स्वर्ग कहाँ है....
लोग कहते हैं
जीवन नरक हो गया
भागते-भागते जी ऊब गया
क्योंकि
सुबह से शाम तक
वह इसी जुगाड़ में वह रहता
कब ? किसकी ? और कितनी ?
जेब काटनी है ..............!
इस पर भी संतोष नहीं उसे
कुछ कर गुजरने की खातिर
जबरन वसूली करके संतोष कहाँ ?
घर-बार-दुआर का गुजारा कर
डूबने लगा वह अतल गहराईयों में
जहाँ जाने की ख्वाईश
खींच लाती थी मधुर स्वर लहरी ।
कहते हैं उसे स्वर्ग-सीढ़ी
जिसके सहारे अनजान व्यक्ति
ब्रह्म-आत्मा का दीदार करता ।
लेकिन ! टूटे पायदान से फिसलकर
उतरने को जमीन पर विवश-अपयश
हकीकत से टकराकर चूर-चूर हुआ
स्वप्निल विचारों का पहिया ।
यही कारण है कि -
वह खोजता-फिरता-भटकता
पहुँच जाता अपनी गुफा बीच।
कथित नरक में ऐसे जीवन को मिलती
नयी ऊर्जा-नयी ऊष्मा, नयी-नयी
यह उसकी नजर में स्वर्ग से भी बढ़कर
नया एहसास दिलाती ।
कुछ चीजें पाकर खुशी से कहता--
हम दूर नहीं जाते, ईश्वर को भी यहीं पाते
न ही तुलसी जल, बिन गोदान वैतरिणी पार।
क्रमशः
©डॉ. मनजीत सिंह
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