बुधवार, 10 अप्रैल 2013

हम जब कभी कभार अपने गाँव लौटते हैं तो उन्हीं दृश्यों को आँखों में भर कर जाते हैं ,जिन्हें हम छोड़ आये थे। बेशक उन्हीं नज़ारों की ललक हमें गाँव की और खीचे लिए जाती है मगर जब वह सब गायब सा मिलता है तो हमें गाँव गाँव सा नहीं लगता . सवाल यह है कि गाँवों को अपना चोला बदलने का हक़ नहीं ?क्या ग्रामीणों की बदलती जरूरतों ने उनको निर्वासित नहीं किया ?उनके वृक्ष पहाड़ किसने काटे खोदे ? नदियों का पानी किसने बाँधा ?खनिज सम्पदा पर किसने सेंध मारी ?पशुओं के चरागाहों को किसने पत्थर की इमारतों में तब्दील कर दिया ? दूध से लेकर सब्जी और अनाज को पूँजी के मालिकों ने बंधक बना लिया ...इसके बाद भी हम शहर के सुखों से ऊबे हुए लोग उन लुटे हुए मंजरों में वही गाँव तलाशने जाते हैं जो हमारी स्मृतियों को पुलकित करता रहा है।भूल गए हैं कि गाँव की भी अपनी बुनियादी जरूरतें होती हैं ,जिनके वास्ते उसे समय के साथ बदलना होगा क्योंकि हम भी तो अपने गाँव वालों के हिसाब से कितना कितना बदल गये हैं !!

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