहरण लें) भयावह होकर ग्लानिग्रस्त कर सकता है। इसमें यदि दो-चार महानगरों से घरों की ओर पलायन को जोड़ लें तब स्थिति स्वतः गंभीर हो जाती है ।

आज कोरोना (किरौना) सम्पूर्ण विश्व को अपने आगोश  में लेने को लालायित है । यहाँ तक हालिया जैविक युद्ध से भी जटिल इस वायरस की गति उल्टी है। भले ही इसे कुछ लोग मानवजीत चीन या अमेरिका या अन्य विकसित देशों की ऊपज मान रहे हैं । लेकिन इसकी तोड़ स्वयं जन जन के हाथ में है । यदि हम जागरूक नहीं होंगे तो तमाम सरकारी-गैर सरकारी या अर्द्ध सरकारी प्रयास पूर्णतः विफल होंगे । हमें प्रण लेना है कि राहगीरों से लेकर खोमचों वालों तक, सायकिल वालों से लेकर मोटरकारों तक, गली-मोहल्लों से लेकर चौपाटी तक के लोगों को जागरूक करना है और देश को सुरक्षित करना है ।

वर्तमान समय में अफवाहों के बाजारों का सूचकांक बहुत ऊपर है । हमें तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि- जितनी तीव्र गति से शेयर बाजार में गिरावट दर्ज की गयी है । उससे अधिक तीव्र गति से अफवाह बढ़े हैं । इनमें सबसे बड़ी भूमिका नियोजित सोशल मीडिया के अग्रेषित संदेशों की है । ऐसे संदेशों की प्रामाणिकता शुरू से ही संदेह के घेरे में रही है क्योंकि इसे लिखने वाले लापता रहते हैं । दूसरी बात संदेह के लिए काफी है-तीव्र गति से प्रचार । इतनी तेजी से यह फैलता है कि इसकी कल्पना से रूह काँप जाता है । लोग इन संदेशों पर अंधविश्वासों से भी जल्दी विश्वास लोग विश्वास करते है ।
इस परिप्रेक्ष्य में अफवाहों पर अमल कैसे न किया जाय ? यह प्रश्न तमाम अंतर्विरोध एक साथ उपस्थित करता है । इनमें मीडिया की छौंक की छींक को कैसे भूला जा सकता है ।

मीडिया के पेड चैनलों की वर्तमान स्थिति पर कभी कभी रोना आता है । क्योंकि इनके कथित दक्ष पत्रकार तोते की तरह नहीं रट लगाते अपितु ....जोर-जोर से खलनायकी लहजे में आवाज निकालकर जनता को अभिमुख करने का निरर्थक प्रयास करते हैं । लेकिन कहते हैं । डूबते को तिनके का सहारा मिलता है और जनता मीडिया के इन टी आर पी लहजों को सच मानकर स्वयं असुरक्षित महसूस करने लगती है । दूसरे शब्दों में असुरक्षा की यह भावना अफवाहों का पर्याय भी है ।

अतः इस महामारी में हम सुरक्षित तभी तक हैं जब तक दूर हैं। इस परिप्रेक्ष्य में हमें तमाम औपचारिकताओं को पीछे छोड़ना है और खुलकर देश को बचाना है । अतः दूर रहें और दूर रखें ।

हमें अपने लहू की रगों में यह संवेदना प्रवाहित करनी है-
1. अफवाह से बचना स्वयं का कर्तव्य है ।
2.स्वयं की सुरक्षा के लिए अनवरत प्रयास ।

©डॉ. मनजीत सिंह

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