पुरस्कार का यथार्थ
पुरस्कार
मंच पर आने से पहले
उछल कूद करता रहता
किस पाले में गिरेगा
इसी ऊहापोह में वह रहता |
क्या राजा ! क्या रंक !
क्या लेखक ! क्या मयंक !
क्या सुधारक ! क्या मृदंग !
सर्वत्र होते हुए भी नहीं रहता
जाते हुए भी नहीं जाता
कभी इस करवट लेता
कभी उस करवट लुढकता
वरदहस्त पड़ने पर ही
ठीक से साँसे लेता |
अप्सराओं की भांति वह
ऋषि-मुनियों का ध्यान भंग करता |
अंक बटोर (ए.पी.आई.) स्पर्धा में
पीछे भी नहीं रहता |
जीते जी तो यह याद क्यों करता
मृत्यु शैया पर कफ़न बन
जोर-जोर से हुंकार भरता |
आम-खास का मानक बनकर
हैसियत को घर लाकर भावी पीढ़ी का
गले की हड्डी जो बनता |
सीख दिलाता बार-बार यह
जीवन एक काफी नहीं है मेरे लिए
एक-दो-तीन-चार -पांच
मृत्यु जरू है मुझे पाने के लिए |
हाय ! यमराज भी तंग आकर
कर देते नीलाम उन पुरस्कारों को
जो न कभी था औ न कभी है , न
कभी होगा ||
१६ अप्रैल १३
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