बुधवार, 10 अप्रैल 2013

दलित साहित्य का मेनिफेस्टो-शवदाह

दलित साहित्य का मेनिफेस्टो-शवदाह बनाम शवयात्रा

मुद्राराक्षस द्वारा संपादित दलित साहित्य में विशेष "नयी सदी की पहचान श्रेष्ठ दलित कहानियाँ " वास्तव में लाजबाब है |  इस कहानी संग्रह में कुल १४ कहानियां संकलित हैं | लेकिन  इसमें की बातें विशेष है | मैं  सबसे पहली बात तो यही है कि-प्रत्येक कहानी की शुरूआत वक्तव्य से हुई है, जिसमें कहानीकार अपनी काहानियों को कल्पनाजनित यथार्थ ( यदि भीष्म साहनी द्वारा नयी कहानी संग्रह, जो भारतीय ज्ञानपीठ  से छपी है-की भूमिका में दी गयी यथार्थ की नयी परिभाषा को आत्मसात करें तो ) को पृष्ठभूमि प्रदान करने के साथ ही उद्देश्य को भी स्पष्ट करते हैं | यह बात अलग है कि-इसकी पहली कहानी 'घायल शहर की एक बस्ती'(-मोहन दस नेमिस्राय ) मुझे ज्यादा प्रभावित नहीं कर सकी | लेकिन शवयात्रा (ओम प्रकाश वाल्मीकि) पढकर इसे दलित साहित्य का मेनिफेस्टो कहने में कोई संकोच नहीं हो रहा है | इसे यदि 'एक फूल की चाह' के साथ जोड़कर पढ़ें तो वास्तव में यथार्थ का नया रूप उजागर होता है | यह बात अलग है कि वहाँ मंदिर प्रवेश की समस्या थी और ज्वर से पीड़ित लड़की की अंतिम इच्छा एक फूल की थी लेकिन यहाँ समस्या को सार्वभौमिक सत्य के रूप में स्वीकार करते हुए स्वयं ओमप्रकाश वाल्मीकि ने माना है कि-कहानी मेरे लिए दहकते रक्त को सुन्न कर देने वाली यातनाएं हैं, जो इतिहास नहीं बन सकीं-वे व्यथा-कथाएँ हैं | इसका प्रमाण हमें कहानी के प्राम्भ से अंत तक मिलता है | सुरजा, संतो, कल्लन और उसकी बेटी सलोनी ही मुख्य पात्र के रूप में हैं जबकि बलराम सिंह यहाँ खलनायक के रूप में उपस्थित हैं, जो बल्हार जाती के लिए पक्के मकान बनाने का विरोध ही नहीं कर रहे हैं अपितु आस-पड़ोस में असहयोग की हिमायत भी कर देते हैं |
                  मनुष्य परिस्थियों का दस होता है |  लेकिन जब वह जब अपने परिवार की स्थिति से घिर जाता है तो उसके सामने केवल एक ही रास्ता बचता है, जिसका चुनाव वह विरले ही करता है  क्योंकि समाज इसकी अनुमति नहीं देता | इस सन्दर्भ में यह कहानी न केवल कल्लन  को घेरे रहती है अपितु वह अपने पिता और समाज में अपने समुदाय का स्थान बनाने के निमित्त ईंट खरीदता है अपितु एक जिम्मेद्दर पुत्र की तरह अपने पिता का  आज्ञाकारी पुत्र भी बनता है | परन्तु यहाँ एक बात थोड़ी खटकती है कि-आधुनिक समाज में दलित, अतिदलित कहा जाने वाला पुत्र भी उत्तर आधुनिक चोला ओढकर अपने समाज, परिवार और उन विपरीत परिस्थियों से मुँह मोड लेता है | जिसका उदाहरण कमोबेश हरेक गाँव में देखने को मिल जाता है | इस कसौटी पर यह कहानी थोड़ी काल्पनिक बन जाती है , जो पाठक वर्ग के अनुरूप ही लिखी जान पड़ती है | लेकिन सलोनी की बीमारी, संतों की सेवा, पिता का कर्तव्य आदि तथ्यों से इसे ऊँचा दर्जा दिया जा सकता है | सबसे बढ़कर शवदाह में महिलाओं का शामिल होना, गाँव का असहयोग आदि सामाजिक परिवर्तन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है |

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