शनिवार, 28 दिसंबर 2019

फिर वही पुस्तकें : जो आकर्षित कर सकीं ।

फिर वही पुस्तकें : जो आकर्षित कर सकीं ।

 जूठन-त्रासदचित्रण का स्याह यथार्थ


जब व्यक्ति अध्ययन और चिंतन को एक साथ जोड़ने का प्रयास करता है तो उसके सामने दो ही स्थितियाँ उजागर होती है-यथार्थ और कल्पना । पहली स्थिति उसे सृजनात्मक आधारभूमि प्रदान करती है तो दूसरी के माध्यम से वह उस सृजन का विस्तार करता है ।
इस कसौटी पर जूठन एक ऐसी आत्मकथात्मक कृति है, जिसमें कल्पना की गुंजाईश कम है लेकिन लेखकीय विस्तार में इसका आश्रय लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अवश्य लिया गया है । परन्तु इस बात का आद्यन्त ध्यान देते हैं कि कल्पना कहीं चमत्कार की सीमा न पार कर ले, जहाँ तक पाठक की पहुँच सम्भव न हो ।
बहरहाल इस कृति का पहला भाग तो उसी समय पढ़ा था जब मैं "उचक्का"(लक्ष्मण गायकवाड़-मेरा आलेख-दलित विमर्श के संदर्भ में उचक्का का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन) के माध्यम से दलित विमर्श का गहन पड़ताल करने में कुछेक आलेख भी लिखे थे । परन्तु उस समय तक अर्थात पहले खण्ड में  लेखक ने पाठकों को पहले ही आगाह किया था कि-
"उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा-कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा ।" जबकि दूसरे में "सचमुच "जूठन" लिखना मेरे लिए किसी यातना से कम नहीं था । जूठन के एक एक शब्द ने मेरे जख्मों को और ताजा किया था, जिन्हें मैं भूल जाने की कोशिश करता रहा था ।"
आशय यह है कि-इस आत्मकथात्मक कृति की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि-इसके लिए न ही लेखक को किसी विज्ञापन एजेंसी का सहारा लेना पड़ा और न ही किसी सोशल मीडिया मंच के दोयम दर्जे के खाते का सहारा लिया गया, जिस हथकंडे के आधार पर आज कमोबेश सभी प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध नया-पुराना लेखक स्थापित परिपाटी को बनाये रखने का प्रयास करता है ।
जूठन के दूसरे भाग की भूमिका में डॉ. विमल थोराट ने बेहद सधे लहजे में सम्पूर्ण कृति की पृष्ठभूमि तैयार की है । इसी के अंत से उधार लेने का साहस जुटाता हूँ तो--जाति के अभिशाप से जर्जर हुई भारतीय सामाजिक संरचना को समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय जैसे मूल्यों में विश्वास के द्वारा नये समतामूलक समाज का उज्ज्वल सपना लेखक वाल्मीकि जी भविष्य के लिए देख रहे थे ।....'जूठन' का दूसरा खण्ड बीमारी के दौरान पूरा करके जानलेवा पीड़ा से गुजरकर उनके उन अनुभवों को हम सभी के लिए एक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत किया है ।(भूमिका से) 18 नवम्बर 2012 से  लेकर दिल्ली में अस्पताल की पीड़ा को सहज आत्मसात करते हुए अपनों के बीच स्वयं को पाकर कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए लेखक ने इस विधा को एक दर्जा ऊपर उठा दिया है ।
क्रमशः

https://www.facebook.com/drmanjit.singh1

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