बुधवार, 25 मार्च 2020

ग्रामीण संस्कृति एवं एकांतवास

#जनहित_में_जारी


एकांतवास और गवईं रंग


कल शाम को अचानक सायकिल से दूध देकर लौटते माता प्रसाद जी से गुफ्तगू करने का मन किया । परिसर के मुख्य द्वार पर हमने उनसे कुछ प्रश्न पूछ लिया-जो इस प्रकार है-कोरोना को लेकर जोरई (गाँव) में लोगों के मन में कैसे भाव उमड़ रहे हैं ? क्या गाँव में लोग सतर्क हैं ? और क्या हाल-फ़िलहाल गाँव में बाहर से कोई आया है ?
उन्होंने इन तीनों प्रश्नों का जवाब इतने सहज लहजे में दिया जैसे यह आपदा उन लोगों के लिए हैं ही नहीं । बकौल उन्हीं के शब्द कि-"साहेब ! ई सब बड़े-बड़े शहर में होत हैं । गाँव में ई कहाँ पहुँचत हैं । काल्हू दुई जने बम्बई से आयेन रहें । पुलिस भी आई अउर उन लोगन के जाँच के लिए लेई गई । फिर छोड़ी दी ।" आप स्वतः कल्पना कर सकते हैं कि भारत की आत्मा जिन गाँवों में निवास करती हैं । उन गाँवों के निवासियों की उदासीनता इस कदर है ।

इसके दो कारण है । पहला शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य । शिक्षा को शामिल करने का बड़ा कारण है कि गाँव के लोगों की नयी पीढ़ी शिक्षित होकर भी जागरूक हैं लेकिन पुरानी पीढ़ी अभी भी कमोबेश उपर्युक्त दंश झेलने को अभिशप्त हैं । अक्सर यह देखा जाता है कि चैत्र का महीना किसानों के लिए स्वर्णिम अवसर लेकर आता है । हर किसान अपने साल भर की कमाई को घर में लाने को उद्दत रहता है । किसान रोज शाम को खेत के मेड़ पर खड़ा होकर गेहूँ-चना-मसूर के पके दानों को निहारता है और मन ही मन पकवान बनाकर कल्पना लोक में विचरण करता है । इस दौरान उसे शिक्षित बेरोजगार कहलाना बिलकुल पसंद नहीं होता । वह इस बेरोजगारी से मुक्त हो जाना चाहता है । ऐसे में वैश्विक आपदा भी उसे छलावा लगे तो अनुचित नहीं । आज ही अचानक फोन करने पर पता चला कि गाँव के नामी खेतिहर किसान मसूर काटकर घर लाये हैं । उनके लिए आपदा कोरोना से अधिक खेतों से अनाज का न आना हो सकता है ।

शिक्षा और स्वास्थ्य एक दूसरे के पूरक है । एक के बिना दूसरे का कोई औचित्य नहीं । इसका उदाहरण गाँवों में अक्सर दिखाई देता है । अमूमन साधारण सर्दी-जुकाम तथा हल्के बुखार में तो भभूत ही पर्याप्त होता है । वहाँ यदि डॉ. प्रशांत की पुनः स्थानांतरण हो जाय तो भी अन्धविश्वास हावी रहता है । आश्चर्य तब अधिक होता है जब झोला उठाये डागडर बाबू भी भभूत का पुड़िया लेकर घर पहुँच जाते हैं । हाल ही में हमारे आवासीय विद्यालय में एक ऐसे ही मंजर देखने को मिला, जिसकी प्रसंगतः चर्चा भर करना पर्याप्त है । अभिभावक अपने बच्चों के प्रति इतने उदासीन हो सकते हैं, इसकी कल्पना से ही रूह काँप जाय । परन्तु एक भयानक रोग से मुक्त होने के लिए अंततः अन्धविश्वास का सहारा लिया गया । इस प्रकार हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि कुछेक घरों को छोड़कर अधिकांश लोगों की मनोवृत्ति माता प्रसाद वाली है । आज इनके जैसे लाखों-करोड़ों लोग ऐसी भावनाओं के साथ वैश्विक आपदा से निपटने में कितने जागरूक हैं ।

