तस्वीर में तकदीर
मुड़ता हूँ पीछे कभी
सन्न रह जाते सारे अवयव
काम करती इन्द्रियाँ भी
थककर चूर होकर
आसरा खोजती रहती है ।
नये तलाश का आनंद लेती
कोने में बैठे स्थूल शरीर को
देती है सहारा वही तस्वीर ।
दिखने लगता है-उसमें चेहरा
पुराना-बहुत पुराना-अधिक ।
अब धुंधले जीवन का उजाला
दूर कहीं दिखने लगता है ।
वही सरगम बुनने लगता है
जहाँ से बिगड़ने लगते हैं-तन ।
बार-बार भागने लगता है-मन ।
और बीच राह से वापस
कभी पुचकारती-कभी मनुहार करती
ढाँढ़स बँधाती यही कहती जाती-
मन को जीत कर भी उदास क्यों ?
आगे बढ़ो जमाने से जुड़ो ।
बढ़ने और जुड़ने का अलग ही मजा है
हासिये पर विलाप करने से
किस फलसफा को सिद्ध करोगे?
क्रमशः
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