सबसे बड़ी बाधा स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव । यदि अनुमान लगाना हो तो हम इसके आधार पर कह सकते हैं कि-भारत के लगभग तीन चौथाई जिलों में सरकारी वेंटिलेटर और गहन चिकित्सा कक्ष की स्थिति या तो दयनीय है । या है ही नहीं । सरकार के प्रयास काबिलेतारीफ है । इसमें मानव संसाधन मंत्रालय तथा नवोदय विद्यालय के अधिकारियों ने सराहनीय कदम उठाया है । इसके लिए साधुवाद । परन्तु स्थिति जितनी गम्भीर है उसके अनुरूप व्यवस्था की कल्पना का केवल अनुमान लगा सकते हैं । क्योंकि औसत स्वास्थ्य व्यवस्था में भारत 112वें पायदान पर है ।

वैश्विक आपदा को जमीनी स्तर पर पड़ताल करते हैं तो गम्भीरता स्वतः सिद्ध हो जाती है । कल शाम की घटनाएँ-एक 8 बजे के पूर्व और एक 8 बजे के बाद-उपर्युक्त कथन को अक्षरशः साक्ष्य स्वरूप वर्णित है । कल शाम मैं बाजार गया । मंडी में बहुत भीड़ थी । भीड़ कम अपितु मेला लगा था । हमने दूर से ही देखा तो फिल्म की तरह रील तैयार होने लगे। और उसके प्रतिबिम्ब में वह भयावह नजारा दिखने लगा, जिसमें वैश्विक महा मारी फैलने, लोगों के ग्लानिग्रस्त चेहरे, तंग होती गलियों की तस्वीर चलने लगी । आखिर इतनी भीड़ में कोई व्यक्ति आलू के लिए, कोई प्याज के लिए, कोई गोभी-मिर्चा-सूरन-धनिया के बदले इतनी बड़ी गलती कैसे कर सकता है ? लेकिन लोग मजबूरीवश यह करने को अभिशप्त थे । गनीमत थोड़ी तब महसूस हुई जब चालीस रुपए प्रति किलो आलू बेचने वालों को पुलिस पकड़कर ले गयी । तब जाकर थोड़ी राहत मिली लेकिन सब्जियों के राजा बाजार से कब गायब हो गये इसका अनुमान नहीं हो पाया। कहीं-कहीं तो कीमत आसमानी उछाले लेने लगा । यह स्थिति इक्कीस दिन के एकान्तवासी घोषणा के बाद आयी । लोग बेतहासा सायकिल, मोटरसाइकिल और गाड़ियों से दुकानों की ओर भागने लगे । लगभग दस बजे तक किराना स्टोर के मालिक हाथ जोड़कर लोगों की पर्ची लेकर लौटाने लगे ।

इस बीच गाँव-शहर के बीच भेदक रेखा खींचना अब कठिन नहीं है । क्योंकि अब कमोबेश गाँव में लोग स्वयं को बहुत सुरक्षित समझ रहे हैं । बहरहाल बहुत हद तक अभी भी गाँव महफूज है लेकिन इसे महफूज रखने में सरकार की कोशिश बहुत काम की हो सकती है । यदि अब ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सेवा जाँच केंद्र और बाहर से आये मुसाफिरों की पहचान पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं किया गया तो अगले महीने की रामनवमी बहुत नीरस हो जायेगी । इसके लिए हर गाँव के लोगों को भी जागरूक होकर गाँव में आये लोगों की सूचना आपातकालीन नम्बरों के द्वारा देना अनिवार्य है । केवल सूचना नहीं अपितु उस व्यक्ति का किस-किस से संपर्क हुआ, किसके घर गया, किस-किस रिस्तेदारी में गया । अतः इसमें घर-परिवार-नातेदार-रिश्तेदार से लेकर ओहदेदार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है ।

यथार्थ आईना में तब दिखेगा जब गाँव के लिए उपर्युक्त जकड़न से निकलेंगे । गाँव घर के लोगों में जागरूकता फैलाने में उस आगामी पीढ़ी की बड़ी भूमिका बन जाती है, जो न केवल अपने घर को अपितु आस-पड़ोस और गाँव को जागरूक करे । यह जगरूकता हमें और अपने देश को बचाने में महती भूमिका निभाएगी । अतः आप घर में रहें और देश को वैश्विक आपदा से मुक्त कराने में अपनी महती भूमिका निभाये । यही राष्ट्र के प्रति सच्चा समर्पण है । हम यह कतई न सोचें कि-मैं तो गाँव में हूँ । खेत में काम करके रोग प्रतिरोधक क्षमता को बचाये रखेंगे । यह निरा भ्रम है । आप सुरक्षित रहें । आपकी सुरक्षा एकांतवास में है ।

©डॉ. मनजीत सिंह

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